प्राइवेट कोचिंग देने वाली कंपनियां अपना बड़ा आकार ले रही हैं. कुछ तो इतनी बड़ी हो गई हैं कि उन्होंने दूसरे सैक्टर की कई कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया. कोचिंग सैंटर्स का व्यापार इस कदर फैल चुका है कि शिक्षा महंगी होती जा रही है और पेरैंट्स व छात्रों के सपने टूटते जा रहे हैं. कैसे, पेश है रिपोर्ट. पांच साल के अतुल्य की मां का सपना है कि वह अपने बेटे को डाक्टर बनाएगी, इसलिए स्कूल के अलावा उसे अभी से ट्यूशन लगा रखी है जहां उसे किताबों से भरे भारीभरकम बैग के साथ 2 घंटे ट्यूशन में बैठ कर पढ़ना पड़ता है, जबकि पहले से वह स्कूल में 5 घंटे पढ़ कर आ चुका होता है.

यह रोज की बात है, कोई एकदो दिन की नहीं. लेकिन स्कूल व ट्यूशन की पढ़ाई के बाद भी अतुल्य को मुश्किल से 30 तक ही गिनती आती है और इंग्लिश के अक्षरों को पढ़ते समय ‘क्यू’ पर अटक जाता है. यह स्कूल और ट्यूशन की भीषण पढ़ाई तब तक उस के साथ चलेगी जब तक कि वह 12वीं पास करने के बाद प्रीमैडिकल नैशनल एलिजिबिलिटी कम एंटरैंस टैस्ट नहीं दे देता. केवल अतुल्य ही अकेला ऐसा बच्चा नहीं है जो कम उम्र में ही स्कूल/ट्यूशन के बो?ा तले दबा जा रहा है, बल्कि आज मातापिता अपने 3-4 साल की बहुत छोटी उम्र के बच्चों को भी ट्यूशन पढ़ने को भेजते हैं.

बचपन से ही बच्चों के दिमाग में ट्यूशन वाला फार्मूला बैठा दिया जाता है कि अगर वह ट्यूशन नहीं जाएगा तो दूसरे बच्चों से पीछे रह जाएगा, फेल हो जाएगा. किसी अच्छे कालेज में उस का एडमिशन नहीं हो पाएगा और फिर वह बड़ा आदमी कैसे बनेगा? एक प्राइवेट कंपनी में मार्केटिंग का काम करने वाले शिवशंकर यादव कहते हैं कि वे अपने बेटे आयुष को कक्षा 3 से ही ट्यूशन क्लास भेज रहे हैं जिस से उस की पढ़ाई की नींव मजबूत रहे. आयुष इस कड़ाके की ठंड में भी अपनी ट्यूशन क्लास के लिए निकल जाता है और फिर उधर से ही स्कूल चला जाता है. आयुष के पापा का कहना है कि उन्होंने अपने बेटे का एडमिशन सीबीएसई बोर्ड के स्कूल में कराया है और 4 हजार रुपए प्रतिमाह स्कूल की फीस जमा करते हैं. 2 हजार रुपए कोचिंग के लिए अलग से देते हैं.

उन का सोचना है कि बेटा भविष्य में कुछ बेहतर कर पाए तो जीवन सुधर जाएगा. उन का कहना है कि स्कूल में इतने सारे बच्चे होते हैं कि टीचर सभी बच्चों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते. इसलिए कोचिंग बहुत जरूरी है, वरना बच्चा औरों से पीछे रह जाएगा. शिवशंकर का साढ़े 3 साल का और एक बेटा है और वे इस बात से चिंतित हैं कि अगले साल से उसे भी ट्यूशन में भेजना पड़ेगा और जिस का सीधा असर उन की आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा. आज मातापिता के दिमाग में यह बात स्क्रू की तरह फिट बैठ गई है कि अगर वे अपने बच्चों को किसी अच्छे कोचिंग या ट्यूशन में पढ़ने नहीं भेजेंगे तो उन का बच्चा दूसरे बच्चों से पीछे रह जाएगा. एक समय था जब किसी छात्र का स्कूल के अलावा ट्यूशन लगाना समाज में शर्म का विषय हुआ करता था क्योंकि ट्यूशन यानी आप का बच्चा पढ़ने में कमजोर है,

