अपने घर का सपना तो हर व्यक्ति की आंखों में होता है मगर आज के समय में घर बनाना आसान नहीं है. एक आम आदमी जीवन के 35-40 साल कठोर श्रम के बाद जो पैसा जोड़ता है उस में से रोजमर्रा की जरूरतों और बच्चों की पढ़ाई आदि का खर्च निकाल कर वह जो थोड़ीथोड़ी बचत करता है उस पूंजी से ही उम्र के 50वें या 60वें साल में जा कर कहीं अपना घर बना पाता है.

अनेक लोग जो 40 की उम्र के आसपास घर बनवाते हैं या खरीदते हैं, वे इस के लिए बैंक से लोन लेते हैं और फिर जीवनभर लोन चुकाते हैं. कभीकभी तो अपने घर का सपना पूरा करने में घर की गृहणी के सारे जेवर तक बिक जाते हैं. उस का सारा स्त्रीधन निकल जाता है. परन्तु अपने जीवनभर की कमाई बिल्डर को सौंपने के बाद भी यदि किसी को उस के सपने का घर न मिले, या तय समय में न मिल कर सालों के इंतजार के बाद मिले अथवा ऐसा घर मिले जिस की दीवारें कुछ ही समय में झड़ने लगे तो बेचारे की क्या दशा होगी? वह खुद को ठगा हुआ महसूस करेगा.

कई बार तो लोग ऐसी घटनाओं से इतने आहत हो जाते हैं कि खुदकुशी तक कर बैठते हैं. उपभोक्ता फोरम में ऐसे मामलों की फाइलों के ढेर लगे हुए हैं. अदालतों में अनेक बिल्डरों के खिलाफ मामले दर्ज हैं, मगर ऐसी घटनाएं जारी है.

जीवनभर की पूंजी लगा देने के बाद भी अपना घर न मिलने के ऐसे ही एक मामले में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक फैसला 8 मई को सुनाया है. दिल्ली हाईकोर्ट ने हरियाणा के गुरुग्राम में सरकारी रीयल एस्टेट कंपनी एनबीसीसी को एक फ्लैट खरीदार को 12% ब्याज के साथ 76 लाख रुपए से अधिक रकम लौटाने का आदेश दिया है. यही नहीं ग्राहक को मानसिक पीड़ा देने की एवज में 5 लाख रुपए अतिरिक्त देने का भी आदेश दिया गया है.

गौरतलब है कि रीयल एस्टेट कंपनी एनबीसीसी को सारा भुगतान करने के बाद भी 6 सालों से अपना फ्लैट मिलने का इंतजार करने वाले याचिकाकर्ता संजय रघुनाथ पिपलानी एक सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारी हैं. उन्होंने वर्ष 2012 में गुरुग्राम के लिए शुरू की गई परियोजना एनबीसीसी ग्रीन व्यू अपार्टमेंट में एक फ्लैट बुक कराया था, लेकिन 2017 में 76 लाख रुपए से अधिक की पूरी बिक्री कीमत का भुगतान करने के बावजूद उन्हें आज तक फ्लैट नहीं मिला.

न्यायमूर्ति सुब्रमण्यम प्रसाद ने एनबीसीसी को खरीदार (वादी) द्वारा भुगतान की गई पूरी रकम 30 जनवरी 2021 से आज तक 12 प्रतिशत ब्याज के साथ वापस करने का आदेश देते हुए कहा कि घर खरीदना किसी व्यक्ति या परिवार का अपने जीवन काल में किए गए सब से महत्वपूर्ण निवेशों में से एक है. इस में अकसर बरसों की बचत, सावधानीपूर्वक योजना और भावनात्मक निवेश शामिल होता है.

