दिवाली पूजन, हंसीमजाक, शोरशराबा, भोजनपानी करतेकरते आधी रात बीत गई.
‘अब, मैं चलूंगी,’ दिवा बोली थी.
‘चलो, मैं तुम्हें छोड़ आता हूं,’ अवध की आंखों की चमक रमा आज तक भूल नहीं पाई है. अगर वह पुरुष मनोविज्ञान की ज्ञाता होती तो कभी भी अपने पति को उस मायावी के संग न भेजती.
... पति जब तक घर लौटे, वह मुन्ने को सीने से चिपकाए सो गई थी. फिर तो अवध रमा और मुन्ने की ओर से उदासीन होता चला गया. उस की शामें दिवा के साथ बीतने लगीं.
पत्नी से उस की औपचारिक बातचीत ही होती. मुन्ने में भी खास दिलचस्पी नहीं रह गई थी उस की. भोली रमा पति के इस परिवर्तन को भांप नहीं पाई. दिनरात मुन्ने में खोई रहती. वह मुन्ने को कलेजे से लगाए सुखस्वप्न में खोई थी.
एक दिन उस की सहेली ने फोन पर जानकारी दी, ‘आजकल तुम्हारे मियां जी बहुत उड़ रहे हैं.’
‘क्या मतलब?’
‘अब इतनी अनजान न बनो. तुम्हारे अवध का दिवा के साथ क्या चक्कर चल रहा है, तुम्हें मालूम नहीं? कैसी पत्नी हो तुम? दोनों स्कूटर पर साथसाथ घुमते हैं, सिनेमा व होटल जाते हैं और तुम पूछती हो, क्या मतलब,’ सहेली ने स्पष्ट किया.
‘देख, मुझे झूठीसच्ची कहानियां न सुना, वह अवध के साथ पढ़ती थी,’ रमा चिहुंक उठी.
‘पढ़ती थी न, अब अवध के साथ क्या गुल खिला रही है? मुझ पर विश्वास नहीं है, पूछ कर देख ले. फिर न कहना, मुझे आगाह नहीं किया. तुम इन मर्दों को नहीं जानतीं. लगाम खींच कर रख, वरना पछताएगी,’ सहेली ने फोन रख दिया.
अब रमा का दिल किसी काम में नहीं लग रहा था. मुन्ना भी आज उसे बहला नहीं सका. वह छटपटा उठी. सहेली की बात किस से कहे- मांजी से, पिताजी से... ना-ना उस की हिम्मत जवाब दे गई. वह सीधे अपने पति से ही बात करेगी, अवध ऐसा नहीं है.
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