‘‘मैं अपनी दुलिया की छादी लानी के टुड्डे से कलूंदी. लानी मेरी पक्की छहेली है,’’ रश्मि तुतलाई.
मां ने रश्मि को मनाने का असफल प्रयास किया, ‘‘पर, रानी का गुड्डा मोटा है. कद्दू कहीं का.’’
पापा ने विकल्प प्रस्तुत किया, “मम्मी का कहना मान ले. प्रिया के गुड्डे से कर ले. वह तो छरहरा है. रंग भी धूप सा उजला है.”
मां ने फिर से नाकभौंहें सिकोड़ी, “न बाबा न. हम अपनी बिटिया की गुड़िया की शादी प्रिया के चपटी नाक और बटन सी छोटी आंखों वाले गुड्डे से भी नहीं करेंगे. किसी राजकुमार से ही करेंगे प्यारी सी रश्मि की प्यारी सी डौली की शादी.”
पापा झल्ला उठे. ‘‘अगर उस से भी नहीं तो जिस में तेरी मम्मी के सींग समाएं उसी से कर. मैं नहीं पड़ता तेरी सहेलियों के गुड्डेगुड़ियों के चक्कर में. चाहें अपनी डल्लो को चरिकुमारी बना या कुएं में धकेल,’’ कह कर पापा अपनी फाइलों में डूब गए.
आज मां को रश्मि के लिए कोई लड़का पसंद नहीं आ रहा था. भैया और पापा रातदिन परेशान थे. जहां भी कोई रिश्त बताता, पापा और भैया जाते. रश्मि की फोटो और बायोडेटा दे कर आते. रश्मि थी ही ऐसी परीरूप कि उस की फोटो तुरंत पसंद कर ली जाती. पापा लड़के का फोटो और बायोडेटा मां को दिखाते, पर मां हर फोटो में कोर्ई न कोई नुक्स निकाल देती. बायोडेटा पढ़नेसुनने की नौबत ही नहीं आती. भैयापापा सिर पकड़ कर बैठ जाते. बड़े भैयाभाभी ने तो बीच में पड़ना ही छोड़ दिया था. हां, छोटे भैया निराश हो कर फिर उठते और बुझे मन से नए रिश्ते की तलाश में लग जाते. पापा एक बार तो फट ही पड़े, ‘‘इस आसमान की परी के लिए कोई ऊपर से ही उतरेगा अब. उसे जा कर हवाईजहाज में ढूंढ़ो.’’
हुआ भी यही. छोटे भैया सुशांत और मां दीपाली बूआ के यहां भात दे कर हवाईजहाज से मुंबई से लौट रहे थे. उन का सहयात्री किसी राजकुमार से कम नहीं लग रहा था. ब्लेजर में उस का रंग और भी दमक रहा था. उस का अखबार सुशांत के पैरों के पास गिरा तो उस ने सौरी कह कर अखबार उठा लिया. बस फिर तो दोनों में लंबी बातचीत का पहाड़ी रास्ता खुलता गया. रश्मि का ध्यान आते ही अम्मां के मन में विचार आया, ‘‘काश, ये अविवाहित हो. इस की सुंदरता में तो मैं कहीं से भी नंबर नहीं काट सकूंगी. लाखों में अलग ही दिखेगा.’’
सहयात्री का रंग हलका गुलाबी था. गहरी काली आंखों पर घनी पलकों की चिकें पड़ी थी. ऊंची नाक शुक नासिका को सार्थक कर रही थी. गुलाबी पतले होंठ गुलाब की पंखुड़ियों का आभास दे रहे थे. खनकती हंसी के बीच धवल दांतों की पंक्तियां अनार के दानों की भांति जड़ी प्रतीत हो रही थीं. सहयात्री में लड़़कियों सा सौंदर्य समाया था. काले घुंघराले बाल उस की सुंदरता को द्विगुणित कर रहे थे. सुशांत ने मन ही मन उस के साथ रश्मि को खड़ा किया तो उस के मुंह से अनायास निकल पड़ा, ‘‘वाह, क्या जोड़ी है.’’
सहयात्री ने चौंक कर सुशांत की ओर देखा और पूछा, ‘‘किस की?’’
