कुछ अच्छा हुआ तो भगवान, कुछ बुरा हुआ तो भगवान. कुछ हुआ तो भगवान, कुछ नहीं हुआ तो भगवान. आखिर भगवान हर मसले के बीच में कैसे घुस गया? हर सवाल का जवाब भगवान कैसे बन गया? भगवान सच है या मुफ्तखोरों की बनाई कोरी कल्पना है? क्या भगवान पर हमारा विश्वास करना सही है? यह सब जानने व सम?ाने के लिए पढ़ें यह लेख.

हे भगवान, जरा बताओ तो कि भगवान है या नहीं? यह सवाल सदियों से पूछा जा रहा है और आज ज्यादा महत्त्वपूर्ण है क्योंकि कितने ही देशों की सरकारें सच में इस काल्पनिक भगवान के भरोसे हैं. भगवान को बेचने वाले धर्म के दुकानदारों ने सैकड़ों सालों से एक विशाल स्ट्रकचर खड़ा किया है और लोगों को उस काल्पनिक भगवान के पास लाने के लिए मंदिर, मसजिद, चर्च, मोनैस्ट्री, गुरुद्वारों से ले कर पिरामिड और मकबरे तक बनवाए हैं.

आज विश्व में फैले तनाव के पीछे भगवान का अस्तित्व ज्यादा है, दूसरों की जमीन या फर्म हड़पने की हरकतें कम. धर्मों के दुकानदार भगवान को विश्व रचयिता घोषित कर के सारी जनता को अपने कहे अनुसार चलने को मजबूर कर रहे हैं.

ज्ञान और श्रद्धा एक समस्या के दो उत्तर हैं. जब हम अपने प्रश्नों के समाधान में कोई तार्किक व तथ्यों पर आधारित उत्तर प्राप्त करते हैं तो उसे ज्ञान कहते हैं. इस के विपरीत अगर कोई बिना प्रश्न पूछे किसी काम को अपने सवालों का उत्तर मान ले तो उसे श्रद्धा कहते हैं.

जहां विश्वास यानी फेथ या बिलीव आ जाता है, वहां विचार नहीं होता. ज्ञान होता है खुद का देखा, परखा, सत्य का प्रकाश. श्रद्धा होती है एक अंधे द्वारा रोशनी का विवरण. जो समाज ऐसे अंधों द्वारा दी गई प्रकाश की परिभाषा पर चल रहा हो उसे यह एहसास दिलाना आवश्यक है कि वह खुद ही अपनी आंखें खोल कर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त कर सकता है.

आज हम भारतीय जहां राममंदिर, शंकराचार्य, हिंदुत्व, मांस, लव जिहाद एवं धर्म परिवर्तन जैसे गलत कारणों से चर्चा में हैं. वहां इस मूलभूत प्रश्न का पूछा जाना आवश्यक है कि क्या वास्तव में वह भगवान है जिस के नाम पर श्रद्धा का व्यापार चलाया जा रहा है? इस सवाल के उत्तर में ज्ञान के प्रकाश की किरण को सम?ाने के लिए हमें श्रद्धा और मान्यता की कई बड़ी चट्टानों को तोड़ना होगा, जो हमें दबाए रखती हैं. हम ने बिना जाने, पता नहीं क्याक्या मान रखा है और उस के आधार पर खुद तो चलते हैं, दूसरों को चलने को मजबूर भी करते हैं. यह वैसा ही है जैसे रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने मान लिया कि यूक्रेन पर कब्जे के बिना रूस अधूरा है. सो, लाखों की जान आज खतरे में है.

संसार के प्रत्येक धर्म ने किसी न किसी प्राचीन ग्रंथ, वेद, बाइबिल, कुरान इत्यादि को अपना आधार बना रखा है. मगर जिस हजारोंलाखों वर्ष प्राचीनकाल की ये ग्रंथ दुहाई देते हैं, उस काल में मानव सभ्यता अपने विकास के शुरुआती दौर में थी. सो, यह कैसे संभव है कि उस काल का मानसिक रूप से अर्धविकसित बच्चा आज के मानसिक रूप से विकसित एवं परिपक्व वयस्क से अधिक जानता था? इन सभी पुरातन शास्त्रों से प्राप्त अधिकतर धारणाएं समय की कसौटी पर असत्य सिद्ध हो चुकी हैं और यह थोड़े समय की ही बात है जब भगवान की अवधारणा भी ध्वस्त हो जाएगी.

