साधारण परिवार से ताल्लुक रखने वाली मनीषा शाह होनहार छात्रा थी. वह डाक्टर बनने का सपना देखती थी. अपने इस सपने को पूरा करने के लिए वह कड़ी मेहनत से पढ़ाई करती थी. गरीबी उस की राह में बाधा नहीं बनी. उस के इंटरमीडिएट में अच्छे मार्क्स आए, जिस से उस के हौसलों में इजाफा हो गया, लेकिन एक ही झटके में उस का सपना तिनकातिनका हो गया. बिस्तर पर अब उस की जिंदगी दूसरों के सहारे की मुहताज हो चुकी है. पढ़ाई की बात करने पर उस की आंखों से आंसू छलक आते हैं. परिवार के साथ गरीबी पूरी बेरहमी से पेश आ रही है.

बमुश्किल दो वक्त की रोटी और उन दवाओं का इंतजाम हो पाता है, जो मनीषा को जिंदा रखने के लिए जरूरी हैं. सभी की कोशिश मनीषा की जिंदगी बचाने की है. वक्त के साथ मनीषा को दर्द के दरिया से नजात मिल कर सब ठीक भी हो जाए, लेकिन वह टीस कभी नहीं जाएगी जो एक शोहदे ने उसे दी. वह सभ्य समाज में उस छेड़छाड़ का शिकार हुई जो युवाओं के लिए फैशन बन गया है.

यह कोढ़ग्रस्त इंसानियत की हकीकत है कि हर मिनट कोई न कोई युवती या महिला किसी न किसी कुंठित मानसिकता के हैवान का खुलेआम शिकार हो रही है. बेटियों की सुरक्षा को ले कर चिंता अभिभावकों की भी स्थायी फिक्र बन चुकी है. हकीकत के नैतिक पतन रूपी इस आईने से रूबरू और जागरूक के लिए कोई बुलंद आवाज नहीं उठती. नतीजतन, इस रोग का दायरा बढ़ता जा रहा है.

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