इसलिए ट्यूशन लगवानी पड़ी. लेकिन आजकल ट्यूशन, कोचिंग क्लासेस जाना ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है. इस में भी ब्रैंडेड कोचिंग इंस्टिट्यूट होना और भी ऊंचे रुतबे की बात है. हैरानी की बात यह है कि ब्रैंडेड कोचिंग में वही बच्चे पढ़ने जाते हैं जो पहले से ही नामचीन स्कूलों में पढ़ रहे हैं. बच्चों को ट्यूशन/कोचिंग पढ़ने भेजना कुछ मातापिता की मजबूरी हो सकती है क्योंकि उन्हें अपने बच्चों का होमवर्क कराने का समय नहीं मिलता होगा. लेकिन आज तो हरेक मातापिता अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे कोचिंग में भेजने की होड़ में लगे हैं. सिर्फ महानगरों में ही नहीं, गांवकसबे में भी भारी तादाद में कोचिंग सैंटर खुलते जा रहे हैं. ट्यूशन के बिना बच्चे खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करते हैं. उन्हें लगता है ट्यूशन की बैसाखी के बिना वे पास ही नहीं हो पाएंगे परीक्षा में.

इसी का फायदा कोचिंग सैंटर वाले उठाते हैं. कई टीचर्स तो इस शर्त पर ट्यूशन देते हैं कि बच्चे अगले शैक्षणिक सत्र में भी उन से ही ट्यूशन पढ़ेंगे. कोचिंग सैंटरों के नाम से बनी दुकानें एक तरह से छात्रों में भी असमानता के बीज ही बो रही हैं. अलग बस्ता, अलग ड्रैस, अलग टीशर्ट, अलग वैन आदि सब कोचिंग संस्थानों के नाम से छपी हुई होती हैं. कहना गलत नहीं होगा कि आज शिक्षा पूरी तरह से व्यवसाय बन चुकी है. शिक्षा का कारोबार एसोसिएटेड चैंबर्स औफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री औफ इंडिया (एसोचैम) के एक सर्वे के अनुसार, मैट्रो शहरों में प्राइमरी स्कूल के 87 फीसदी और हाईस्कूल के 95 फीसदी बच्चे निजी ट्यूशन लेते हैं. एसोचैम के अनुसार, भारत में निजी कोचिंग इंडस्ट्री हर साल 35 फीसदी की दर से बढ़ रही है. मध्यवर्गीय अपनी आय का एकतिहाई कोचिंग पर खर्च करता है ताकि उन के बच्चे प्रोफैशनल कोर्स में दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं निकाल सकें.

राजस्थान का कोटा शहर निजी कोचिंग का सब से बड़ा केंद्र है. प्राइवेट कोचिंग सैंटर या ट्यूशन की प्रवृत्ति एक या दो शहरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश में बहुत तेजी से फैल रही है. दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, चंडीगढ़, हैदराबाद, बेंगलुरु, तिरुअनंतपुरम, मुंबई आदि कई छोटेबड़े शहरों में आज कोचिंग सैंटरों की भरमार है. इसी साल 18 जनवरी को आई ‘एनजीओ प्रथम’ की शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 2022 में 1 से 8वीं तक की कक्षाओं में पढ़ने वाले सरकारी स्कूलों के लगभग 31 फीसदी, जबकि प्राइवेट स्कूलों के लगभग 30 फीसदी छात्र पैसे दे कर प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन जाते हैं.

दोनों को मिला कर देखें तो 30.5 फीसदी छात्र प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन जाते हैं. 2018 में यह आंकड़ा 26.4 फीसदी ही था. 2010 से 2022 के बीच पैसे दे कर प्राइवेट कोचिंग में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. 2010 में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के 22.5 फीसदी छात्र स्कूल के बाहर पैसे दे कर पढ़ाई कर रहे थे. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और ?ारखंड में निजी ट्यूशन लेने वाले बच्चों के अनुपात में 2018 की अपेक्षा 8 फीसद पौइंट या उस से अधिक की वृद्धि हुई है. पुणे की कंसल्टैंसी फर्म इनफिनियम ग्लोबल रिसर्च ने वर्ष 2022 में एक रिसर्च जारी की.