भगवान की मान्यता जबरदस्त प्रचार पर टिकी है क्योंकि इस से धर्म के लिए आय होती है. यह कैसे संभव है कि तीनों लोकों में विचरने वाले हमारे देवता समान पूर्वजों को पृथ्वी शेषनाग के फन पर स्थित मिली? या फिर कैसे उन्हें पृथ्वी का आकार एक तश्तरी के समान नजर आया? यह कैसे संभव हुआ कि जिन ऋषिमुनियों को संपूर्ण ब्रह्मांड नजर आता था उन्हें हमारे शरीर के विभिन्न भीतरी अवयवों की उपस्थिति एवं कार्यप्रणाली के बारे में नगण्य जानकारी थी?

हमारे शास्त्रों में जहां ब्रह्मांड के स्वरूप एवं विस्तार का सीमित ज्ञान उपलब्ध है, वहां हैरानी की बात यह है कि आत्मा-परमात्मा का सर्वज्ञान इन में निहित है. जहां ब्रह्मा, विष्णु, महेश का सारा समय ‘एक पृथ्वी’ के निवासियों के प्रबंधन में कट जाता है. वे इस असीम ब्रह्मांड के अन्य ग्रहों व उस के प्राणियों के लिए कैसे समय निकाल पाते हैं?

हमारे पुरातन शास्त्रों में न तो डायनासौर का कहीं जिक्र है, न ही व्हेल मछली का. नारद मुनि, जो तीनों लोकों में भ्रमण करते थे, को अगर ये प्राणी नहीं मिल पाए तो निश्चित ही यह प्रश्न उठता है कि उन्हें सिर्फ बंदर, हाथी और गरुड़ ही क्यों मिले? समुद्र मंथन में दुर्लभ अमृत मिल गया, मगर व्हेल, जो करोड़ों वर्षों से समुद्र में तैर रही है, नहीं मिली? उन्होंने हमें ब्रह्मांड की सीमाएं नहीं बताईं और न ही यह बताया कि हमारी आकाशगंगा में कितने और सूर्य हैं या कुल कितनी आकाश गंगाएं तीनों लोकों में व्याप्त हैं?

इन सवालों का सीधा अर्थ यह है कि हमें शास्त्रों में सत्य ढूंढ़ने के बजाय प्रकृति के विशाल पट्ट पर अंकित एवं लिखित जीवाष्मों एवं ऊर्जा तरंगों का अध्ययन करना चाहिए. हम शास्त्रों को अंतिम सत्य मान कर विश्व को भगवान का मायाजाल मान संतुष्ट हो रहे हैं जबकि वैज्ञानिकों ने भूगर्भ से, महासागरों की गहराइयों से एवं अंतरिक्ष के अनंत विस्तार से ज्ञान का भंडार खोजा है.

हमारी पुरातन मान्यताएं एक बहुत सुंदर प्रारंभ हो सकती हैं, अंत नहीं. निष्कर्ष यह निकलता है कि हमें मंत्रोच्चार एवं प्रार्थनाओं में अपना समय व्यय करने के बजाय मंदिरों को ऐसी प्रयोगशालाओं में बदल देना चाहिए जहां प्रकृति के इतिहास के हर पृष्ठ को पढ़ने की भाषा सिखाई जाए. हर मसजिद में जीवन विज्ञान के रहस्यों की खोज की जाए और हर गिरिजाघर में लोग अपना समय प्रार्थना करने के बजाय जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान अथवा यांत्रिक विज्ञान के विकास में लगाएं.

अमेरिका में आज भी ‘सृष्टि का निर्माण केवल, बाइबिल के अनुसार,

7 दिनों में हुआ’ का पाठ बच्चों को पढ़ाने की वकालत भी जम कर की जा रही है. वहीं, हमारे यहां योग को सारे रोगों का उपाय बताया जा रहा है.

