यह कैसा वातावरण था विश्वविद्यालय का, जहां दिन में तो सब शांत दिखता था मगर शाम ढलते ही एक अजीब सी मदहोशी छा जाती थी. खुलेपन की चाह लिए छात्रछात्राएं शराब और दैहिक सुख को ही असल आजादी समझते थे. ऐसे में गांव से अपना कैरियर बनाने आई मधुलिका करे भी तो क्या करे...

मुझ को जैसे ही यह खबर मिली कि मैं दिल्ली के एक मशहूर विश्वविद्यालय में एमफिल के लिए चयनित हो गई हूं तो खुशी के कारण मेरे पांव जमीन पर नहीं पड़ रहे थे. इस विश्वविद्यालय में एमफिल के लिए चयनित होने का मतलब सीधा सा था, कैरियर की ऊंची उड़ान.
एमफिल के बाद पीएचडी और फिर किसी विश्वविद्यालय में प्रोफैसर के पद पर नियुक्ति, बड़ी पगार और सम्मान का जीवन.

मैं सपनों का महल बनाने लगी थी और बस उसे अब सच के धरातल पर उतारना भर था. मुझ जैसी देहाती लङकी के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी. यहां तो कोई पुलिस की नौकरी भी पा जाता है तो गांव भर में मिठाई बंटती है, नाचगाना होता है और इलाके में नाम हो जाता है.

विश्वविद्यालय में प्रवेश की सभी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद मुझे छात्रावास में कमरा नंबर 303 आवंटित किया गया. कमरे में सामान ले कर पहुंची तो हक्कीबक्की रह गई. कमरे की दीवारों पर अश्लील भाषा लिखी हुई थी, टौयलेट की दीवारों पर भारत के महापुरुषों के बारे में अपशब्द लिखे हुए थे. इसे देख कर ऐसा प्रतीत हुआ कि पिछली बार यहां पर कोई निहायत ही बदतमीज लङकी रही होगी जो मेरी नजरों में छात्रा कहलाने लायक भी नहीं थी.

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