अदालत ने कंपनी को फटकार लगाते हुए कहा कि याचिकाकर्ता को पिछले 7 साल में घर बदलने पड़े और अत्यधिक मानसिक पीड़ा से गुजरना पड़ा है. वादी को 6 साल से अधिक की देरी और अनिश्चितता के कारण काफी परेशानी उठानी पड़ी. ऐसे में यह अदालत एनबीसीसी को याचिकाकर्ता को हर्जाने के रूप में 5 लाख रुपए का भुगतान करने का निर्देश देती है.

इस संबंध में याचिकाकर्ता ने बताया कि उस ने 2012 में गुड़गांव में एनबीसीसी द्वारा शुरू की गई एक परियोजना ‘एनबीसीसी ग्रीन व्यू अपार्टमेंट’ में एक फ्लैट बुक कराया था, लेकिन 2017 में 76,85,576 रुपए की पूरी बिक्री कीमत का भुगतान करने के बावजूद, फ्लैट उसे कभी नहीं सौंपा गया.

कोर्ट ने कहा कि “घर खरीदना किसी व्यक्ति या परिवार द्वारा अपने जीवनकाल में किए गए सब से महत्वपूर्ण निवेशों में से एक है. इस में अकसर वर्षों की बचत, सावधानीपूर्वक योजना और भावनात्मक निवेश शामिल होता है. जब ऐसे घरों के निर्माता अपना वादा पूरा करने में असफल हो जाते हैं, तो वे घर खरीदने वालों के भरोसे और वित्तीय सुरक्षा को चकनाचूर कर देते हैं और घर खरीदने वालों को ऐसी स्थिति में डाल देते हैं, जहां उन्हें अत्यधिक तनाव, चिंता, अनिश्चितता का सामना करना पड़ सकता है और अंततः सहारा लेने के लिए कानूनी रास्ते अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ता है.”

जज ने कहा, “अपने निवेश के भविष्य और उन के रहने की व्यवस्था की स्थिरता के बारे में अनिश्चितता के कारण अधर में रहने का भावनात्मक बोझ कम नहीं किया जा सकता है. गलत घर खरीदने वालों को मुआवजा देना न केवल पिछले अन्याय को सुधारने का मामला है, बल्कि भविष्य के कदाचार को रोकने का भी मामला है.”

एनबीसीसी को मुआवजा देने के लिए कहते समय, एचसी ने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा कि याचिकाकर्ता को पिछले 7 वर्षों में आवास बदलने और खुद की देखभाल करने के लिए मजबूर किया गया था.

अदालत ने कहा, “यह एक घर खरीदार द्वारा झेली गई अत्यधिक कठिनाई का एक क्लासिक मामला है, जिसे अपनी पूरी जिंदगी की बचत खर्च करने के बाद दरदर भटकना पड़ा. प्रतिवादी ने घर खरीदने वालों के साथ इस तरह का व्यवहार कर के बेहद अनुचित व्यवहार किया है.” .

गुरुग्राम में एनबीसीसी ने कई ऐसे प्रोजैक्ट बनाए हैं जो मानक पर खरे नहीं उतरे हैं. एनबीसीसी के अधिकारियों और बिल्डर्स के गठजोड़ के चलते भ्रष्टाचार का ऐसा खेल चल रहा है जिस में ग्राहक पिस रहा है. 2 साल पहले सैक्टर 37 डी स्थित एनबीसीसी की ग्रीन व्यू सोसायटी रहने के लिए असुरक्षित पाई गई. जबकि इस को बने कुछ ही समय बीता था. यहां फ्लैट्स की दीवारों से प्लास्टर गिरने लगा और कई फ्लैट की छतें दरक गईं.