दूसरी मान्यता – भगवान की परिकल्पना सार्वभौमिक एवं सर्वव्याप्त है

आज से कुछ सौ वर्षों पूर्व तक संपूर्ण पृथ्वी की भिन्नभिन्न सभ्यताएं यह मानती थीं कि पृथ्वी स्थिर है एवं सूर्य उस की परिक्रमा कर रहा है. इस विश्वास को सारी दुनिया मानती थी. अब इस बारे में कोई धर्म कुछ नहीं बोलता. इस की असत्यता सिद्ध हो चुकी है.

कुछ दशकों पूर्व भी एक बहुत बड़ा बहुमत लगभग सभी बीमारियों (चेचक उन में से एक) को दैविक प्रकोप मानता था. आज कोविड को किसी ने भी दैविक प्रकोप नहीं कहा जबकि सारी दुनिया इस से प्रभावित रही. आज कोविड को विज्ञान ने नेस्तनाबूद कर दिया है.

आज भी भारतीय समाज में लड़की के पैदा होने का दोष महिला को दिया जाता है. जबकि सत्य इस के विपरीत है. दरअसल इस का जिम्मेदार तो पुरुष के शुक्राणों में मौजूद क्रोमोजोम है. यह बात सिद्ध है कि किसी भी मान्यता को सब मान रहे हैं तो यह उस के सत्य होने की गारंटी नहीं है. एक हिंदू कहने लगे

कि सब मुसलमान आतंकी हैं, सब मुसलमान 5 से 25 होते हैं, सब मुसलमानों की 4 पत्नियां होती हैं तो यह सच नहीं हो जाएगा.

थोड़ा सोचेंगे तो पाएंगे कि प्रत्येक मनुष्य के लिए भगवान का स्वरूप भिन्न है. हर प्राणी, जिसे भगवान में विश्वास रखने का पाठ पैदा होते ही पढ़ाया गया है, के मस्तिष्क में भगवान की जो छवि है वह किसी दूसरे के मन में बनी छवि से भिन्न है. भगवान

की शक्ति, स्वरूप, कार्यपद्धति, गुण एवं छवि विवरण हम जितने लोगों से पूछेंगे उतने ही अलगअलग उत्तर हमें प्राप्त होंगे. यानी जितने मस्तिष्क उतनी धारणाएं. ऐसा गेहूं के दाने के साथ नहीं होता, गुलाब के साथ नहीं होता, समुद्र के साथ नहीं होता, हाथी जैसे जानवर के साथ नहीं होता.

भारत में भगवान ने धनसमृद्धि का दायित्व लक्ष्मी को सौंप रखा है. करोड़ों भारतीय वर्षों से उस की पूजा भी कर रहे हैं. मगर विडंबना यह है कि लक्ष्मी तो यूरोप एवं अमेरिका में विराजमान हैं जहां उन की पूजा कोई नहीं करता. हमें यह पता लगाना होगा कि विकसित देशों के लोग कौन सी देवी की पूजाअर्चना करते हैं ताकि हम भी लक्ष्मी का दामन छोड़ उस की शरण में जाएं और समृद्धि पा सकें.

ऐसा सर्वज्ञानी एवं सर्वशक्तिमान भगवान, जो करोड़ों वर्षों में भी अपने रूपस्वरूप को स्पष्टतया प्रकट नहीं कर सका, उस के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लगना आवश्यक है. हमारे सारे लक्ष्मीपति तो उस यूरोप, अमेरिका में रहने की योजना बना रहे हैं जहां लक्ष्मी की पूजा की ही नहीं जाती.

