सुभद्रा वैधव्य के दिन झेल रही थी. पति ने उस के लिए सिवा अपने, किसी प्रकार की कमी नहीं छोड़ी. यही था उस के सामने एक बड़ा शून्य. यही था उस की आंखों का पानी जो चारों प्रहर उमड़ताघुमड़ता रहता.
वह जिस घर में रहती है, वह दुमंजिला है. उस के निचले हिस्से सुभद्रा ने किराए पर दे दिए हैं. बाजार में 2 दुकानें भी हैं. उन में एक किराए पर है, दूसरी बंद पड़ी है. गुजारे से अधिक मिल जाता है, बाकी वह बैंक में जमा कर आती है.
जमा पूंजी की न जाने कब जरूरत आन पड़े, किसे पता? वह पति की कमी और खालीपन से घिरी हो कर भी जिंदगी से हारना नहीं चाहती. कहनेभर को रिश्तेदारी थी. न अपनत्व था और न ही संपर्क. मांबाप दुनिया से जा चुके थे.
पति के बड़े भाई कनाडा में बस गए. न कभी वे आए और न कभी उन की खबर ही मिली. एक ननद थी अनीता, सालों तक गरमी के दिनों में आती बच्चों के झुंड के साथ. छुट्टियां बिताती, फिर पूरे साल अपने में ही मस्त रहती. कभी कुशलक्षेम पूछने की ज़हमत न उठाती.
जिन दिनों उस का परिवार आता, सुभद्रा को लगता जैसे उस की बगिया में असमय वसंत आ गया हो. सुभद्रा अपनी पीड़ा भूल जाती. उसे लगता, धीरेधीरे ही सही उस की छोटी सी दुनिया में अभी भी आशाओं की कोंपले खिल रही हैं. अनीता, उस का पति निर्मल और तीनों बच्चे घर में होते तो सुभद्रा के शरीर में अनोखी ताकत आ जाती. सुबह से रात तक वह जीजान से सब की खिदमत में जुटी रहती. बच्चों की धमाचौकड़ी में वह भूल जाती कि अब वह बूढ़ी हो रही है. कब सुबह हुई और कब शाम, पता ही न चलता. इस सब के पार्श्व में प्रेम ही तो था जिस के कोने में कहीं आशाओं के दीप टिमटिमाया करते हैं.
जब बच्चों के स्कूल खुलने को होते, तब सुभद्रा के चेहरे पर उदासी की रेखाएं उभरने लगतीं. छुट्टियां ख़त्म होतीं और सब के प्रस्थान करते ही, फिर वही घटाटोप सन्नाटा, वही पीड़ा और एकाकीपन उसे घेर कर बैठ जाते. मानो कहते हों, सुभद्रा तुम्हारे लिए हम हैं और तुम हमारे लिए.
उम्र बेल की तरह बढ़ती रही और सुभद्रा 65 वर्ष पार कर गई. अनीता का आनाजाना अब बंद हो गया. कभीकभी उसे अपने इस समर्पित भाव पर क्षोभ होता, कभी हंसी आती. फिर सोचती, ननद के प्रति उस का कर्तव्य है. उसे रिश्ते निभाने हैं, लेकिन सीमा निर्धारित उसे ही करनी है. एक हाथ से ही कहां ताली बजती है.
प्रेम जीवन का आधार है. यदि प्रेम ही एकाकी रह जाए या उस की अवहेलना होती रहे, तब अवसाद जन्म लेता है, बिखराव आता है और उद्विग्नता भी. यही हो रहा था उस के साथ.
कभीकभी कसबे की हमउम्र महिलाएं घर पर मिलने आ जातीं. जी हलका हो जाता. मिलबैठ कर अपनेअपने दुखदर्द बांटने का इस से अच्छा उपाय उसे कोई दूसरा नहीं लगा.
सुभद्रा बहुत मिलनसार थी. कसबे में उसे भरपूर सम्मान मिलता. सभी से प्रेम से मिलता. असहाय मिल जाते तो उन की मदद करने से वह न चूकती. हिसाबकिताब में भी सुलझी हुई थी वह.
उस की सब से अधिक पटती थी लीला से. वह कसबे के संपन्न व्यवसायी की पत्नी थी. लीला थी बहुत ही व्यवहारकुशल, सुभाषणी और सुभद्रा की शुभचिंतक. बरसों की मित्रता थी और एकदूजे के सुखदुख की सहचर. उस ने सुभद्रा को कई बार बंद पड़ी दुकान खोलने का सुझाव दिया.
सुभद्रा टालती रही. क्या करेगी वह इस बुढ़ापे में. पैसा है, इज्जत है, हितैषी हैं और कितना चाहिए उसे?
कई दिनों के बाद एक दिन लीला अचानक घर पर आ गई.
सुभद्रा का चेहरा घने बादलों के बीच से निकलते सूरज की तरह चमचमाने लगा. वह खुशी से बोल पड़ी, ”गनीमत है आज तुझे मेरी याद आ ही गई. देख, सुभद्रा अभी जिंदा है, मरी नहीं.”