उन्होंने इंडिया स्पैंड को मेल पर बताया कि भारत के कोचिंग उद्योग का बाजार वर्ष 2021 में 58,088 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है और इस इंडस्ट्री का पूरा कारोबार 2028 तक 1,33,955 करोड़ रुपए तक पहुंचने का अनुमान है. इस दौरान इस का कंपाउंडेड एनुअल ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 13.03 फीसदी तक रह सकता है. इनफिनियम ने आगे बताया कि उस ने बड़े कोचिंग संचालकों से बात कर के और उन की सालाना रिपोर्ट, ट्रेड जर्नल, रिसर्च एजेंसी और सरकारी रिपोर्ट्स के आधार पर यह रिसर्च रिपोर्ट तैयार की है. वैसे तो केंद्र सरकार दावा करती है कि देशभर में छात्र शिक्षकों का अनुपात मानकों से बेहतर है.

सरकार के अनुसार 2020-21 में छात्र शिक्षक अनुपात प्रति शिक्षक 26 छात्र रहा पर उसी साल 6 दिसंबर 2021 लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय टीडीपी के सांसद जयदेव गल्ला ने देशभर में शिक्षकों का ब्यौरा मांगा, जिस पर सरकार ने 10 लाख शिक्षकों की कमी बताई. सरकार की मानें तो सब से ज्यादा कमी उत्तर प्रदेश में है जहां 2 लाख शिक्षकों की कमी है. कहीं न कहीं स्कूलों में खराब पढ़ाई का फायदा कोचिंग संस्थान उठा रहे हैं. आज अगर कुल कोचिंग मार्केट 58,000 करोड़ रुपए का है, जैसा कि ऊपर बताया गया है तो कुछ वर्षों में इस का आकार और बड़ा होगा. बिहार की राजधानी पटना के बोरिंग रोड चौराहे के पास 8×10 फुट के कमरे में रहने वाले 17 वर्षीय कुंदन कुमार ने अभी 10वीं ही पास की है और वह आईआईटी क्लीयर करने का सपना ले कर पूर्णिया जिले से पटना आ गया. उस का कहना है कि उस के गांव में बहुत से लोग सरकारी नौकरी में हैं,

इसलिए उन लोगों की तरह उस ने अभी से सरकारी नौकरी की तैयारी शुरू कर दी है और बिहार बोर्ड के सहारे तो कुछ हो ही नहीं सकता, इसलिए अभी से पटना आ गया. सिर्फ कुंदन कुमार ही क्यों, बल्कि विभिन्न जिलों से पटना में बड़ी संख्या में छात्र पढ़ाई करने आते हैं. सामान्य पढ़ाई के साथ ही बड़ी संख्या में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र पटना में रह कर अध्ययन करते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, पटना में लगभग 4,000 से अधिक कोचिंग सैंटर हैं लेकिन उन में से महज 400 ही सरकारी बहीखाते में रजिस्टर्ड हैं. पहलीदूसरी क्लास से ही बच्चों को ट्यूशन की लत लगा दी जाती है और यहीं से कोचिंग संस्थानों का व्यापार का विस्तार शुरू हो जाता है.