ग्रीन व्यू सोसायटी के आरडब्ल्यूए के अध्यक्ष जी मोहंती कहते हैं कि उन्हें एनबीसीसी की बातों पर भरोसा नहीं है. 5 साल पहले जो फ्लैट ग्राहकों को दिए गए वह 5 साल में जर्जर हो गए. जब शुरू में इस की शिकायत एनबीसीसी के अधिकारियों से की गई थी तब विशेषज्ञों की रिपोर्ट को उन्होंने इस अंदाज में प्रस्तुत किया था कि इमारत सुरक्षित है और थोड़ी सी मरम्मत की जरूरत है. लेकिन जब एक फ्लैट की छत गिरी और दो महिलाओं की जानें गई तब एनबीसीसी ने इमारत को असुरक्षित बताते हुए रातोंरात खाली करने का आदेश जारी कर दिया. सब के लिए अचानक अपनी रिहाइश छोड़ कर कहीं और शिफ्ट हो जाना कितना मुश्किल था.

कई परिवार में बहुत बूढ़े लोग थे, वे रातोरात कहां चले जाते? लोगों ने कंपनी के खिलाफ धरने प्रदर्शन किए. आज भी उस सोसाइटी में कई लोग खतरे के बीच रह रहे हैं. फ्लैट बनाने के लिए इतनी घटिया सामग्री लगाई गई कि 5 साल में ही बिल्डिंग जर्जर हो गई. इन की इमारतों का लगातार क्षरण हो रहा है. लगातार प्लास्टर गिर रहा है. कंक्रीट धीरेधीरे टूट कर गिर रही है. सरिया बाहर निकल आए हैं. यह क्रम लगातार चल रहा है, मगर ग्राहक क्या करे, कहां जाए? सारी पूंजी तो फ्लैट खरीदने में लगा दी अब कहीं बाहर रहने पर किराए के लिए पैसा कहां से लाएं?

घर के सपने दिखा कर तमाम निर्माण कंपनियों ने हजारोंलाखों जरूरतमंद लोगों को अपने जाल में फंसा रखा है. प्राधिकरणों के डायरैक्टरों और अधिकारियों की मिलीभगत से कौड़ियों के भाव ली गई जमीनों पर इंजीनियरों और ठेकेदारों से घटिया कंस्ट्रक्शन करवा कर तमाम निर्माण कम्पनियां चाहे सरकारी हों या गैर सरकारी, करोड़ोंअरबों का वारा न्यारा कर रही हैं. इस भ्रष्टाचार में सरकारों और बैंकों की भूमिकाएं भी संदेह के घेरे में हैं. नुकसान उठा रहा है आम आदमी. लाखों लोग रेरा जैसे कानून के बावजूद एक अदद घर की आस में धक्के खा रहे हैं.

देश के कोनेकोने में ऐसे असंख्य भवन खड़े हो रहे हैं जो कंपनी डायरैक्टरों, अधिकारियों, राजनेताओं, बिल्डरों और ठेकेदारों के गठजोड़ के कारण घटिया सामग्री इस्तेमाल कर बनाए गए हैं. जब कोई हादसा होता है तो अधिकारी सारा ठीकरा ठेकेदार के सिर फोड़ कर खुद पाक साफ निकल जाते हैं. ठेकेदार गिरफ्तार होता है और कुछ समय में पैसा खिला कर उसे भी बचा लिया जाता है. चाहे मुंबई की आदर्श सोसाइटी का किस्सा हो या नोएडा के ट्विन टावरों के ध्वस्तीकरण का, अदालतें ने इन को गिराने के आदेश तो दिए मगर जब तक सब से ऊपर की कुर्सी पर बैठे व्यक्ति को कौलर पकड़ कर जेल नहीं भेजा जाएगा तब तक यह यह गंदा खेल रुकने वाला नहीं है.

अदालत द्वारा रीयल एस्टेट कंपनी एनबीसीसी के खिलाफ आदेश सुनाने और पीड़ित को पूरा पैसा वापस दिलाने भर से यह धोखाधड़ी और भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा जब तक एनबीसीसी के डायरैक्टर के. पी. महादेवास्वामी से जवाबदारी न मांगी जाए. जब तक उन को अदालत के कटघरे में न बुलाया जाए.

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