‘‘मेरे हाथ बंधे हुए हैं. मैं वही सजा सुना सकती हूं जिस का प्रावधान है. लेकिन मेरी चेतना मु झे यह कहने के लिए अनुमति देती है कि वक्त आ गया है कि देश के कानून बनाने वाले विद्वान बलात्कार की वैकल्पिक सजा के तौर पर रासायनिक या सर्जिकल बधियाकरण के बारे में सोचें जैसे कि  दुनिया के तमाम देशों में यह मौजूद है.’’

इतिहास अपनेआप को दोहराता है कम से कम सर्जिकल कैस्ट्रेशन जैसी सजा को ले कर तो यह बात 100 फीसदी सच है. राजधानी दिल्ली स्थित रोहिणी जिला अदालत की अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश कामिनी लौ ने 17 फरवरी, 2012 को यौन अपराध के एक मामले में 30 वर्षीय बलात्कारी नंदन को हालांकि उम्रकैद की सजा सुनाई और निर्देश दिया कि दोषी को सजा में कोई रियायत न दी जाए यानी उसे मरते दम तक जेल में रखा जाए, लेकिन कसक के साथ न्यायाधीश ने यह भी कहा कि ऐसे मामलों में सर्जिकल कैस्ट्रेशन की सजा होनी चाहिए. उन्होंने अपनी इच्छा जताते हुए यह भी जोड़ा कि हमारे यहां ऐसी सजा का प्रावधान नहीं है.

आश्चर्यजनक किंतु सत्य यह है कि जज महोदया ने इस के पहले भी ठीक इन्हीं शब्दों में सर्जिकल कैस्ट्रेशन की वकालत की थी. तब उन्होंने शब्दश: उस जुमले का इस्तेमाल किया था जिस जुमले का इस्तेमाल हम ने लेख के शुरू में किया है. सचमुच इस तरह की एकरूपता बहुत कम देखने को मिलती है खासतौर पर जब मामला इतना संवेदनशील हो. बहरहाल, एक 30 वर्षीय रिश्ते के मौसा द्वारा 6 साल की बच्ची के साथ बलात्कार किए जाने पर जज महोदया ने यह फैसला सुनाया. इस फैसले की पृष्ठभूमि में टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज द्वारा कराए गए सर्वे के वे आंकड़े भी थे जो बताते हैं कि हिंदुस्तान की हर 3 में से 1 लड़की और हर 2 में से 1 लड़का परिजनों से ही यौनशोषण का शिकार है.

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