आज भी किसी धर्म, भगवान की उपस्थिति का कोई सीधा प्रमाण हमारे पास नहीं है. है तो सिर्फ कुछ सुनीसुनाई बातें, सरकारी पार्टी द्वारा बनाए गए मठों के महंतों के आश्रम, मंदिर, मसजिद, चर्च आदि. फिर भी एक बड़े बहुमत द्वारा उस में विश्वास होने की जड़ में एक भय का वातावरण है. हर छोटे बच्चे के मन में यह बीज रोप दिया जाता है कि अगर वह भगवान के अस्तित्व को नकारेगा तो दुख मिलेंगे, वह नरक जाएगा आदिआदि. डराने के साथसाथ उसे लालच भी दिया जाता है कि अगर ईश्वर की कृपादृष्टि हो गई तो संसार के सारे सुख उस के कदमों में होंगे. कोई आफत आ जाए तो ईश्वर को याद करो, शायद ठीक हो जाए. डर और लालच की बुनियाद पर भगवान के अस्तित्व की इमारत का खड़े होना, क्या आप को नहीं चौंकाता? अगर नहीं चौंकाता तो इसलिए कि ईश्वर के दुकानदार लगातार प्रचार करते रहते हैं कि यह ईश्वर की कृपा से हुआ, वह ईश्वर की कृपा से हुआ आदिआदि.

कुछ लोग सिर्फ इसलिए भी विश्वास करते हैं कि अगर भगवान नहीं है तो फिर यह संसार किस ने रचा? मगर वे इस से आगे दूसरा सवाल नहीं पूछते कि अगर ‘रचना’ के लिए ‘रचयिता’ चाहिए तो रचयिता को किस ने रचा? बस, भगवान है, यह मान लेने से ज्यादा श्रेयस्कर एवं तर्कसंगत तो यह मान लेना है कि बस, एक नैसर्गिक, स्वस्फूर्त प्रकृति है. यह ‘डिजाइन इंटैलिजैंस’ नहीं बल्कि ‘डिफौल्ट इंटैलिजैंस’ है.

अधिकांश लोग इसलिए भी भगवान में विश्वास रखते हैं क्योंकि उन की दृढ़ मान्यता है कि हमारे पूर्वज ऋषिमुनि हैं जो भगवान के पुत्र माने जाते हैं, जिन्हें भगवान ने स्वयं ज्ञान पकड़ाया. हर धर्म के मुख्य प्रस्ताव के साथ चमत्कारों की कहानियां जोड़ दी गई हैं. जबकि ये विश्वास और चमत्कार से मीलों दूर हैं. हकीकत में आदिम मानव को रोशनी, बरसात, बिजली, हवा, आंधी आदि सभी किसी ऊपरी शक्ति से संचालित होता प्रतीत होता था.

कुछ लोगों ने उस पर कहानियां गढ़ कर उसे प्राकृतिक घटनाओं का विवरण देना शुरू किया. आंधी किसी भगवान के छींकने के कारण आती है. बादल किसी भगवान के नहाने से होते हैं. इन तथाकथित कहानीकारों ने अपनी रोजीरोटी इन कहानियों के जरिए जुटानी शुरू कर दी. हर समस्या को किसी भगवान से जोड़ कर कहानी बना देना और नएनए सुननेसम?ाने वाले साधारण लोग इन कहानीकारों को ईश्वर को मानने लगे तो कहानियां और विस्तृत हो गईं और दुनिया के एक कबीले से दूसरे, एक समाज से दूसरे समाज में फैलने लगीं.

इन कहानियों की तार्किक समीक्षा को पिछले 200 सालों में पाए ज्ञान के तराजू पर तोलो तो साफ पता चलता है कि ये कोरी ?ाठी हैं, तर्कविहीन हैं और इन का उद्देश्य सिर्फ सुनने वाले भक्तों को भरमा कर मुफ्त का माल हड़पना है. हर भगवान से जुड़ी कहानी में भगवान के नाम पर कुछ देने का संदेश होता है, चाहे वह अपनी उगाई फसल हो, अपने मरे पशु हों, अपनी बेटीपत्नी हो, अपनी जान हो या दूसरे की जान लेना हो.

तीसरी मान्यता – भगवान ब्रह्मांड का रचयिता है

ईश्वर की हमारी अवधारणा का सब से महत्त्वपूर्ण कारण है- विश्व की उत्पत्ति. हम ने भगवान को सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी एवं सार्वभौगिक मानते हुए ब्रह्मांड एवं जीवों की उत्पत्ति का संपूर्ण श्रेय उसे दे दिया है. लेकिन विभिन्न धर्मों की कहानियां न केवल एकदूसरे से भिन्न हैं, अंतर्निहित विरोधाभासों से भरपूर भी हैं.

