सारी दुनिया में औरत को हमेशा से ही पुरुषों से निचला दरजा मिलता रहा है. भारत की बात करें तो स्थिति और भी दयनीय है. आधुनिकता के दौर में आज जहां नारी सशक्तीकरण जैसे भारीभरकम शब्दों का पूरे जोरशोर से इस्तेमाल होता है वहीं किसी घटना में लड़ाई झगड़ा हो या फिर किसी महिला के साथ दुर्व्यवहार या बलात्कार का मामला हो, लोग पीडि़त महिला को भी दोषी ठहरा देते हैं. कई सम झदार लोगों का तो यहां तक कहना है कि दुनिया में जो कुछ भी गलत घट रहा है उस के लिए जर, जोरू या जमीन जिम्मेदार होती हैं.

यहां गौर करने वाली बात यह है कि इन 3 कारणों में से 2 तो निर्जीव व भोगविलास की वस्तुएं हैं पर तीसरा कारण यानी की जोरू (पत्नी) जीतीजागती औरत है. क्या वाकई इन बातों का औचित्य है या फिर हमारे पुरुष प्रधान समाज के कुछ प्रतिनिधि समाज में अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए ऐसी बातों को तूल देते हैं. वहीं, इसी समाज के कुछ पुरुष औरत के साथ हो रही ज्यादतियों का विरोध करते हैं और हर घटना के लिए सिर्फ औरत को ही दोषी नहीं ठहराते. ऐसे में उपरोक्त प्रतिनिधित्व पर प्रश्नचिह्न लगना स्वाभाविक है. आखिर क्यों बलात्कार जैसी घटनाओं में पीडि़त महिला को भी दोषी मान लिया जाता है. हो सकता है कि कुछ मामलों में ऐसा हो पर हर मामले में ऐसा ही होता है, यह कहना गलत है.

होने वाले हर लड़ाई झगड़े या हर घटना के लिए औरत ही जिम्मेदार है, यह भी गलत है. सदियों से औरत के साथ ऐसा ही होता आया है. रामायण में लिखा है कि 14 वर्षों का वनवास करने के बाद जब राम, सीता और लक्ष्मण अयोध्या लौटते हैं तो सभी खुशियां मनाते हैं. कुछ दिनों बाद ही वहां की जनता सीता की पवित्रता को ले कर प्रश्न उठाने लगती है. इसी कारण सीता को फिर वनवास पर जाना पड़ता है. एक तरफ तो जनता सीता को माता कहती है दूसरी तरफ उसी के चरित्र पर कीचड़ उछालती है. राम तो देवता थे तो फिर उन्होंने इस समस्या को पहले से ही हल क्यों नहीं किया? वे खुद फिर से क्यों नहीं सीता के साथ वनवास पर चले गए? जहां तक राज्य चलाने की बात थी, भरत तो यह काम 14 वर्षों से बखूबी निभा ही रहे थे तो क्या आगे आने वाले समय में भी वे शासन नहीं संभाल सकते थे?

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