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“डाक्टर से 4 दिन बाद का अपौइंटमेंट ले लेता हूं,” चाय का घूंट भरते हुए अरुण ने कहा, तो शिखा का कलेजा धक्क से रह गया.

“एक काम करो, जल्दी से नाश्ता तैयार कर दो. औफिस जाते समय हो सकेगा तो डाक्टर से मिल कर कल या परसों का ही समय ले लूंगा, क्योंकि यह काम जितनी जल्दी निबट जाए, अच्छा है.“

“हां, वो तो ठीक है अरुण... पर, एक बार ठंडे दिमाग से सोच कर देख लेते कि कहीं हम...”

“अब इस में सोचना क्या है...?” शिखा की बात को बीच में ही काटते हुए अरुण बोला, “वैसे भी कितनी मुश्किल से तो एक डाक्टर मिला है, और तुम्हें और वक्त चाहिए. यह काम तो उसी दिन हो जाता, पर तुम्हें ही वक्त चाहिए था. पता है न, इन सब कामों में रिस्क कितना बढ़ गया है. नौकरी पर तो आफत आएगी ही, जेल भी हो सकती है. लेकिन, जो भी हो, यह तो करवाना ही पड़ेगा. मां सही ही कह रही हैं कि जितनी जल्दी इस समस्या से छुटकारा पा लें, अच्छा है.“

“पर, अरुण..."

“क्या, पर...? कहना क्या चाहती हो तुम? पता है न, सिर्फ तुम्हारी मूर्खता के कारण आज 3-3 बेटियां पैदा हो गईं. लेकिन, इस बार कोई मूर्खता नहीं करूंगा मैं, क्योंकि मुझ में अब और बोझ उठाने की ताकत नहीं है," भुनभुनाता हुआ अरुण अखबार में आंखें गड़ा दिया कि तभी ढाई साल की प्यारी से जूही ‘पापापापा' कर उस की गोद में चढ़ने की कोशिश करने लगी. लेकिन अरुण ने बड़ी निर्दयता से उसे परे धकेल दिया और उठ कर कमरे में चला गया.

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