उतरते जहाज से बाहर झांकते हुए सुशांत ने उड़ती फाख्ता की जोड़ी की ओर संकेत किया, ‘‘इन की.’’
सहयात्री सरल सा मुसकरा दिया. अम्मां के संकेत पर सुशांत ने उस से विजिटिंग कार्ड का आदानप्रदान कर लिया. वह दवाओं की कंपनी में सेल्स एक्जीक्यूटिव था. नाम था सृजन शर्मा. बातचीत में अम्मां ने जान लिया कि वह अविवाहित है.
मां को आज एयरपोर्ट से घर की दूरी द्रोपदी के चीर सी अंतहीन लग रही थी. रास्तेभर वह बस यही सोचती रहीं कि अब घर आए और कब वह रश्मि को बताएं कि मेरी खोज को आज विराम लग गया. रश्मि ठुनकेगी, ‘‘मम्मा, आप तो बस हर बार यही कहती हो. पर मेरा जवाब आज तक इस दुनिया में पैदा ही नहीं हुआ. आप ही तो कहती हो कि हंस बस मोती चुगता है.’’ बस, तब मैं सब को धीरेधीरे सृजन के बारे में बताऊंगी कि आज से तीस साल पहले रश्मि का जवाब इस धरती पर उतर चुका है. सब आश्चर्य से पूछेंगे, ‘‘क्या वाकई?’’ इसी उहापोह में टैक्सी घर के आगे रुकी. तब मां की विचारधारा को झटका लगा.
रश्मि सुबह से ही पूजा की शादी में गई हुर्ई थी. पूजा रश्मि से पूरे 6 साल जूनियर थी. पूजा की बड़ी बहन अपाला का विवाह साधारण रूपरंग के चार्टेड एकाउंटेंट अजस्र से सात वर्ष पूर्व हो चुका था. अपाला और रश्मि दांतकाटी रोटी थी. अपाला के रिसेप्शन से लौट कर मां ने मुंह बनाया था, ‘‘अपाला के मम्मीपापा ने क्या देखा? और ये मिट्टी की माधो अपाला मान कैसे गई उस बजरबट्टू अजस्र को?” डिनर पर बुलाया, तो पापा ने मां को झिड़का, ‘‘उस दिन तुम अजस्र को बजरबट्टू बता रही थी. बिलकुल रामसीता की जोड़ी है दोनों की. अजस्र सांवला है तो क्या हुआ? सीए है.’’
मां का मुंह फिर बिचका, ‘‘उलटा नहीं तो सीधा तवा कहीं का. सुनोजी, तुम ने उस की टांगें नहीं देखी क्या. बिलकुल सींकसलाई. ताड़ का पेड़ कहीं का.’’
पापा ने फिर समझाया, ‘‘क्या सूरत ही सबकुछ है? पोस्ट और घर कुछ नहीं. अपाला की ससुराल पर लक्ष्मी बरसती है.’’
बस पापा की इन्हीं बातों पर मां का मूड उखड़ जाता था. पापा चलतेचलते कह गए. पर अपाला अजस्र की पोस्ट, योग्यता और घर की स्थिति देख कितनी खुश है.
रश्मि के लिए जितने भी वर देखे गए, अम्मां का इनकार रश्मि पर उम्र की परतें चढ़ाता गया. रिश्तेदारी में भी रश्मि से छोटी उम्र की लड़कियों की शादी एकएक कर के होती जा रही थी. पापा दुखी हो कर कहते, ‘‘न जाने रश्मि के हाथ कब पीले होंगे? छोटे की धरोहर की भी शादी हो गई. रश्मि से पूरे चार बरस छोटी है. सुंदरता के चक्कर में एक से एक आला रिश्ते पानी की तरह हाथ से फिसलते जा रहे हैं. रश्मि उनतीस की हो गई है. तुम्हें सुंदरता को योग्यता से कम आंकना चाहिए. रश्मि के लिए लड़के की उम्र कम से कम तीसइकतीस होनी चाहिए. अब इस उम्र तलक कौन भीष्म पितामह बना बैठा होगा. चलो, मैं अब योग्य वर ढूंढ़ भी दूं तो क्या तुम चंद्रमा को पाने का अपना सपना छोड़ दोगी? किस कंदरा से लाऊं कामदेव तुम्हारी रति रानी के लिए?’’
