उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार के एक फैसले ने सर्दी शुरू होने के पहले ही गरमाहट पैदा कर दी. योगी सरकार ने ऐलान किया है कि प्रदेश के मदरसों में भी मौडर्न तालीम दी जाएगी.

इसी कड़ी में सरकार की तरफ से एक फरमान जारी किया गया, जिस में साफ लफ्जों में कहा गया कि सरकार मदरसों में मौडर्न तालीम दे ताकि वहां के छात्र भी हिंदी, अंगरेजी मीडियम स्कूलों में पढ़ने वाले छात्रों से बराबरी कर सकें.

उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा ने ट्वीट किया कि मदरसों में एनसीईआरटी की किताबों से पढ़ाई होगी.

मंत्री के ट्वीट के मुताबिक, आलिया (इंटरमीडिएट) लैवल पर गणित और विज्ञान को अनिवार्य किया जाएगा.

देश में मुसलिम आबादी की बात की जाए तो वह तकरीबन 15 करोड़ के आसपास है लेकिन उन की आबादी के हिसाब से स्कूल, कालेज या यूनिवर्सिटी में मुसलिमों की तादाद काफी कम है. आजादी के 70 साल बाद भी मुसलिमों के हालात बेहतर होने के बजाय लगातार खराब होते गए हैं.

केंद्र और राज्य में सरकारें आती रहीं, सभी ने वोटों के लिए मुसलिमों से लुभावने वादे किए, लेकिन जब सत्ता में आए तो बेगानों की तरह भुला दिए गए.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने चुनावी भाषणों में कहा कि हम मदरसों के बच्चों के एक हाथ में कुरआन और दूसरे हाथ में कंप्यूटर देखना चाहते हैं.

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आज के मौडर्न दौर में मुसलिम तरक्की के रास्ते में कैसे पीछे छूट गए, आखिर क्या वजह है इन के पिछड़ने की आप भोपाल स्टेशन उतरिए तो वहां आप को ज्यादातर आटोरिकशा ड्राइवर और कुली मुसलिम ही मिलेंगे, फर्नीचर की दुकानों में कारीगर मुसलिम, सब्जी बेचने वाले मुसलिम.

यह तसवीर सिर्फ भोपाल शहर की नहीं, बल्कि हमारे देश के ज्यादातर हिस्सों की है. इस की अहम वजह क्या है?

मुसलिम कौम दुनियावी जिंदगी से ज्यादा दीन पर अमल करती है, लेकिन दूसरे मुसलिम मुल्कों की तरह भारत के मुसलिम दीन और दुनिया में तालमेल नहीं बिठा पाए. साल 2011 की जनगणना ने मुसलिमों की सचाई को और भी ज्यादा उजागर कर दिया.

आंकड़े बताते हैं कि भारत में 42.72 फीसदी से ज्यादा मुसलिम अनपढ़ हैं. जैन समदुय में महज 13.57 फीसदी अनपढ़ हैं, जबकि दोनों ही समुदाय अल्पसंख्यक माने जाते हैं.

जैन समुदाय के 25.7 लोग ग्रेजुएट हैं, जबकि मुसलिमों में यह आंकड़ा सिर्फ 2.8 फीसदी है. ईसाइयों में 8.8 फीसदी और सिखों में 6.4 फीसदी लोग ग्रेजुएट हैं.

मुसलिम अपने बच्चों को आज भी पारंपरिक तौर पर मदरसों में ही पढ़ाना पसंद करते हैं या फिर यह उन की मजबूरी है.

देश में मुसलिमों की आबादी तकरीबन 15 करोड़ है, जिस में से 24.9 फीसदी लोग भीख मांग कर गुजारा करते हैं. सच्चर कमेटी ने काफी पहले ही अपनी रिपोर्ट में मुसलिमों की बदहाली के बारे में बताया था और यह भी कहा था कि इन के हालात दलितों से भी ज्यादा बदतर हैं. जिस देश में, समाज में या किसी कौम में जब पढ़ाईलिखाई का लैवल नीचा रहता है, तो वहां की ज्यादातर आबादी भी गरीब होती है.