8वीं के बाद बच्चे अलगअलग विषयों के ट्यूशन लेने लगते हैं और हर विषय की अलग फीस देनी पड़ती है. इस तरह आप कमाई का कुल 12 प्रतिशत हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर देते हैं लेकिन इस के बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि आप का बच्चा परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होगा ही. हां, इस की गारंटी जरूर है कि कोचिंग संस्थानों को दिन दूना रात चौगुना मुनाफा जरूर होगा. सरकार ने कई इंग्लिश मीडियम स्कूल खोल दिए हैं लेकिन इस बात की गारंटी लेने वाला कोई भी नहीं है कि इंग्लिश मीडियम स्कूल में अच्छे स्तर की शिक्षा दी भी जाती है या नहीं. अकसर मातापिता अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में डालते हैं ताकि वे अच्छी इंग्लिश बोल सकें और उन का कैरियर इस लैंग्वेज की वजह से ठप न हो जाए. लेकिन इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने के बावजूद 50 फीसदी बच्चे इंग्लिश में कमजोर रह जाते हैं. ऐसे बच्चे न तो ठीक से हिंदी में पारंगत हो पाते हैं, न ही इंग्लिश में. कैसे समझें कि बच्चा टैंशन में है कोटा से कोचिंग कर के वापस आए करीब 200 बच्चों का इलाज कर चुके डा. संजय चुग का कहना है कि उन में भारी स्ट्रैस की समस्या देखने को मिली.

जब भी बच्चों में इन लक्षणों को देखें, मातापिता सतर्क हो जाएं- द्य नींद और भूख कम लगना. द्य बच्चे का गुमसुम रहना. द्य स्वभाव में भारी बदलाव, जैसे खोया हुआ रहना, चिड़चिड़ा हो जाना आदि. ऐसे किसी लक्षण को देखते ही सम?ा जाना चाहिए कि बच्चे को मदद की जरूरत है. यह तथ्य है कि कोचिंग का हब बन चुके कोटा में हर वर्ष देशभर से लाखों बच्चे इंजीनियरिंग और मैडिकल परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं. सभी का सपना आईआईटी और मैडिकल संस्थानों में एडमिशन पाना होता है. इस के लिए उन के मातापिता कोचिंग संस्थानों को भारी रकम चुकाते हैं और संस्थानों द्वारा छात्रों को सौ फीसदी सफलता की गारंटी भी दी जाती है. लेकिन सचाई यह है कि ये संस्थान छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा देने के बजाय उन के सपनों से खेलते हैं. वहां छात्रों का शैड्यूल इतना बो?िल होता है कि वे ठीक से सो भी नहीं पाते हैं. हर छात्र को तकरीबन हर दिन 6 घंटे कोचिंग क्लास में बिताने पड़ते हैं. इस के अलावा, 10 घंटे स्वयं अध्ययन करना पड़ता है. ऐसे में वे अवसादग्रस्त न हों तो क्या करें.

मातापिता भी कम दोषी नहीं कोचिंग संस्थानों पर एक नजर डालें तो आज ये शिक्षा का कम, कारोबार के केंद्र ज्यादा नजर आते हैं. आज की तारीख में कोटा में पसरे संस्थानों का कारोबार डेढ़ हजार करोड़ रुपए से अधिक का है. कोटा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तकरीबन डेढ़ करोड़ से अधिक छात्र जुड़े हुए हैं और एक छात्र की सालाना औसत कोचिंग फीस करीब एक से 2 लाख रुपए होती है. बाकी अन्य खर्चे अलग से जोड़ लीजिए तो एक छात्र को तकरीबन ढाई लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं. वहां छात्रों का सिर्फ मानसिक और आर्थिक शोषण ही नहीं होता, बल्कि उन की सेहत के साथ भी खिलवाड़ होता है.

छात्रावास में उन्हें अपौष्टिक खाना परोसा जाता है, जबकि इस के लिए वे मनमाना पैसा वसूलते हैं, फिर भी उन्हें मनमुताबिक खाना नहीं मिल पाता है. जिले के खाद्य सुरक्षा सेल द्वारा जब भी मान्यताप्राप्त भोजनालय और फूड सैंटर पर खाने की क्वालिटी को परखा जाता है तो उस में कमियां पाई जाती हैं. वहां छात्रों के अनुपात में संसाधनों की भी भारी कमी है. कक्षाओं में इतनी भीड़ होती है कि पढ़ने के लिए छात्रों को जगह नहीं मिल पाती है. सब से खतरनाक बात यह है कि कोचिंग केंद्रों में छात्रों को विषयों को ठीक से पढ़ाने के बजाय शौर्टकट सफलता हासिल करने के मंत्र दिए जाते हैं.

