कबाड़ में तबदील हो चुके वैमानिक जखीरे को ढो रही देश की वायुसेना इस समय अपने सब से खराब दौर से गुजर रही है. 8वीं पीढ़ी के अत्याधुनिक विमानों की बाट जोह रही सेना को एक बार फिर पुराने या सैन्य शब्दावली के मुताबिक कबाड़ राफेल विमान को झेलना पड़ेगा जो कि 15 साल पुराना यानी तीसरी पीढ़ी का है क्योंकि तमाम उत्साहजनक व मनभावनी बातों के आश्वासनों के बावजूद हमारे हुक्मरानों ने एक बार फिर रक्षा क्षेत्र के लिए दुनिया का सब से महंगा मगर विवादास्पद और वायुसेना के लिए बिलकुल अनुपयुक्त सौदा कर लिया है.

फ्रांस के राफेल विमान का निर्माण वर्ष 2001 में किया गया था और भारत द्वारा मय तकनीक व स्वदेशीकरण के इस की खरीद को पहली मंजूरी वर्ष 2012 में दी गई थी. इस के तहत 126 में से मात्र 18 विमान वर्ष 2015 तक भारत को मिलने थे. वर्ष 2015 तो गया और 2016 भी खत्म होने को है. एक और नया वर्ष भी करीब है और अभी तक सौदा परवान ही चढ़ पाया है. यानी सीधेसीधे 10 साल पुराने इस विमान के मुकाबले संसार में इस से भी ज्यादा उन्नत व अत्याधुनिक तकनीक से लैस सस्ते 19 विमान बिक्री के लिए उपलब्ध हैं.

सैन्य दुनिया में इस तरह के विमान को भी कबाड़ का नाम दिया जाता है. इतना ही नहीं, हमारे हुक्मरानों को इस कबाड़ के एवज में वर्ष 2012 के मुकाबले 13 गुनी राशि (करीब 59,000 करोड़ रुपए) चुकानी होगी और वह भी बगैर मुख्य तकनीक, स्वदेशीकरण व कलपुर्जे प्राप्त किए. इस के बदले में उसे केवल 36 विमान प्राप्त होंगे. इस के साथ ही, सामान्य कलपुर्जों समेत अन्य सहायक प्रणालियों के लिए रिलायंस समूह से औफसैट करार किया गया है जबकि भारत सरकार का रक्षा व अनुसंधान विभाग इस के लिए पूर्णतया उपयुक्त और सक्षम था.

जब देश का रक्षा अनुसंधान विभाग राफेल से भी ज्यादा उन्नत व सस्ते 5वीं पीढ़ी के विमान विकसित व परीक्षण कर सेना को सौंपने के कगार पर पहुंच चुका था और सेना ने परीक्षण कर हरी झंडी दे दी थी तब अचानक ही फ्रांस से इस बेतुके सौदे को अंतिम रूप देना किसी भी दृष्टि से गले नहीं उतरता. इस से यह सिद्घ होता है कि हुक्मरानों की कथनी और करनी में जमीनआसमान का अंतर है. जिस समय यह सौदा परवान चढ़ाया जा रहा था उस से काफी पहले ही वायुसेना रक्षा एवं अनुसंधान विभाग को 300 से भी ज्यादा विमान सप्लाई करने का और्डर दे चुका था. बहरहाल, अब वह परियोजना और और्डर खारिज कर दिए गए हैं.

हथियार कंपनियों का कबाड़

हम ने शायद समझ लिया है कि युद्घ में हथियारों से ज्यादा हमारे 33 करोड़ देवीदेवता काम आएंगे. गजनवी ने जब सोमनाथ मंदिर पर हमला किया था तब की सोच आज भी कायम है. तब हमारे कर्णधार कुछ करने के बजाय भगवान के चमत्कार की प्रतीक्षा करते रहे. बाहरी लोगों की सेनाएं लूटपाट कर, लोगों को मार कर चली गईं.