भारत में सब से कम पढ़ेलिखे लोग मुसलिम हैं. एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा. कम पढ़ना या अपढ़ता भी गरीबी की एक अहम वजह हो सकती है, लेकिन सरकार तालीम के प्रसार के लिए तरहतरह की योजनाओं से सभी समुदाय के बच्चों को आगे बढ़ने का खुला मौका मुहैया करा रही है, इस के बावजूद यह तबका अनपढ़ है.

जानेमाने लेखक असगर वजाहत का कहना सही है कि उत्तर भारत का मुसलिम समाज कई धार्मिक मुद्दों पर बंटा हुआ है. यह बंटवारा इतना ज्यादा कर दिया गया है कि आपस में बातचीत तक बंद है.

ज्यादातर धर्मगुरु तालीम पर बल नहीं देते, क्योंकि पढ़ालिखा मुसलिम उन के चंगुल से आजाद हो जाता है और यही धर्मगुरु नहीं चाहते हैं.

कुछ लोग तो तालीम के प्रति सचेत करने व जागरूकता फैलाने के लिए कार्यक्रम चला रहे हैं, लेकिन परेशानी इस बात की है कि कुछ समय बाद इस तरह के कार्यक्रम मजहबी चोला ओढ़ लेते हैं. जिस मकसद के लिए उन का संगठन बना था, वो धार्मिक कामों में ज्यादा ध्यान देने लगता है.

आज के दौर में जहां अंगरेजी मीडियम स्कूल के बच्चों को मौडल्स, तसवीर, प्रोजैक्टर वगैरह कई तरह की मौडर्न तकनीक का इस्तेमाल कर के पढ़ा रहे हैं, वहीं मदरसे में बच्चों को आज भी पुराने ढर्रे पर पढ़ाया जा रहा है. इस से पढ़ने वाले बच्चों को सही जानकारी नहीं मिल पाती है.

मदरसों में आज भी छोटी जमात के बच्चों को समझाने के बजाय पढ़ाई के नाम पर सिर्फ रटाया जाता है. उन का गणित, विज्ञान और कंप्यूटर से दूरदूर तक का कोई वास्ता नहीं होता है.

मदरसे में पढ़ कर किसी तरह की नौकरी का सपना संजोना सपना ही है, क्योंकि वहां ऐसी तालीम नहीं दी जाती जिस से रोजगार मिले.

भोपाल में तर्जुमा वाली मसजिद के छात्र मौलाना इरशाद और अब्दुल हसीब से जब यह पूछा गया कि क्या आप चाहते हैं कि मदरसों में भी मौडर्न तालीम के तहत तसवीर, मौडल्स या प्रोजैक्टर के जरीए पढ़ाया जाए तो इन छात्रों का कहना था कि ऐसा करना इसलाम के खिलाफ है और यह गुनाह का काम है, इसलिए इस के इस्तेमाल की जरूरत नहीं है.

वहीं बरअक्स कारी आजम का कहना था कि आज के हालात के मद्देनजर मदरसों में भी मौडर्न तालीम बहुत ही जरूरी है इसलिए अंगरेजी मीडियम स्कूलों की तरह यहां भी बच्चों को पढ़ाने और समझाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल करना चाहिए.

मौलाना यूसुफ नदवी कहते हैं कि मदरसों में मौडर्न पढ़ाईलिखाई जायज ही नहीं, बल्कि वक्त को देखते हुए बहुत जरूरी है. छोटी जमात के बच्चों को समझाने के लिए तकनीक का इस्तेमाल जरूरी है, खासतौर से भाषा की पढ़ाई में.

कई बड़े मदरसों में अरबी, उर्दू के साथ ही साथ हिंदी, अंगरेजी, विज्ञान और कंप्यूटर की क्लासें भी चलती हैं, लेकिन सिर्फ बड़े मदरसों में पढ़ा कर ज्यादा फायदा नहीं होगा, इसलिए सभी मदरसों में ऐसी मौडर्न तालीम दी जाए.