“बहुत व्यस्त रही इस दौरान पोतापोती के साथ. बाहर निकलना मुश्किल हो गया था.”
“अरे, मैं तो मजाक में कह गई. बैठ, पानी लाती हूं, थक गई होगी.” सुभद्रा बोली तो लीला मुसकरा दी, “मेरा कहा बुरा तो नहीं लगा, अपना मानती हूं, इसीलिए कह गई.”
“नहीं रे, तू मेरी सहेली ही नहीं, बहन भी है. तू डांटेगी भी, तो सुन लूंगी,” यह कह कर लीला हंस दी.
“तभी तो तू मेरे दिल में कुंडली डाले बैठी है,” सुभद्रा उठने का उपक्रम करती हुई बोली.
लीला जोरों से खिलखिलाने लगी, फिर थोड़ी देर में गंभीर हो गई, “कुछ फैसला किया तूने दुकान खोलने का?”
“समझ में नहीं आ रहा, एक औरत जात के लिए इस उम्र में इतनी जिम्मेदारी वाला काम. फिर, चले न चले.”
“आजकल औरतें मर्दों से कम हैं क्या? देख, दुख पीछे देखता है लेकिन आशा हमेशा आगे देखती है. समय निकाल कर दुकान में बैठना शुरू कर.”
“वह तो सब ठीक है लेकिन भागदौड़ नहीं हो पाएगी. पहले जैसी ताकत कहां है अब.”
“कोशिश करेगी, तो सब हो जाएगा. दुकान के लिए रैडीमेड गारमैंट्स मैं मंगवा दिया करूंगी.”
“अच्छा, जैसी तेरी इच्छा,” सुभद्रा ने सहमति में सिर हिलाया.
“सच कह रही है न? चलनाफिरना करोगी तो फायदा ही होगा,” लीला ने समझाया.
बातें करतेकरते सुभद्रा चाय भी बना लाई. लीला कुछ घंटे उस के पास बैठ कर अपने घर चली गई.
लीला का मन रखने के लिए उस ने दुकान की साफसफाई करवा दी. कुछ ही दिनों में लीला ने अपने पति से कह कर लुधियाना से होजरी का सामान मंगवा लिया. अब पुराने रैक, काउंटर इत्यादि रंगरोगन के बाद खिल उठे थे, रैडीमेड कपड़ों व रंगबिरंगे ऊनी स्वेटरों से दुकान सज गई. धीरेधीरे खरीददार भी आने लगे. उसे यह सब देख कर अच्छा लगने लगा.
इस बहाने उस का आसपास के लोगों से मेलमिलाप भी बढ़ गया और मन को आनंद की अनुभूति मिली सो अलग.
दिन ढलने लगता, तो वह हिसाबकिताब निबटा कर घर आ जाती.
लोग उम्र के बढ़ते ही हौसला छोड़ने लगते हैं और वह हौसला जोड़ने में लग गई. लीला का संबल ही उस की सब से बड़ी ताकत थी.
कुछ वर्ष फिर शांति से कट गए. कसबे के लोगों की नजर में सुभद्रा का कद और बढ़ गया. कसबे के लोग उस के अपने ही तो थे, सुखदुख के सहचर. कसबे के लोगों में उसे अपना परिवार सा दिखाई देता. किसी की दादी, किसी की बूआ, तो किसी की चाची, कितने सारे रिश्ते बन गए थे उस के.
हां, एक ननद ही थी जो रिश्ता निभाने में कंजूस निकली.
एक दिन अचानक निर्मल सीधे दुकान पर आ धमका. उन दिनों तबीयत ठीक नहीं थी सुभद्रा की. ननदोई की सेवा करने की क्षमता भी नहीं थी. सुभद्रा ने विवश स्वर में कहा, “अनीता को साथ लाते, तो वह तुम्हारे खानेपीने का खयाल रखती. दुकान खुली रखना भी मेरी मजबूरी है.”
“आना तो चाहती थी लेकिन बच्चों के एग्जाम हैं. वैसे, मैं शाम तक लौट जाऊंगा.”
“ऐसा भी क्या काम आ गया अचानक,” सुभद्रा ने उसे कुरेदा.
एकबारगी वह झिझका, फिर धीरे से बोला, “मदद चाहिए थी, इसलिए आप के पास आया हूं.”
“कैसी मदद, मैं कुछ समझी नहीं?” सुभद्रा ने निर्मल की ओर देखा. उस की आंखों की झिझक ने उस के अंदर का भेद कुछ हद तक उजागर कर दिया.
“2 लाख रुपयों की जरूरत आ पड़ी है. अनीता ने जिद्द की कि आप से मिल जाएंगे कुछ समय के लिए.”
सुभद्रा के होंठों पर फीकी मुसकराहट आ कर टिक गई. दुनिया में लोग स्वार्थ के लिए अपना सम्मान और प्रेम तक को ताक पर रख देते हैं. सच्चा प्रेम होता तो उस के दुख को समझते, उस की तकलीफ़ पूछते.”
सुभद्रा का मन खट्टा हो गया लेकिन प्रेम अपनी जगह कायम था, ननदोई है आखिर. अनिता जैसी भी है, अपनी है.