सीनियर की राह पर जूनियर
भारतीय हौकी टीम का प्रदर्शन पिछले कई वर्षों से लगातार बेहद खराब रहा है या यों कहें शर्मनाक रहा है. अब तो स्थिति यहां तक बन गई है कि जो टीम कभी ‘सोना’ बटोरने में ही यकीन रखती थी आज उसे सोना बटोरने की रेस में शामिल होने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है.
इस राष्ट्रीय खेल को ऐसी स्थिति तक पहुंचाने में हौकी के लिए जिम्मेदार संस्था की बड़ी भूमिका है. इस का जिक्र हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भी किया है. सब से बड़ा सवाल है कि आखिर हम बारबार कहां चूक रहे हैं? क्यों जो सीनियर खिलाड़ी कर रहे हैं वही गलतियां जूनियर खिलाडि़यों से भी हो रही हैं.
आखिरी मिनटों में गोल खाने की आदतों की वजह से हम जीता हुआ मैच गंवा बैठते हैं. टीम पैनल्टी कौर्नर को गोल में तबदील न कर पाने से आज भी जूझ रही है. इस का फायदा विपक्षी टीम उठा ले जाती है.
जूनियर हौकी टीम से वर्ल्ड कप जीतने की बड़ी उम्मीदें थीं लेकिन क्वार्टर फाइनल में दक्षिण कोरिया से हार कर वे उम्मीदें भी चकनाचूर हो गईं. हार की वजह आखिरी मिनटों में गोल खाना और पैनल्टी कौर्नर को गोल में न बदल पाना ही रही. जब तक टीम प्रबंधन इन कमियों को दूर करने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाता है तब तक टीम से बेहतर प्रदर्शन की उम्मीद करना बेमानी है.
अगर हमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय हौकी को फिर से जिंदा कर के ?उस में बादशाहत कायम करनी है तो दक्षिण कोरिया, आस्ट्रेलिया, हौलैंड जैसी टीमों द्वारा अपनाई जाने वाली रणनीति और तकनीक पर पैनी नजर रखनी होगी. साथ ही, उस पर अमल भी करना होगा.
 

घर पर शेर बाहर ढेर
अपने बुलंद हौसलों के साथ भारतीय क्रिकेट टीम जब दक्षिण अफ्रीका पहुंची तो लगा था कि इस बार भारतीय टीम साउथ अफ्रीका की जमीं पर जरूर कुछ कमाल कर दिखाएगी. विश्व विजेता टीम लगातार 2 एकदिवसीय मैचों में 100 रन से भी अधिक बड़े फासले से हार गई. अगर तीसरा मैच रद्द न हुआ होता तो शायद एक और शर्मनाक हार का टीम इंडिया को सामना करना पड़ता.
अभी तक भारतीय टीम का सामना दक्षिण अफ्रीका की जमीन पर 26 बार हुआ है जिस में 20 मैचों में भारतीय टीम को शिकस्त मिली है. इतिहास गवाह है कि भारतीय टीम अपनी ही धरती पर शेर है और विदेशी धरती पर पहुंचते ही ढेर हो जाती है जैसा कि दक्षिण अफ्रीका में हुआ. खराब प्रदर्शन के कारण कई खिलाड़ी रैंकिंग में भी पिछड़ गए हैं.
आखिर ऐसा क्यों होता है कि जबजब भारतीय टीम इंगलैंड, साउथ अफ्रीका, आस्ट्रेलिया जैसी टीमों के साथ उन के घरों में खेलने पहुंचती है तो वह चारोंखाने चित हो जाती है. चंद मैच पहले तक भारतीय धरती पर रनों का अंबार लगाने वाले बल्लेबाज 1-1 रन जोड़ने के लिए तरसने लगते हैं. उन के लिए उछाल लेती गेंदें अबूझ पहेली बन जाती हैं. ऐसे में विश्व विजेता टीम होने पर भी सवाल उठता है. आखिर बीसीसीआई ऐसी पिचें अपने देश में क्यों नहीं बनवाती जिस से कि ऐसा शर्मनाक प्रदर्शन न दोहराया जाए? यह समस्या केवल बल्लेबाजों के साथ ही नहीं है, गेंदबाज भी नाकारा साबित हो रहे हैं. जहां विपक्षी टीमों के गेंदबाज अपनी गेंदबाजी से भारतीय बल्लेबाजों को डरातेधमकाते हैं वहीं हमारे गेंदबाज विपक्षी बल्लेबाजों के लिए आसान टारगेट बन जाते हैं. विपक्षी टीम के नए बल्लेबाज भी शतक पर शतक जमाते जाते हैं. हर विदेशी दौरे पर शर्मनाक हार के बाद टीम प्रबंधन बड़ेबड़े दावे करता है लेकिन जमीन पर दिखता कुछ नहीं है. फिर से कोई अगला दौरा और फिर वही शर्मनाक परिणाम. अगर टीम प्रबंधन समय रहते उन कमियों को दूर नहीं कर पा रहा है तो विश्व विजेता कहलाने का हक भी नहीं रह जाता.

भारतीय महिलाओं का परचम
जालंधर के गुरु गोविंद सिंह स्टेडियम में खेले गए कबड्डी विश्वकप फाइनल में न्यूजीलैंड को 49-21 से हरा कर भारतीय टीम ने महिला वर्ग का खिताब अपने नाम कर लिया. भारत में इस पारंपरिक खेल को हमेशा से ही महत्त्व नहीं दिया गया क्योंकि इस में ग्लैमर का तड़का नहीं होता. बहुत कम ही लड़कियां इस खेल में आगे बढ़ पाती हैं. शहरी लड़कियों की भागीदारी भी कम देखने को मिलती है. गांवदेहातों व कसबों की लड़कियां इस खेल के प्रति रुचि जरूर दिखाती हैं पर जरूरत है उन्हें सही ट्रेनिंग और प्लेटफौर्म की. यह भी सच है कि यहां विदेशों के मुकाबले खिलाडि़यों को सुविधाएं नहीं हैं.
अगर कबड्डी खेल प्रबंधन क्रिकेट या अन्य खेलों की तरह प्रोत्साहन दे तो शायद यह खेल भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपना परचम लहरा सकता है क्योंकि इस खेल में भी कई संभावनाएं हैं. जैसेजैसे इस खेल को लोकप्रियता मिलेगी, प्रतियोगिता का स्तर भी बढ़ेगा.
शहर के गांव या छोटे से कसबों में खेले जाने वाले इस खेल को राष्ट्रीय खेल घोषित किए जाने, स्कूलों, शिक्षण संस्थानों में अनिवार्य किए जाने की जरूरत है. तभी जमीनी स्तर का यह खेल लोकप्रिय होगा और लड़कियां इस खेल में ज्यादा आगे आएंगी.

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