रश्मि पूजा की शादी से लौटी, तो मां उस की प्रतीक्षा में जाग रही थीं. रश्मि सदैव की तरह लाड़ से इठलाई, ‘‘मां अब आईं. आईं तो क्या लाईं. नहीं लाईं तो क्यों आईं? अपनी इकलौती, लाड़ली, डार्लिंग बेटी के लिए.’’
मां के मन की हंसी चेहरे पर उतर आई, ‘‘देख, मैं न कहती थी कि कोई आसमान से ही उतरेगा अपनी हूर की परी के लिए. मेरी भविष्यवाणी सोलहों आने सच हुई. वह पूरा गंधर्व कुमार है.’’
रश्मि ने शंका व्यक्त की, ‘‘वह तो हर बार आप ही फेल कर देती हो. पर लगता है कि आप ने अब की बार पीतल और कंचन में भेद कर लिया है. मैं तो समझी थी कि मुंबई से आप मेरे लिए लेटेस्ट फैशन की ड्रेस नहीं, लेटेस्ट डिजाइन का मैच ले कर लौटी हो मेरे लिए.’’
‘‘देख, कल तेरे पापा भाईदूज का टीका कराने सल्लो बूआ के यहां जा रहे हैं. तेरी बड़ी भाभी और औकाधरा की कल किट्टी है. और तेरे बड़े भैया भी कल डबल शिफ्ट में ड्यूटी है,” मां बोली.
अम्मां के कहने पर अगले दिन सुशांत ने औफिस से सृजन को फोन कर के घर आने का निमंत्रण दे दिया. सृजन ने शाम को आने का वायदा कर लिया.
शाम को सृजन कुछ पहले ही आ गया. दरवाजा रश्मि ने खोला. सौंदर्य का अथाह सागर देख कर रश्मि ठगी सी रह गई. सृजन भी रूप की राशि रश्मि को देख कर अंदर आना भूल गया.
रश्मि ने संभल कर सृजन को अंदर आने को कहा. सृजन सकपकाते हुए बोला, ‘‘मि. सुशांत ने मुझे बुलाया है. क्या मिस्टर सुशांत घर पर हैं?’’
रश्मि ने सृजन को ड्राइंगरूम में बैठा दिया.
अंदर आ कर रश्मि का हृदय तेजी से धडक़ने लगा. ‘‘अम्मा ने सच ही कहा था. सारी सहेलियां जल उठेंगी. सब्र का फल मीठा होता है.’’
सृजन और सुशांत के बीच हो रही बातचीत भी रश्मि की विचार श्रृंखला को छोड़ नहीं सका. सुशांत ने मां से चाय भेजने को कहा, तो उन्होंने फिर से रश्मि को सृजन के सम्मुख प्रस्तुत करने के उद्देश्य से नौकर से चाय न भेज कर रश्मि से चाय ले जाने को कहा.
चाय मेज पर रखते हुए एक बार फिर से रश्मि का मन लुब्ध भ्रमर की भांति उस रूप लावण्य का दृष्टिपान करने की लालसा से सृजन की ओर नीची दृष्टि से देखने लगा. सृजन भी उसे अपलक देख रहा था. सुशांत ने दोनों की नजरें चार होते हुए देखा तो रश्मि लगातार अंदर चली गई. सृजन तो बातचीत का बिंदु ही भूल गया.
सृजन ने चलते समय सुशांत को घर आने का निमंत्रण दिया, तो सुशांत को अनायास ही मुंहमांगी मुराद मिल गई. सुशांत बोला, ‘‘मिस्टर सृजन, मैं आप के घर अब से चौबीस घंटे बाद यानी कल शाम पांच बजे आऊंगा. पर आप से नहीं, आप के पिताजी से मिलने. मेरे साथ मेरी मदर भी आप की माताजी से मिलने आएंगी. आप को कोई एतराज तो नहीं?’’ सुन कर सृजन मुसकराया. अचानक उस के मुंह से प्रथम कवि सा निकला. ‘‘नहीं भैया, मुझे तो प्रसन्नता ही होगी.’’
सुशांत ने जब मां को सृजन के निमंत्रण के बारे में बताया, तो मां ने ‘शुभस्य शीघ्रम’ के अनुसार अगले ही दिन सृजन के घर जाने का मन बना लिया.
