आएदिन हत्याओं की खबरें, हिंसा, आगजनी की वारदातें समाज की संवेदनहीन प्रवृत्ति की ओर इशारा करती हैं. समाज में संवेदना या यों कहें मानवता मर रही है. सरेआम चाकू, छुरी व पिस्टल चला कर न केवल हत्याएं हो रही हैं, बल्कि अपने घिनौने कृत्य का वीडियो बना कर वायरल भी किया जा रहा है.
अकसर देखा गया है कि सड़क हादसे में अगर कोई घायल अवस्था में है, तो लोग या तो मुंह फेर कर चले जाते हैं या भीड़ लगा लेते हैं. मदद करने की भावना जैसे खत्म हो गई हो. अकसर बसों में देखा गया है कि कुछ बदतमीज लोग महिलाओं के साथ बदसुलूकी करते हैं, लेकिन उस समय दूसरे लोग आंख मूंद कर चुप रहते हैं.
व्यक्ति खुद पर आई मुसीबत के लिए दूसरों की मदद की अपेक्षा करता है, वहीं दूसरों को परेशान देख कर खुद कोई प्रतिक्रिया नहीं देता. ठंड में बहुत से लोग दम तोड़ देते हैं, कहीं भूख से तड़पते लोग दिखाई देते हैं. ऐसे लोगों की मदद के लिए भी समाज में मदद करने की भावना खत्म होती जा रही है.
अब न तो रिश्तों का लिहाज है, न ही समाज व परिवार का भय. आएदिन दुष्कर्म की घटनाएं सुननेपढ़ने को मिलती हैं. मासूम बच्चियों को भी हवस का शिकार बना कर मार दिया जाता है. तमाम रिश्ते शर्मसार हो रहे हैं. भाई ही भाई की हत्या कर रहा है. बेटा अपने बाप को मारने पर तुला है. मांबाप को घर से निकाल दिया जाता है.
अस्पताल जाओ, तो चिकित्सक सीधे मुंह बात नहीं करते. अमीर लोग अपनी शानोशौकत में खोए हैं. व्यक्ति की सारी संवेदना बस अपने तक ही सिमट कर रह गई है.
जैसेजैसे समाज का शहरीकरण हो रहा है, वैसेवैसे लोग संवेदनहीन और विवेक शून्य होते जा रहे हैं. कहीं यह सामाजिक दायित्वबोध और मानवता तो समाप्त होने के संकेत तो नहीं हैं? अगर ऐसा नहीं है, तो फिर सड़क या फिर रेलवे लाइन पर दुर्घटना के शिकार व्यक्ति की मदद के लिए हाथ आगे क्यों नहीं बढ़ते?
बीते दिनों जयपुर के गांधीनगर रेलवे स्टेशन पर रेलवे लाइन को पार करते समय राजस्थान विश्वविद्यालय के एक प्रोफैसर गिर पड़े और उन का पांव ट्रेन की चपेट में आ गया. उस वक्त रेलवे स्टेशन के निकट सैकड़ों लोग मौजूद थे, लेकिन किसी ने उन की मदद की जहमत नहीं उठाई. वह बेचारे लहूलुहान जख्मी हालत में कराहते रहे, पर एक भी हाथ मदद के लिए आगे नहीं बढ़ा.
बाद में राजस्थान विश्वविद्यालय के ही एक कर्मचारी की नजर उन पर पड़ी, तो उस ने विश्वविद्यालय के अधिकारियों को सूचित किया. उन्होंने तत्काल छात्रों के साथ मौके पर पहुंच कर जख्मी प्रोफैसर को अस्पताल पहुंचाया.
यह घटना दोपहर की है. यदि रात होती तो शायद वह वहीं तड़पतड़प कर मरने को मजबूर होते. यह जयपुर या फिर शहरी क्षेत्रों में होने वाली न तो पहली और न ही आखिरी घटना है. आएदिन ऐसी घटनाएं होती रहती हैं. लोग रेलवे लाइन या सड़क किनारे तड़पते रहते हैं, आनेजाने वाले लोग एक नजर देखते हैं और मुंह मोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं.