मुसलिम भी बेडि़यों को तोड़ कर वक्त के साथ कदम से कदम मिला कर चलना ही नहीं, बल्कि तेजी से दौड़ लगाना चाहते हैं. इस के लिए पहल उन्हें ही करनी होगी तभी मुख्यधारा में आ सकते हैं.

पिछले कुछ सालों में मुसलिम तालीम के लिए कई संगठन ईमानदारी के साथ काम कर रहे हैं. उन की इस मुहिम को कामयाबी भी मिल रही है, लेकिन उतनी तेजी से नहीं, जितनी जरूरत है.

एक बात और है कि मुसलिम लड़कों के मुकाबले मुसलिम लड़कियां तेजी से आगे बढ़ रही हैं.

सच्चर कमेटी की रिपोर्ट पढ़ने से साफ हो जाता है कि मुसलिम के उन्हीं इलाकों में मदरसे ज्यादा हैं, जहां उन के लिए प्राइवेट या सरकारी स्कूल मौजूद नहीं हैं, इसलिए सरकार को चाहिए कि वह मुसलिम बहुल इलाकों में स्कूल खोले, जहां मुसलिम बच्चे भी स्कूल में पढ़ कर आगे बढ़ सकें.

मुसलिम समाज में पढ़ाई अधूरी छोड़ने वाले बहुत ज्यादा हैं और गंवई इलाकों में लड़कियों की तालीम छोड़ देने की दर लड़कों से ज्यादा है, जबकि शहरों में यह दर कम है.

साल 2015 में भारत के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी ने मुसलिमों की हालत में सुधार के लिए सरकारी और सामाजिक लैवल पर सकारात्मक कदम उठाए जाने की जरूरत पर जोर दिया था.

रंगनाथ मिश्र कमेटी ने भी मुसलिमों को 10 फीसदी रिजर्वेशन देने का प्रस्ताव दिया था. लेकिन इन सिफारिशों पर कभी अमल नहीं किया गया. यही वजह है कि मुसलिमों की हालत आज भी खराब चल रही है. सरकार वक्तवक्त पर मुसलिमों के लिए कई तरह के लुभावने वादे कर के उन्हें अपने लिए वोट बैंक समझ कर झुनझुना पकड़ा देती है.

गरीबी भी तालीम के प्रति अनदेखी की एक अहम वजह है, इसलिए सरकार को मुसलिमों के साथ मिल कर समाधान ढूंढ़ना चाहिए. इस के समाधान के बिना उन्हें मुख्यधारा में शामिल नहीं किया जा सकता. गरीब मुसलिमों से जब उन के बच्चों के पढ़ाई छोड़ कर काम करने पर बात की जाती है तो उन का साफ कहना होता है, ‘‘नौकरी तो मिलने से रही, पर अगर बच्चों को वक्त पर काम नहीं सिखाया तो आवारा घूमेंगे…’’

एक बात एकदम साफ है कि सरकार ने मुसलिमों को इस तरह बना दिया है, अगर उन्हें प्यास लगती है तो सरकार के पास पानी के लिए आते हैं. सरकार उन्हें बारबार पानी पिलाती है, कभी वक्त पर तो कभी बेवक्त. लेकिन उन की प्यास बुझाने के लिए किसी भी सरकार ने आज तक कोई ऐसा ठोस काम नहीं किया, जिस से मुसलिमों को पानी पीने के लिए सरकार का चक्कर न काटना पड़े. वोटों के लिए ऐसी मंशा सभी सरकारों की रही है.

इस नए फैसले के पीछे योगी आदित्यनाथ की नीयत भी साफ नहीं है कि वे वाकई मदरसों में पढ़ाई कराना चाहते हैं या केवल दखलअंदाजी का रास्ता ढूंढ़ रहे हैं.

जिस तरह का माहौल आज बना हुआ है, उस में सुधार के कदम को अगर शक की निगाहों से देखा जा रहा है तो कोई हैरत की बात नहीं है.

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