कहना गलत नहीं होगा कि छात्रों को रट्टू तोता बनाया जा रहा है. आज उसी का परिणाम है कि मुट्ठीभर छात्रों के हाथ सफलता हाथ लगती है. असफलता से घबराए छात्र मौत को गले लगा लेते हैं. लेकिन इस के लिए सिर्फ कोचिंग संस्थानों को ही गलत नहीं ठहरा सकते, बल्कि बच्चे के मातापिता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं इस बात के लिए. वे अपने बच्चों की मानसिक क्षमता को जांचेपरखे बिना उन्हें इंजीनियर/डाक्टर बनाने पर तुले रहते हैं. बच्चों पर प्रैशर डालते हैं कि वे उन का सपना पूरा करें.

कोटा के मनोचिकित्सक डा. एमेल अग्रवाल के अनुसार, इन कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चे अन्य बच्चों के मुकाबले 25 फीसदी ज्यादा अवसाद के शिकार होते हैं. इस के कई कारण हैं- डर, मातापिता से दूर रहने की वजह से तनाव, अवसाद, परेशानियां, पढ़ाई का शैड्यूल इतना बिजी कि घर न जा पाना और कुछ हद तक पारिवारिक पृष्ठभूमि भी. कोटा के कैरियर पौइंट के निदेशक ओम माहेश्वरी के मुताबिक, आर्थिक मंदी का कोटा पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि यहां मकान किराए पर चढ़ रहे हैं, निर्माण चल रहा है, दुकानों पर भीड़ है, धोबी, नाई, बावर्ची, रिकशा, औटो सभी के पास काम है. उन के मुताबिक, शहर की खुशहाली की वजह कोचिंग के लिए बाहर से आने वाले लाखों छात्र हैं.

कोचिंग के पैसे से रियल एस्टेट और छात्रावास निर्माण का कारोबार चरम पर पहुंच चुका है क्योंकि जब इतने बड़े पैमाने पर वहां छात्र कोचिंग कर रहे हैं तो उन के रहने के लिए आवास तो चाहिए न. बात सिर्फ कोटा की नहीं है, भारतीय कोचिंग इंडस्ट्री इतने मुनाफे की इंडस्ट्री बनती जा रही है कि अब तो इस में विदेशी निवेश तक होने लगा है. शिक्षा में सौदा शिक्षा क्षेत्र की सब से बड़ी औनलाइन कंपनी बायजूस और आकाश एजुकेशन इंस्टिट्यूट के बीच एक बहुत बड़ी डील हुई, जिस के तहत बायजूस ने आकाश इंस्टिट्यूट को एक अरब डौलर यानी साढ़े 7 हजार करोड़ रुपए में खरीद लिया. यह कीमत ईकौमर्स की ‘नायका’ और ‘लेंस्कार्ट’ जैसी कंपनियों की कुल नैटवर्थ से भी ज्यादा है. जिस देश में 15 लाख सरकारी स्कूल हैं, एक हजार यूनिवर्सिटी हैं और 33 हजार से ज्यादा प्ले स्कूल हैं, वहां प्राइवेट कोचिंग देने वाली कंपनी इतनी बड़ी हो गई कि उस ने दूसरी कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया.

कतर एयरवेज, किआ और बायजूस, इन तीनों कंपनियों के बीच क्या आम है? क्योंकि ये तीनों कंपनियां फीफा 2022 विश्व कप की प्रायोजक थीं. बायजूस पहली कंपनी है जो इतने बड़े खेल का आयोजन का आधिकारिक प्रायोजक थी. बायजूस एप्पल और फेसबुक जैसी सार्वजनिक कंपनी बनने वाली थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बायजूस कंपनी फेल क्यों होने लगी? देश की आईटी कंपनी में से एक बायजूस में लगातार लोगों की नौकरियां जा रही हैं. आज देश में महंगाई चरम पर है और ऐसे समय में जौब चले जाना चिंता का विषय है. कंपनी ने अब तक सैकड़ों लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया तो बाकी कई सौ लोगों को जल्द ही अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. आखिर इस की वजह क्या है? वजह जो भी हो पर फिलहाल बायजूस चर्चा का विषय बनी हुई है. कभी फंडिंग में दिक्कत होने की खबरें सामने आ रही हैं तो कभी बड़ी संख्या में कर्मचारियों से रिजाइन मांगने की.

