लेखक: कैलाश जैन

महिलाएं सभ्य समाज की धुरी होती हैं. लेकिन भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को देख कर लगता है कि यह धुरी दिनबदिन कमजोर होती जा रही है. पुरुष प्रधान समाज ने अपनी सारी परंपराएं और प्रथाएं स्त्रियों के शोषण हेतु निर्मित की हैं. बाल विवाह हो, सतीप्रथा हो या विधवा का सामाजिक जीवन, हर मुकाम पर शोषण की शिकार महिलाएं ही हैं.

स्त्री के देहशोषण की ऐसी ही एक अमानवीय परंपरा का नाम है, ‘देवदासी प्रथा.’ वर्तमान में इस परंपरा का स्वरूप, देवदासी को मात्र धर्म द्वारा अनुमोदित वेश्या का दर्जा दिलाने का रह गया है.

इस वर्ष की शुरुआत में नैशनल लौ स्कूल औफ इंडिया यूनिवर्सिटी, मुंबई और टाटा इंस्टिट्यूट औफ सोशल साइंसेज, बेंगलुरु द्वारा देवदासी प्रथा पर 2 अध्ययन किए गए. कर्नाटक देवदासी अधिनियम 1982 के 36 वर्ष से अधिक समय बीत जाने के बाद भी राज्य सरकार द्वारा इस कानून के संचालन हेतु नियमों को जारी करना बाकी है.

1988 में आंध्र प्रदेश सरकार ने भी इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था. बावजूद इस के, वर्ष 2013 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने बताया था कि अभी देश में 4,50,000 देवदासियां हैं.

इस का मतलब है कि इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए केवल नाममात्र की पहल की गई है और माना जा रहा है कि अब यह कुप्रथा कर्नाटक से निकल कर गोवा तक पहुंच गईर् है. इतना ही नहीं, यह तेजी से फैल भी रही है.

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भारत में देवदासी प्रथा के प्रचलन का इतिहास बहुत पुराना है. आर्यों के भारत आने से पहले से ही यह प्रथा यहां जारी थी. एक धारणा के अनुसार, जब मूर्तिपूजा के विकास के साथ मंदिरों का निर्माण प्रारंभ हुआ, तब उपासना की विधियों, तंत्रमंत्र के प्रभाव में काफी वृद्धि हुई. धर्म को जब राज्याश्रय प्राप्त हुआ तो वैभव प्रदर्शन से परिपूर्ण भव्यविराट, पूजाअर्चना के आयोजन होने लगे. ऐसे आयोजनों की भव्यता को बढ़ाने के लिए नृत्य और गायन में पारंगत सुंदर नवयौवनाओं का उपयोग किया जाने लगा. अनुमान है कि यहीं से देवदासी परंपरा की शुरुआत हुई होगी.

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