आखिर हम ऐसे क्यों होते जा रहे हैं? मानवता और इनसानियत के नाते भी मदद को आगे क्यों नहीं आते? कुछ दिन पहले जयपुर के एक मैडिकल कालेज अस्पताल के गेट पर एक महिला दर्द से कराहती रही और आखिर में उस ने दम तोड़ दिया. परंतु, किसी ने भी उस की मदद नहीं की.
आजकल हर किसी को जल्दी रहती है, खासकर शहर में रहने वाले लोगों को. किसी को दफ्तर पहुंचने की जल्दी है, तो किसी को अपनेअपने कार्य व कर्मस्थल पर पहुंचने की. ऐसे में हम भूल जाते हैं कि सिर्फ अपना व अपने घरपरिवार के अलावा भी एक दायित्व और है इनसानियत का.
लोग समझते हैं कि यदि किसी जख्मी व्यक्ति की मदद करेंगे तो बेकार में पुलिस, कोर्टकचहरी के चक्कर में फंस जाएंगे. इस से अच्छा है कि आगे बढ़ चलें. परंतु, उन के जेहन में कभी यह बात नहीं आती कि अगर कभी उन के साथ ऐसा हुआ और यों ही लोग उन्हें देख कर आगे बढ़ जाएंगे तो उन पर क्या बीतेगी?
बीती 4 जनवरी को दिल्ली पुलिस के एक एएसआई शंभूदयाल मायापुरी इलाके में मोबाइल छीनने वाले एक आरोपी को पकड़ कर ले जा रहे थे, तभी आरोपी ने उन पर चाकू से ताबड़तोड़ हमले कर दिए. आरोपी का नाम अनीश बताया जा रहा है.
शंभूदयाल पर हमला करने के बाद आरोपी पास के एक कारखाने में छिप गया और वहां भी उस ने एक मजदूर को चाकू की नोंक पर बंधक बना लिया. दिल्ली पुलिस ने किसी तरह उस मजदूर को छुड़ाया और अनीश को गिरफ्तार किया.
इस घटना में घायल एएसआई शंभूदयाल की इलाज के दौरान मौत हो गई. अब दिल्ली सरकार ने उन्हें शहीद बताते हुए उन के परिवार को एक करोड़ रुपए की राशि देने की घोषणा की है.
चूंकि आरोपी का नाम अनीश है, तो समाज में आग लगाने के लिए तैयार बैठे लोगों ने फौरन ही इस मामले को सांप्रदायिक रंग देने की कोशिश की. आरोपी का नाम मोहम्मद अनीस बताते हुए इस पर फिर हिंदूमुस्लिम विवाद खड़ा करने की कोशिश सोशल मीडिया के जरीए शुरू हो गई.
हालांकि यहां दिल्ली पुलिस ने फौरन बात संभालते हुए ट्वीट कर साफ किया कि शंभूदयाल की हत्या करने वाले आरोपी का नाम अनीश राज, पुत्र प्रह्लाद राज है. यह एक अपराधी है. दिल्ली पुलिस ने ट्वीट में यह भी लिखा कि मामला सांप्रदायिक नहीं है. सोशल मीडिया में कुछ हैंडल्स द्वारा गलत व भ्रामक जानकारी दी जा रही है.
सोशल मीडिया नफरत फैलाने का सब से सस्ता, सुलभ साधन बन चुका है, इस में कोई दोराय नहीं है. लेकिन समाज में नफरत परोसने वालों को यह जरूर देख लेना चाहिए कि वे कैसे अपने लिए ही गड्ढा खोद रहे हैं. हो सकता है कि नफरत के जरीए सियासत में फायदा हो. धर्म की रक्षा के नाम पर सत्ता हासिल हो जाए. लेकिन इस में समाज के तानेबाने को कितना नुकसान पहुंच चुका है, शंभूदयाल की मौत उस का जीताजागता उदाहरण है.
आरोपी ने उन पर चाकू से हमला किसी अंधेरी, सुनसान जगह पर नहीं किया, बल्कि कैमरे में कैद हुआ है कि आरोपी बीच बाजार में उन पर चाकू मार रहा है. आसपास लोग खड़े हैं, जिन में से कुछ उसे रोकने के लिए आगे बढ़ते हैं, तो आरोपी उन सब को भी चाकू से डरा देता है.