अगले दिन सुशांत मां को साथ ले कर सृजन के घर पहुंचा. रास्ते में सुशांत ने मां का मन टटोला, ‘‘मां, आप आईएएस, आईपीएस तक को ठुकरा चुकी हैं, क्योंकि मैं आप की जिद जानता हूं. आप रूपदिवानी हैं. हमें आप से समझौता कर लेना चाहिए,’’ कह कर सुशांत ने मुंह पर ताला लगा लिया.
सृजन ने उन्हें हाथोंहाथ लिया. घर के अन्य सदस्य भी बहुत सौहार्द से मिले.
रश्मि का विवाह सृजन के साथ धूमधाम से होचित्रलेखा अग्रवाल गया. सब अम्मां की प्रसन्नता में प्रसन्न थे. स्वयं रश्मि की भी प्रसन्नता का कोई ओरछोर नहीं था. शादी का एक बरस, खुशियों का एकएक पल बन कर बीत गया. रश्मि मां बनने वाली थी.
धीरेधीरे सृजन कंपनी के काम में इतना उलझता चला गया कि उसे रश्मि की ओर ध्यान देने का अवसर कम ही मिल पाता. रश्मि उस का सानिध्य अधिक से अधिक चाहती, पर सृजन को उस के लिए समय निकालना असंभव होता जा रहा था. रात को सृजन के खाने की प्रतीक्षा में रश्मि खाने की मेज पर सिर रख कर सो जाती. सृजन आता और चुपचाप कपड़े बदल कर सो जाता. रश्मि की नींद खुलती, तो सृजन को सोया पाती. मेज पर खाना ज्यों का त्यों रखा देख रश्मि अपराधबोध से ग्रस्त हो स्वयं को उलाहना देती,
‘‘कितना थक जाते हैं सृजन. और मैं उन की प्रतीक्षा जाग कर नहीं कर सकी. कितना चाहते हैं मुझे. सोया देख कर जगाया तक नहीं और खाना भी नहीं खाया.’’
सुबह उठ कर सृजन बस जल्दीजल्दी की रट लगा देता. रश्मि को उसे नाश्ता तक कराना भारी हो जाता. एक दिन इसी जल्दीजल्दी के रट में रश्मि गिर ही गई होती, यदि बाथरूम का दरवाजा उस के हाथ में न आ गया होता. तब सास रुक्मिणी ने उसे टोका, ‘‘ऐसे दिन हैं तेरे रेशू. जरा संभल कर चला कर. सिरजू को नाश्ता मैं करा दिया करूंगी.’’
रश्मि सास की बात पर चुप रही, पर मन ही मन कहा, ‘‘सृजन को सामने बैठा कर खिलाने में मुझे जो सुख मिलता है, फिर कैसे मिलेगा. इसी बहाने पल दो पल उन के साथ बैठ लेती हूं, वरना सारे दिन भागते सृजन पानी की तरह हाथ से फिसलफिसल जाते हैं.’’
रश्मि सृजन से पूछती, ‘‘पास्ता, कट्लेट्स कैसे बने हैं?’’ सृजन रश्मि की पाककला की प्रशंसा ढंग से नहीं कर पाता. बहुत टेस्टफुल कह कर न जाने किन विचारों की भूलभुलैया में खो जाता. रश्मि उसे सृजन की व्यस्तता मान लेती.रक्षाबंधन पर भाइयों को राखी बांधने जाने से पूर्व रश्मि ने सृजन का मन टटोलने का प्रयत्न किया, ‘‘अम्मां के पास रहने के लिए इस बार अम्मांजी से लंबी छुट्टी सेंक्शन करा दीजिए.’’
सृजन को जैसे संबल मिल गया, ‘‘अम्मां का सेक्रेटरी मैं जो बैठा हूं, तुम्हारी छुट्टियां स्वीकृत करने के लिए बड़े वाले सूटकेस में कपड़े ले जाना.’’
सृजन का उत्तर सुन कर रश्मि का मुंह उतर गया. सृजन से दूर रहना उस के लिए मुश्किल था, पर सृजन ने अनजान बनते हुए सरलता से ‘हां’ कह दिया था.