"सुधा कुछ पूछना चाह रही थी. अब आप हमारे पड़ोसी हैं, आप को तो इस की मदद करनी ही पड़ेगी,’’ मम्मी का मातृत्व सुधा के लिए था.
‘‘जी... बिलकुल. वैसे तो सुधा स्वयं ही बहुत होशियार है, पर फिर भी यदि उसे मेरी मदद की जरूरत होगी, तो मैं जरूर करूंगा."
मम्मी मौन हो गईं. वे चाहती थीं कि अब आगे सुधा ही बोले.
‘‘जी... मैं आप से माफी मांगने आई हूं. अनजाने में मैं ने आप के लिखे लेख को ही आप के सामने बोल दिया,’’ सुधा का सिर झुका था.
कमिल को सुधा का यों संस्कारित रूप बहुत अच्छा लगा.
‘‘नहीं, मैं पहले भी बोल चुका हूं कि इस में माफी मांगने जैसा कुछ नहीं है.’’
‘‘पर, फिर भी.’’
कमिल उठते हुए बोला, ‘‘मैं चाय बनाता हूं.’’
‘‘नहीं, हमें कुछ नहीं पीना. आप बैठिए,’’ सुधा समझ गई थी कि कमिल इस विषय पर बात नहीं करना चाह रहे हैं.
‘‘चाय तो पीनी ही पड़ेगी. आप लोग पहली बार मेरे घर... नहीं, कमरे पर आए हैं,’’ कमिल ने उठ कर स्टोव जलाना शुरू कर दिया था.
‘‘आप बैठिए, मैं चाय बना देती हूं,’’ सुधा उस के करीब पहुंच चुकी थी.
चाय सुधा ने ही बनाई.
लौटते समय सुधा की मम्मी कमिल को शाम का खाना उन के यहां खाने का निमंत्रण दे गईं.
उन दोनों के बीच बातों का सिलसिला प्रारंभ हो चुका था. धीरेधीरे रिश्ते अनौपचारिक होते चले गए. कमिल अकसर सुधा के घर ही खाना खाता या सुधा खाने का डब्बा ले कर उस के कमरे पर आ जाती.
कमरे की एक चाबी अब सुधा के पास रहने लगी थी. शाम को जब कमिल लौटता, तो उसे अपना कमरा सजासंवरा मिलता. वह समझ जाता कि सुधा ने कालेज से लौटने के बाद यहां साफसफाई की होगी. कई बार तो सुधा उस के कमरे में उस का इंतजार करती मिलती.