जैसे, ईसाई धर्म का कहना है कि पहले 6 दिन विश्व की रचना हुई और 7वें दिन भगवान ने अवकाश लिया. यह कैसा विरोधाभास है कि एक ही परमपिता ने तारों, ग्रहों और निहारिकाओं को बनाया जो भौतिकी के नियमबद्ध तरीके से अपनीअपनी कक्षाओं में बंध कर चलते हैं, दूसरी ओर आदम-हव्वा को वह अनुशासन में नहीं रख सका एवं पाप करने की छूट दे दी. दूसरा विरोधाभास देखिए, अगर 7वें दिन अवकाशप्राप्त कर लिया तो अब भी जीवों, उल्काओं, ब्लैकहोल एवं नए तारों आदि का सृजन कौन कर रहा है? अब भी जीवों का विकासक्रम क्यों जारी है और नई संकर प्रजातियों का निर्माण कौन कर रहा है?

एक और सवाल पूछा जा सकता है कि इन 6 दिनों से पहले परमपिता कर क्या रहा था और फिर 8वें दिन से क्या कर रहा है? यह भी पूछा जा सकता है कि जब कोई मानव मौजूद ही न था तो इन

6 दिनों की बात पता कैसे चली?

हिंदू धर्म में भी इसी तरह भगवान को सर्वगुण संपन्न माना है लेकिन परस्पर विरोध की कमी नहीं. एक ओर जहां उसे निराकार माना है, वहीं दूसरी ओर उस के विभिन्न अंगों द्वारा वर्गों के पैदा होने की बात कही गई है. यह बात कह कर सताए गए वर्गों को शांत कर दिया गया. भगवान को अनंत गुणों से संपन्न माना है, वहीं उस के द्वारा सृजित प्रत्येक मौडल, चाहे वह मानव हो या अन्य कोई जीव, त्रुटियों से परिपूर्ण एवं विफल है. एक सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञानी द्वारा ऐसे मौडल्स बनाने का क्या औचित्य है जिस में सभी दुखी हों, बीमार होते हों, मृत्यु को प्राप्त होते हों? तारोंसितारों को देखिए, भभकती आग का गोला हैं. अगर उन में कोई संवेदना है तो उन की अनंत पीड़ा का सहज अनुमान लगाया जा सकता है.

बात यहीं खत्म नहीं होती. जहां हम उसे प्रेम का सागर एवं दुखों का हर्ता बताते हैं, वहां उस ने प्रकृति के हर क्षण को मृत्यु के तांडव में परिवर्तित कर दिया है. ईसाई धर्म में भी भगवान को प्रेम की प्रतिमूर्ति बताया है. उसी प्रेम से पूर्ण ईश्वर द्वारा बनाए गए संसार में हर क्षण मृत्यु का वीभत्स खेल चल रहा है. हवा का हर ?ांका अनगिनत सूक्ष्म जीवों को मार देता है, हर क्षण बड़ी मछली छोटी मछली को खा रही है और हर क्षण एक शेर किसी हिरण को दर्दनाक मृत्यु के घाट उतार रहा है.

इस पृथ्वी पर कोई पल ऐसा नहीं गुजरता जब एक प्राणी, अपने अस्तित्व की रक्षा में दूसरे के प्राणों से न खेल रहा हो. यूक्रेन में रूसी निहत्थों को मार रहे हैं और यूक्रेनी निवासी रूसी सैनिकों को. ईश्वर में दोनों विश्वास रखते हैं. और्थोडौक्स क्रिश्चियन धर्म को मानने वाले इन दोनों के मरने वालों के परिजन आज इन की मौतों से दुखी हैं. ऐसा मायाजाल फैलाने वाला उत्पीड़क तो हो सकता है, प्रेम का सागर या दयालु नहीं.