हाल ही में खबर आई कि कंपनी ने केरल में स्थित एक कार्यालय को बंद कर दिया और कर्मचारियों से रिजाइन करने के लिए कहा. रिपोर्ट्स के अनुसार, बड़ी संख्या में कर्मचारियों को निकालने के पीछे बड़ी वजह कंपनी में होने वाला घाटा है. एक रिपोर्ट के अनुसार कंपनी को साल 2021 में 4,588 करोड़ रुपए का नुकसान ?ोलना पड़ा. पेरैंट्स को मिल रही धमकी एडटेक कंपनी बायजूस पर बड़ा आरोप लगा है कि वह बच्चों और उन के पेरैंट्स के फोन नंबर खरीद रही है और उन्हें धमकी दे रही है कि अगर उन्होंने कोर्स नहीं खरीदा तो उन का भविष्य बरबाद हो जाएगा.

बायजूस कोर्स को बेचने के लिए सेल्स एक्जीक्यूटिव्स पर भी काफी दबाव बनाया जाता है. दबाव इतना ज्यादा होता था कि कई बार सेल्स एक्जीक्यूटिव्स अपने प्रबंधकों को यह दिखाने के लिए अपनी बिक्री के आंकड़े नकली कर के दिखाते हैं कि उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है. कई बार अपनी नौकरी बचाने के लिए सभी टीमों को अपनीअपनी जेब से भुगतान करना पड़ता था ताकि उन की नौकरी बची रहे. इन फर्जी बिक्री का उल्लेख बायजूस के वित्तीय विवरणों में भी किया गया था. यही वजह है कि बायजूस के रैवेन्यू में एक साल में 60 फीसदी की गिरावट आई.

भारत में जिस तरह से कोचिंग संस्थान बढ़ रहे हैं और उन में लाखों की संख्या में छात्र रजिस्टर हो रहे हैं यह दिखाता है कि भारत में पेरैंट्स बच्चों के कैरियर को ले कर ज्यादा सजग हो गए हैं. अब इस के दूसरे हिस्से को देखा जाए तो पता चलेगा कि वे ऐसे भंवर में फंस गए हैं. जहां अगर वे अपने बच्चों को महंगी और बाकियों से अच्छी शिक्षा नहीं देंगे तो रेस में पिछड़ जाएंगे. यह समझते हुए भी कि महंगी पढ़ाई पढ़ाने के बाद भी बच्चों का कैरियर शर्तिया नहीं कि बन ही जाए, क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि 2016-17 में सरकारी और निजी इंजीनियरिंग कालेजों से डिग्री ले कर निकलने वाले छात्रों में सिर्फ 46 प्रतिशत ही नौकरी पा सके. इन में से कई छात्रों के पेरैंट्स थे जिन्होंने बच्चों की पढ़ाई के लिए बैंकों से भारी कर्जा लिया.

2017 के एक आंकड़े के मुताबिक देशभर में एजुकेशन लोन की 6,356 करोड़ रुपए की रकम 3,45,340 बट्टा खातों में यानी एनपीए में जा चुकी हैं. इस रेस में जीतने के लिए भले उन्हें अपने बच्चों को प्राइमरी लैवल से ही क्यों न तैयार करना पड़े, भारी लोन व कर्जा न उठाने पड़े, वे हर नामुमकिन कोशिश से गुजर जाने को तैयार हैं क्योंकि यही हकीकत है कि आजकल मांबाप अपने बच्चों से ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो चुके हैं. वे महंगी शिक्षा झेलने को तैयार हो चुके हैं.

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