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‘जन्मजन्मांतर से ऋणी हूं तुम्हारा. तुम ने मुझे प्रेम करना सिखाया. तुम ने मुझे त्याग की परिभाषा समझाई. स्वार्थ की कंटीली बाड़ पार कर के मैं मखमली हरियाली पर चैन की नींद सो सका, तुम्हारे कारण. यह कोमल एहसास न होता तो होता एक शून्य जिस में विलीन हो जाती हर आशा, हर उमंग, हर प्रतीति,’ शची के कानों में बरसों बाद गूंज रहे ये संवाद उस के मन में टकराटकरा कर वापस लौट रहे थे.

इन संवादों में वह कसक, वह पैनापन था जो किसी के हृदय में प्रविष्ट हो सकें, लेकिन स्वयं उसी का मन दूरदूर तक एक रेगिस्तान बन चुका है जिस में कोई भाव सोखने की शक्ति नहीं बची.

कभी ये संवाद सुनते ही उस का मनमयूर उमंग से नाच उठता था. मन में आनंद की तरंगें उठने लगतीं. आंतरिक उल्लास के भाव चेहरे पर अनायास ही आ जाते और तालियों से सैट गूंज उठता, ‘शची गजब की ऐक्ट्रेस है. और प्रशांत भी.’

प्रशांत उस फिल्म में एक कवि का किरदार निभा रहा था. उस के काव्यात्मक संवाद मानो शची तक उस के भावसंप्रेषण का जरिया थे.

‘तुम बहुत दूर तक जा सकती हो. तुम्हारा फ्यूचर ब्राइट है,’ कह निर्देशक भावातिरेक में शची के हाथ थाम लेता.

प्रशांत, बस, आंखों ही आंखों में उस की तारीफ जताता. उस की सम्मोहक आंखों की ऊष्मा जैसे उस के तनमन से लिपट जाती.

दोनों ही अभिनय के क्षेत्र में अभी नवोदित थे, संघर्षरत थे. अभी बहुत समय था पर यह सर्वविदित था कि देरसवेर दोनों जीवनसाथी बनेंगे.

प्रशांत के घर जब शची जाती तो उस के पिता तहेदिल से उस का स्वागत करते, लेकिन उस की मां की निगाहें उसे चीर कर रख देतीं, ‘शची, उस फिल्म में तुम ने इतने कम कपड़े क्यों पहन रखे हैं? क्या यह जरूरी था?’

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