एक और बात अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं विचारयोग्य है, अगर हम सभी और हमारा पूरा ब्रह्मांड एक सर्वशक्तिमान की रचना है तो सभी रचनाओं में एक क्रमबद्ध विकास क्यों दृष्टिगोचर होता है? क्यों एक छोटी उल्का से एक विशाल तारे की शृंखला बनती है? क्यों एक छिपकली से मगरमच्छ तक का विकास दिखता है? क्यों बंदर से मानव की यात्रा में विकास के पड़ाव आते हैं? सर्वशक्तिमान को तो एक ही बार में परिपूर्ण ढांचा बनाना चाहिए. एक ओर कड़े अनुशासन में बंधे विशालकाय ब्रह्मांडीय ग्रह, दूसरी ओर मानव के अगले ही क्षण का पता नहीं. ये दोनों कार्य एक ही सर्वज्ञानी तो नहीं कर सकता.

थोड़ी और गहराई में जाएं तो आप स्वयं आश्चर्यचकित रह जाएंगे कि किन धार्मिक शास्त्रों को हम ने ज्ञान का आधार मान रखा है? इन शास्त्रों के अनुसार ब्रह्मांड में सिर्फ कुछ ग्रह, सूर्य, चंद्रमा, पृथ्वी आदि के अलावा कुछ भी नहीं है, जबकि हम जानते हैं कि ब्रह्मांड का विस्तार अनंत है. उस की सीमाएं जानना अभी बाकी है. हमारे अपने बनाए गए उपग्रह लाखों मील तक सौरमंडल के अंत तक जा चुके हैं. जन्मपुनर्जन्म की अनेक किवंदतियां विभिन्न धर्मों में मिल जाएंगी. मगर आज वैज्ञानिकों ने साबित कर दिया है कि पुनर्जन्म कुछ नहीं, सिर्फ आप के गुण-धर्मों का डीएनए के जरिए अगली पीढ़ी तक पहुंचना है. धर्म तथ्य, नर्क, विज्ञान की जानकारी के बाद भी अपनी ऊलजलूल कहानियों को दोहराते रहते हैं.

चौथी मान्यता – भगवान संसार को चलाने वाला है

हम भगवान को रचयिता के साथसाथ, पालनकर्ता एवं संहारक भी मानते हैं. हिंदू धर्म का प्रबल एवं अटूट विश्वास है कि ‘रामजी की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता.’ इस से पहले कि आप भी इसे सच मानें, एक सवाल की ओर अपना ध्यान केंद्रित कीजिए- क्या आप को मालूम है कि अगर योजनाबद्ध तरीके से एक पत्ता हिलाना हो तो उस में भौतिकी, रसायन एवं तकनीकी की कितनी गणनाएं आवश्यक होंगी? सहज कल्पना कर के देखिए-

सब से पहले : पत्ता – उस में समाहित रसायन, उस का आकारप्रकार, भार, डाली से उस का तनाव सारी गणनाएं होनी चाहिए.

दूसरी : हवा – उस के अणुपरमाणु, विभिन्न गैसें, धूलकणों एवं आर्द्रता की मात्रा, यात्रा की गति एवं दिशा ये गणनाएं भी चाहिए.

तीसरी : पत्ता हिलाने की प्रक्रिया – हवा को कितने बल से चलायमान करना, उस का पत्ते से किस कोण से टकराना, टकराने के पश्चात हवा और पत्ता किन दिशाओं एवं कोणों पर मुड़ेंगे, कितना समय लगेगा? इस की पूरी योजना चाहिए.

चौथा : इस प्रक्रिया का हर क्षण, 24×7×365, आयोजन-प्रयोजन-महज एक पत्ते के लिए ही असंभव है तो फिर अकेले पृथ्वी पर ही अनंत पत्तों को हिलाने की प्रक्रिया में रामजी के संलग्न होने का कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नजर नहीं आता.

सहज विचार करिए कि जब एक पत्ते को भी योजनाबद्ध तरीके से हिलाने में इतनी इंजीनियरिंग चाहिए तो समस्त संसार को हर क्षण अपने अधिकार और नियंत्रण में रखना भगवान के वश में नहीं. नैसर्गिक, प्राकृतिक एवं शनैशनै ये यांत्रिक घटनाएं विकसित हो सकती हैं मगर कोई कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, इसे डिजाइन कर के चला नहीं सकता.