अगर आरोपी के पास बंदूक होती, तब लोगों का डरना स्वाभाविक था, क्योंकि उस में दूर से किसी को भी मारा जा सकता है, लेकिन चाकू लिए आदमी को अगर सारे लोग हिम्मत जुटा कर घेरते और किसी तरह उसे रोकते तो शायद शंभूदयाल आज जीवित होते.
एक चाकू से बहुत सारे लोगों का डर कर पीछे हट जाना, इस बात का उदाहरण है कि अब हमारे समाज से हिम्मत को तोड़ने में नफरत कामयाब रही है. मुमकिन है कि अपने सामने एक आदमी की चाकू से हत्या के बाद बहुत सारे लोग घर जा कर आराम से खापी कर सो भी गए होंगे या फिर इस घटना को किसी फिल्मी कहानी की तरह बता रहे होंगे कि हमारे सामने ऐसा हुआ.
समाज इतना संवेदनहीन एक दिन में नहीं बना है. इसे बाकायदा नफरत की घुट्टी पिलापिला कर स्वार्थी और संवेदनहीन बनाया गया है. ऐसे समाज निर्माण की जिम्मेदारी सरकार पर भी है, जो दिवास्वप्नों में उलझा कर, नए भारत के निर्माण का दावा कर पुरानी सभी अच्छी चीजों को खत्म करने की अघोषित मुहिम में लगी हुई है.
एक पुलिसकर्मी अपना काम करते हुए मारा जाता है और इस स्थिति पर चिंतामग्न होने की जगह अनीस बनाम अनीश का विवाद खड़ा करने की कोशिश होती है.
ऐसा ही पिछले दिनों श्रद्धा और आफताब मामले में हुआ. जिस में एक लड़की प्यार में न केवल धोखे का शिकार हुई, बल्कि क्रूरता से मारी गई. उस पर भी हिंदूमुसलमान का खेल शुरू हो गया. सरकारों को इस बात की चिंता होने लगी कि लव जिहाद बढ़ रहा है. अंतर्धार्मिक विवाहों पर सरकारी नजर रखने की तैयारियां शुरू हो गईं. लेकिन इस सवाल पर गौर नहीं फरमाया गया कि आखिर श्रद्धा इतनी अकेली क्यों पड़ी कि अपने प्रेमी के साथ असहज होने के बावजूद उस से अलग नहीं हो पाई?
इस साल की शुरुआत में एक और हैवानियत भरा मामला दिल्ली में ही सामने आया, जिस में एक लड़की 12 किलोमीटर तक कार के पहियों के नीचे कुचलतीघिसटती रही. उस लड़की की जान तो चली गई, लेकिन उस का चरित्र हनन किए बिना समाज को चैन कैसे पड़ता.
वह लड़की नशा करती थी या नशे के व्यापार में थी? उस का अपने पुरुष मित्र से झगड़ा हुआ या वह इतनी रात तक अकेले बाहर क्यों थी? इन सारे सवालों पर चर्चा होने लगी. जबकि सवाल यह होना चाहिए था कि उस लड़की को किन वजहों से देर रात तक घर से बाहर काम पर रहना पड़ता था? अगर वह रात को काम करती है और देर से घर लौटती है, तब भी राजधानी की सड़कें इतनी सुरक्षित क्यों नहीं हैं कि किसी को, किसी भी वक्त, कोई डर या परेशानी न हो?
अगर उस लड़की ने नशे की हालत में वाहन चलाया, तो फिर वे लड़के क्या होश में थे, जो पहियों के नीचे दबे शरीर को नहीं देख पाए? इस तरह के सवालों के जवाब ढूंढ़ने में समाज के लिए असहज स्थिति बन जाती, इसलिए बेहतर है लड़की का ही चरित्र हनन कर दें.
जरूरी है कि हम खुद को बदलें. सामाजिक मूल्यों को समझें और समाज से संवेदनहीनता को दूर करने के लिए आगे बढ़ें. क्योंकि, एक के ही चलने से कारवां बनता है, नहीं तो इनसानियत कलंकित होती रहेगी.