‘‘ये कायरों जैसी पत्रकारिता क्यों करते हो?’’
‘‘क्या... मतलब...’’
‘‘अरे, कहीं झगड़ा हो रहा है. एक व्यक्ति पिट रहा है और हम बजाय उसे बचाने के उस की रिपोर्टिंग करने बैठ जाते हैं. ’’
‘‘देखो, हमारा जो काम है, हमें वही करना चाहिए. ये फालतू बातें न सोचो और न ही मुझे सोचने पर मजबूर करो,’’ कमिल सुधा के तर्क से सहमत तो था, पर अपना नया सिरदर्द नहीं बढ़ाना चाह रहा था.
‘‘सोचना तो चाहिए... आप केवल पत्रकार ही नहीं हैं, एक कहानीकार भी हैं. कम से कम आप के दिल में तो संवेदना होनी चाहिए,’’ सुधा का स्वर गंभीर था.
‘‘वक्त आएगा तो हम वह भी कर के दिखा देंगे... अब चलो...’’ कमिल बात को ज्यादा आगे नहीं बढ़ाना चाह रहा था. वह जानता था कि सुधा कोमल स्वभाव की है. वह किसी को भी जरा सा दुखी देख कर खुद दुखी हो जाती है. पत्रकारिता के पेशे में दिनभर ऐसे दुखों और दुखियों से मिलते रहना पड़ता है. यदि वह यही सब करने बैठ जाए तो एक समाचार भी न बना पाए. वैसे तो अन्याय के खिलाफ जब भी वह लिखता, उस का लिखा दर्द से ओतप्रोत होता. संपादक भी बोलते,
‘‘वाह कमिल, कितना अच्छा लिखा है. सारा दर्द इस लेख में दिख रहा है.’’
पर, सुधा अभीअभी इस क्षेत्र में आई है. इस वजह से वह चाहती है कि हम सिर्फ लिखें नहीं, उस दर्द की दवा भी बनें.
'कमिल को घर पर बुलाया गया है, अर्जेंट.'
घर मतलब जबलपुर, जहां उस के मम्मीपापा रहते हैं. वह इस अर्जेंट शब्द पढ़ घबरा गया था. सुधा ने हिम्मत दी थी और उस की तैयारी कर उसे ट्रेन में बिठा दिया था. घर में कमिल के तिलक समारोह की तैयारियां चल रही थीं. मां ने बलाएं लीं और पिताजी उसे देख मुसकरा दिए. दादाजी उसे उंगली पकड़ कर ले गए थे बगीचे की ओर.
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