धर्म की दुकानदारी के 2 बड़े प्रोडक्ट काल्पनिक स्वर्ग व काल्पनिक नर्क हैं. नर्क का इतना वीभत्स चित्रण धार्मिक साहित्य में है कि लोग इस के बारे में सुन कर कांप उठते हैं और यातनाओं से बचने के लिए दानदक्षिणा यानी घूस देने को आसानी से तैयार हो जाते हैं. दुकान चलती रहे, इसलिए कोई इन ढकोसलों का विरोध नहीं करता. हिंदू धर्मग्रंथों के सार ‘गीता’ के अध्याय 2, श्लोक 23 के अनुसार- नैनं छिंदंति
शस्त्राणि नैनं दहति पावक : न चैन क्लेदयंत्यापो न शोखयति मारूत : अर्थात, आत्मा को शस्त्र आदि नहीं काट सकते, इस को आग नहीं जला सकती, इस को जल नहीं गीला कर सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकती है. ‘गीता’ के अध्याय 11, श्लोक 8 के अनुसार- न तु मां शक्यसे द्रष्टुमनेनैव स्वचक्षुषा. दिव्यं ददामि ते चक्षु: पाश्व मे योगमैश्वरम्... परंतु मु?ो इन अपने प्राकृत नेत्रों द्वारा देखने का निसंदेह समर्थ नहीं है, इसी से (मैं) तेरे लिए दिव्य अर्थात अलौकिक चक्षु देता हूं, उस से (तू) मेरे प्रभाव और योगशक्ति को देख. आज तक गीता तथा आत्मा के बारे में किसी भी हिंदू संत, संगठन, समाज आदि ने कोई विरोध नहीं जताया है कि इन बातों में कुछ गलत है या कपोल कल्पित है.
लेकिन इस के साथ ही गरुड़पुराण - (सारोद्वार सानुवाद (1416) मुद्रक गीता प्रेस, गोरखपुर) में वर्णित नरकों का, यममार्ग की यातनाओं का, मृत शैयादान, गोदान, अन्य दान का, गरुड़ पुराण, श्रवण का फल आदि का भी किसी ने कभी विरोध नहीं किया. अब गोल और गरुड़ पुराण की बातें एकदूसरे की विरोधी हैं. सही क्या है, यह हिंदुत्व की सोच का विषय बना रहे तो अति उत्तम है.