कई आदिवासी मर्द अपनेअपने धनुष को घुमाफिरा कर देख रहे थे. उस की प्रत्यंचा की जांचपड़ताल कर रहे थे. वे तीरों के नुकीलेपन को मापते दिख रहे थे.

कुछ आदिवासी अपने तीरों को और नुकीला और मारक बनाने के लिए उन्हें पत्थरों पर घिस रहे थे. कोई तीरों के किनारों पर बेहोशी की दवा लगा रहा है.

मर्दों की इस गहमागहमी के बीच उन की बीवियां खामोशी के साथ उन्हें टुकुरटुकुर देख रही थीं. हर आदिवासी औरत की आंखें आंसुओं से तर थीं. वे अपने शौहरों को रोकना चाहती थीं, पर परंपराओं और अंधविश्वास की जंजीरें उन्हें ऐसा नहीं करने दे रही थीं. उन्हें पता था कि सेंदरा पर्व के लिए निकलने वाले मर्दों की टोली में से कई मर्द जिंदा लौट कर घर नहीं आएंगे.

जिन के शौहर जिंदा वापस नहीं आ सकेंगे, उन औरतों को अपनी मांग का सिंदूर पोंछना पड़ेगा, चूडि़यां तोड़नी पड़ेंगी. किसी अनहोनी के डर से आदिवासी औरतों ने कंघी करना छोड़ रखा था. वे सादा खाना बना रही थीं.

झारखंड की राजधानी रांची से तकरीबन 130 किलोमीटर दूर बसे जमशेदपुर के दलमा जंगल में हर साल आदिवासी सेंदरा पर्व मनाते हैं. इस पर्व के बहाने मासूम जानवरों को मारने का खूनी खेल खेला जाता है.

सेंदरा पर्व में आदिवासी दलमा की वनदेवी की पूजा करते हैं. वे मानते हैं कि जानवरों को मारने से वनदेवी खुश होती हैं और बारिश भी अच्छी होती है.

पहले केवल खतरनाक जानवरों का ही शिकार किया जाता था. इस के पीछे यह माना जाता था कि खतरनाक जानवरों को मार कर आदिवासी अपनी हिफाजत करते हैं, पर धीरेधीरे इस पर्व पर अंधविश्वास ने अपना कब्जा जमा लिया. आज आदिवासी खरगोश और मोर को मारने से भी हिचकते नहीं हैं.

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