हकीकत में इस समय हमारी वायुसेना अपने सब से खराब दौर से गुजर रही है क्योंकि रूसी मिग व मिराज विमानों का बेड़ा सालों पहले ही एक्सपायर हो कर कबाड़ में बदल चुका है और पिछले 3 दशकों से कोई नई खरीद नहीं हुई है. लिहाजा, टोही, फाइटर, लड़ाकू व मिसाइल रोधी विमानों की संख्या लगभग न के बराबर है और जानकारों व सैन्य विशेषज्ञों का कहना है कि फिलहाल हमारी वायुसेना किसी भी मामूली बाहरी आक्रमण को झेलने में भी सक्षम नहीं है. कुछ का तो यह भी कहना है कि 1965 की लड़ाई में पाकिस्तान ने जिस प्रकार हमारे लगभग 40 विमानों को नष्ट कर बढ़त हासिल कर ली थी, हालात आज उस से भी ज्यादा बदतर हैं. बेहतर होता कि तत्काल जरूरत के हिसाब से कुछ तैयार व सुलभ अत्याधिक विमान अमेरिका व इसराईल से खरीद लिए जाते. अब तो बस साल दर साल बजट बढ़ाने की परंपरा जरूर नियम से निभाई जा रही है और अन्य पड़ोसी देशों से बराबरी व आधुनिकीकरण के नाम पर उन्नत देशों की दिवालिया होती कंपनियों का कबाड़ खरीद लिया जाता है.

और तो और, हमारे वीर जांबाजों को जूते, मोजे, बुलैटप्रूफ जैकेट, कपड़े आदि भी पर्याप्त मात्रा में मयस्सर नहीं हैं. तीसरी पीढ़ी के करीब डेढ़ दशक पुराने इस विमान की जगह अमेरिका व इसराईल में 7वीं पीढ़ी के अधिक उन्नत विमान काम में लिए जा रहे हैं और जब तक यह राफेल विमान भारत को प्राप्त होगा तब तक इसराईल 9वीं पीढ़ी के विमान का प्रयोग कर रहा होगा.

संसदीय समिति के अलावा वायुसेना के तमाम विशेषज्ञ व पूर्व उच्चधिकारियों की नकारात्मक रिपोर्टों व विरोध के बावजूद तत्कालीन मनमोहन सरकार की ही तरह वर्तमान मोदी सरकार भी इस सौदे के प्रति बेहद उत्सुक व गंभीर रही है. यह आश्चर्यजनक व समझ के बाहर की बात है कि सेना की खरीद व देश की सुरक्षा के प्रति सभी राजनेताओं व सरकारों का रवैया सौ फीसदी एकजैसा ही रहता है. अपने देश में कम से कम रक्षा एकमात्र ऐसा क्षेत्र है जिस के समस्त मामलों पर देश के सभी राजनेता व दल एकमत रहते हैं.

पिछले डेढ़ दशक के दौरान रक्षा क्षेत्र की वैश्विक सोच में भारी परिवर्तन आया है. बुनियादी ढांचे को विकसित करने के अलावा अधिकांश देशों ने इस में भी पेशेवराना रुख अख्तियार कर लिया है. ब्रिटेन, फ्रांस, जरमनी, अमेरिका, इसराईल जैसे देशों ने खासी तरक्की की है पर चीन इन सब से काफी आगे निकल चुका है. सीमा से लगे तमाम क्षेत्रों में तैनात हमारे सैनिकों के पास जीवन की आवश्यक बुनियादी सुविधाओं का भी अभाव है. सर्दी में सीमाओं के कुछ खास स्थानों पर जब तापमान शून्य से कईर् डिगरी नीचे पहुंच जाता है तो भारतीय सैनिक आंतों व पेट के एक घातक रोग के चलते असहाय हो जाते हैं पर उन्हीं परिस्थितियों में घुसपैठिए व शत्रु के सैनिक आराम से अपना काम करते रहते हैं. इस लिहाज से देखा जाए तो अलगअलग परिस्थितियों के तहत हमारी सेनाओं, जमीनी तोपखाना, हवाई रक्षातंत्र, इंजीनियर, लौजिस्टिक्स, खुफिया तंत्र की स्थिति गंभीर रूप से चिंताजनक है. आंधीतूफान, अत्यंत खराब मौसम व घुप अंधेरे में काम करने वाले रडार, टोही और निगरानी करने वाले विमानों व ध्वनिमापक यंत्रों की कमी है.