एक क्षण के लिए मान भी लिया जाए कि यह भगवान की रचना है और उसी द्वारा संचालित है तो अपने चारों ओर अवलोकन करिए और निष्कर्ष निकालिए कि यह रचना और संचालन क्या किसी सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञानी एवं प्रेम की मूर्ति का हो सकता है? तारेसितारे भभकती आग का गोला हैं, मानव एवं जीव, बीमार, दुखी एवं क्षणभंगुर. एक जीव दूसरे के प्राणों का प्यासा. अकेली पृथ्वी पर लगातार भभकते ज्वालमुखी, बाढ़ का कहर, बढ़ता प्रदूषण, सीमित संसाधन. ऐसा लगता है कि असीमित ब्रह्मांड

और सीमित दुनिया का सीईओ इन हजारोंकरोड़ों वर्षों में अपनी कंपनियों के प्रबंधन में बुरी तरह असफल हो गया है. ऐसे में, हमारे पास उसे (भगवान को) अनिवार्य सेवामुक्ति दे देने के अलावा कोई और विकल्प शेष नहीं रह गया है.

5वीं मान्यता – भगवान ही संहारक है

हमारे शास्त्रों ने प्रकृति का यह सब से वीभत्स कार्य भी भगवान को सौंप दिया है. मगर ऐसा करने से पहले उन्होंने इस बात को नजरअंदाज कर दिया कि बौद्धिक विकास कई कठिन प्रश्न उपस्थित करेगा.

उदाहरण के तौर पर, कुछ ही वर्षों पूर्व तक हमारी औसत आयु 40-45 वर्ष थी. आधुनिक विज्ञान में प्रगति के चलते यह औसत आयु अब बढ़ कर 60-65 वर्ष हो गई है. क्या अचानक, करोड़ों वर्ष पश्चात भगवान को मानव जाति पर दया आ गई?

एक और प्रश्न उठता है. आदिम मानव जहां दूसरे मांसाहारियों का भोग बनता था, बीमारी और संक्रमण से मरता था, वही आज कोई ट्रक के टायर से मरता है, कोई आतंकवादी की गोली से मरता है तो कोई कल्पना चावला की तरह अंतरिक्ष में अविश्सनीय मृत्यु को प्राप्त करता है, कोई रूसी मिसाइल से मरता है. क्या यमराज इस प्रतीक्षा में होते हैं कि कब एके-47 बने, कब मिसाइल छोड़े जाएं और कब वे उस से किसी के प्राण लें? अगर भगवान इसी इंतजार में है कि कब मानव कोई नई तकनीक आविष्कृत करे और कब वे उसे उपयोग में लाएं

तो निस्संदेह उसे सर्वशक्तिमान मानना असंभव होगा. अपने चारों ओर अवलोकन करें तो हमें जन्म एवं मृत्यु की अनगिनत प्रणालियां दिखाई देती हैं.

अगर भगवान ने ऐसा किया है तो उस ने स्वयं अपनी प्रबंधन प्रणाली को अत्यंत जटिल बनाया है. भगवान के लिए तो यह ही आसान होता कि जन्म की एक परिष्कृत पद्धति एवं मृत्यु की एक निश्चित प्रक्रिया. इस तरह यमराज एवं उस के दूतों का कार्य भी आसान हो जाता.

फिर सोचिए, मृत्यु के पश्चात शरीर की क्या दुर्दशा होती है. कभीकभी तो कुछ मृत जानवरों के शरीर एक के बाद एक ट्रकों और गाडि़यों के टायरों से रौंदे जाते हैं. क्या यह एक सर्वज्ञानी का डिजाइन हो सकता है.

निष्कर्ष

हम भगवान की संतानें नहीं हैं क्योंकि आदम-हव्वा से पाप तो शैतान ने करवाया. न ही परमपिता हमारी रक्षा करने में समर्थ हैं क्योंकि वह अपने 2 बच्चों आदम और हव्वा को भी शैतान के कहर से न बचा सका. जब शैतान के उकसाने पर वर्जित फल खाया गया तो क्या हम शैतान की संतानें हैं? सवाल अनेक हैं और अभी एक अंतिम सवाल भी उत्तरित करना शेष है – भगवान नहीं है तो क्या है?

इस अंतिम प्रश्न के वर्तमान में कई संभावित उत्तर हो सकते हैं, जिन की गवेषणा में जाना अभी बाकी है. मगर एक बात निश्चित है कि ईश्वर का जो रूपस्वरूप विभिन्न धर्मों द्वारा अलगअलग गढ़ा गया है एवं जो भी दिया गया है वह ?ाठा है. इस बात में कोई संशय नहीं कि समस्त विश्व एक ही ऊर्जा, एक ही शक्ति या एक ही स्त्रोत का परिणाम है. मगर हम हजारों वर्ष पूर्व के मानव के सीमित ज्ञान से आत्मापरमात्मा की परिभाषा प्राप्त नहीं कर सकते.

प्रकृति संपूर्णतया ऊर्जा एवं गति से भरी हुई है. प्रत्येक कण, प्रत्येक जीवन का जन्म लेना और मृत्यु को प्राप्त होना, ये सभी चक्र स्वस्फूर्त एवं स्वनिर्भर हैं. ऊर्जा अनंत विश्व में विसर्जित है, किसी भी धर्म के भगवान के हाथों में केंद्रित नहीं है और इन सभी चक्रीय प्रणालियों में अंतर्निहित इंटैलिजैंस है. जैसे, सूर्य में लगातार एनर्जी का निर्माण एवं पदार्थ का श्रेय होता है. इसी प्रकार प्रत्येक कण में, प्रत्येक जीव में भी स्वनिरंतरता बनाए रखने का ज्ञान है. विभिन्न चक्रों के इंटैलिजैंस में इतनी विविधता है कि यह किसी सुपर इंटैलीजैंस द्वारा प्रदत्त अथवा डिजाइंड नहीं है, बल्कि नैसर्गिक एवं प्राकृतिक है.

अंत में यह भी सम?ाना होगा कि औरतों और आदमियों के बीच चौड़ी खाई के लिए यह भगवान की कल्पना ही जिम्मेदार है. भारत में हिंदूमुसलिम विवाद और ऊंची जाति, पिछड़ी जाति, अछूत जाति, जनजाति व दूसरे धर्मों से विवाह के पीछे भी भगवान ही की मान्यता है. रंगभेद, वर्गभेद, वर्णभेद, भाषाभेद को भगवान की कल्पना ही बल देती है. हे भगवान, जरा बताओ तो हम सब में फूट डालने वाले तुम हो तो किस आधार पर हो.

विश्वास के धरातल को छोड़ जब हम विचार की वास्तविकता पर आते हैं तो यह पक्का हो जाता है कि इस प्रकृति को भगवान ने नहीं बनाया, बल्कि जिस गति से विकासक्रम जारी है, तकनीकी विज्ञान एवं आयुर्विज्ञान उन्नति पर है, उस से यही लगता कि आने वाले भविष्य में प्रकृति एक सर्वदा सुखी, स्वस्थ, प्रसन्न एवं अमर प्रजाति का विकास अवश्य कर लेगी जिसे आप सही अर्थों में भगवान कह सकेंगे.

आज आवश्यकता है विकास की इस गति को तेज करने की. आवश्यकता है प्रकृति द्वारा विकसित प्रणालियों में निहित नियमों को सम?ाने की. आवश्यकता है मंदिर, मसजिद, गिरिजों को प्रयोगशालाओं में परिवर्तित करने की. आवश्यकता है पूजाअर्चना, प्रार्थना और नमाज में व्यस्त मानव को अपने श्रम एवं समय को वैज्ञानिक खोजों में व्यय करने की और आवश्यकता है भगवान को अनिवार्य सेवानिवृत्त कर अपने समय एवं भविष्य का निर्धारण स्वयं अपने हाथों में लेने की.

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