सेना के पास इसराईल की तरह बेहद तेज, छोटी, विस्फोटकरोधी लेसर रडारयुक्त टोही व मारक विमान भी नहीं हैं, जिन से हमारे सैनिक दुश्मन से हर परिस्थिति में आमनेसामने टक्कर ले सकें. हमारे सैन्य अधिकारी इन सभी हालात व कमजोरियों से भलीभांति वाकिफ हैं पर भत्तों, सुविधाओं, पैंशन व सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले अति महत्त्वपूर्ण राजनीतिक सरकारी पदों का लालच सब पर भारी पड़ जाता है.

श्रीलंकाई सरकार जब लिट्टे समस्या से जूझ रही थी तो उस ने तमाम विशेष लड़ाइयों, खास कर गुरिल्ला युद्घ, का प्रशिक्षण लेने व संबंधित विशेष उपकरण खरीदने के लिए इसराईल की सेवाएं ली थीं. नतीजा सामने है. इसराईल को विशेषज्ञ होने के अलावा इस क्षेत्र को पूर्ण पेशेवर बनाने का भी श्रेय हासिल है.

विदेशी मुल्कों पर निर्भरता

चीन ने वैश्विक महाशक्तियों से अत्यंत महंगी युद्घ सामग्री खरीदने के बजाय अपने सस्ते स्वदेशी विकल्प पर ज्यादा जोर दिया है. इस ने साइबर क्षमताओं के अलावा सैटेलाइट आधारित युद्घक क्षमताओं का विकास किया है, जिस से प्रतिद्वंद्वी के मुख्य सिस्टम को जरूरत पड़ने पर नाकाम किया जा सके.

सोमालिया के जल दस्युओं की छोटीछोटी नौकाएं बड़ेबड़े, मजबूत व उच्च क्षमतायुक्त महंगे बेड़ों पर भारी पड़ जाती है. चीन ने इसी तर्ज पर छोटी, सस्ती व टिकाऊ नौकाओं का ऐसा बेड़ा तैयार कर लिया है जो प्रतिद्वंद्वी के मजबूत से मजबूत बेड़े में भी सेंध लगा सके. यह स्वदेशी व सक्रिय तकनीक अधिक प्रभावी और व्यावहारिक है क्योंकि हमेशा महंगे आयातित हथियार ही कामयाबी की गारंटी नहीं होते.

चीन का स्वदेशी रक्षा उत्पादन तंत्र, उस की सेना को जल्दी व अत्यंत सस्ते दाम पर हथियार व अन्य युद्घ सामग्री मुहैया कराता है. रूस के अलावा जरमनी व इसराईल के विशेषज्ञ वैज्ञानिक मोटीमोटी पगारों पर चीन के इस तंत्र से जुड़े हुए हैं. चीन ने पिछले 2 दशकों में रक्षा क्षेत्र में विदेशी खरीद बहुत कम की है. पर इस खरीद में भी उस की एक खास शर्त होती है. संबंधित उपकरण की समस्त तकनीक, गारंटी व अपने सैनिकों को उपकरण से संबंधित प्रशिक्षण निर्यातक देश को देना होता है. भारत में ऐसा कुछ भी नहीं है. कोई तंत्र या नीति न होने से सबकुछ विदेशी मुल्कों पर निर्भर है.

राफेल विमान के सौदे का विश्लेषण करें तो तकनीक व प्रशिक्षण से ले कर कलपुर्जे तक हर मामले में भारतीय वायुसेना को विदेशी वैंडर पर निर्भर रहना होगा जबकि ऐसा वैश्विक चलन में अब नहीं है. गोपनीयता व देश की सुरक्षा के नाम पर रक्षा क्षेत्र को तरक्की की हर किरण से महरूम रखना, अब बीते जमाने की बात हो गई है. खजाने का बोझ हलका करने व रक्षातंत्र को नए सिरे से स्थापित करने के लिए भारत को कड़ी मशक्कत करनी होगी. इस के लिए पड़ोसियों से शिक्षा ली जा सकती है जो आज हम से कई दशक आगे हैं.

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