पिछले दिनों भाजपा नेता बड़ा होहल्ला मचा रहे थे कि हिंदुओं की संख्या कम हो रही है, मुसलमानों की संख्या बढ़ रही है, हिंदू खतरे में है, वगैरहवगैरह. हालांकि, लोकसभा चुनाव के दौरान ध्रुवीकरण की कोशिश के मद्देनजर जिस आंकड़े के आधार पर वे होहल्ला मचा रहे थे वह, दरअसल, 1950 और 2015 के बीच की स्टडी थी.
मोदी सरकार ने तो जाति आधारित जनगणना कभी करवाई ही नहीं कि जिस से पता चले कि किस धर्म-जाति के लोगों की संख्या बढ़ी या कम हुई. फिर यह समझना भी जरूरी है कि जन्मदर में बदलाव के पीछे आर्थिक और सामाजिक कारण होते हैं और इस का किसी धर्म से कोई संबंध नहीं होता है. जन्मदर में गिरावट शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवाओं तक बेहतर पहुंच का नतीजा है.
बीते एक दशक में दुनियाभर के देशों में प्रजनन दर बहुत तेजी से गिर रही है. यूएस सैंटर फौर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवैंशन की हालिया रिपोर्ट यह कहती है कि 2023 में अमेरिका की प्रजनन दर में 2 फीसद की गिरावट आई है. कोरोना महामारी के चरम समय प्रजनन दर में कुछ वृद्धि हुई थी क्योंकि लगभग 2 साल तक लौकडाउन के चलते पतिपत्नी घर पर एकसाथ रहे और उन के एकांत में खलल डालने वाले रिश्तेदार उन से दूर रहे. लिहाजा, औरतें ज्यादा प्रैगनैंट हुईं, यह दुनियाभर में हुआ परंतु यह वृद्धि अस्थाई थी.
हालांकि, 1971 के बाद से अमेरिकी प्रजनन दर लगातार गिर रही है. अधिक वैश्विक परिप्रेक्ष्य में यदि अन्य औद्योगिक देशों को देखें तो सभी जगह समान पैटर्न दिखाई दे रहा है. जापान, दक्षिण कोरिया और इटली में प्रजनन दर सब से कम है.
अमेरिका और आस्ट्रेलिया में वर्तमान प्रजनन दर 1.6 है. ब्रिटेन में यह 1.4 है. वहीं दक्षिण कोरिया में यह मात्र 0.68 है. ये देश लगातार सिकुड़ रहे हैं. दक्षिण कोरिया तो बहुत तेजी से सिकुड़ रहा है. इस का मतलब यह है कि इन देशों में जितने लोग पैदा हो रहे हैं उस से ज्यादा लोग मर रहे हैं. इस से काम करने वाले हाथ कम हो रहे हैं, गरीबी बढ़ रही है और लोग अपनी देखभाल के लिए दूसरों पर या सरकार पर अधिक निर्भर हो रहे हैं.
किसी जनसंख्या के वर्तमान आकार को बनाए रखने के लिए, अर्थात न तो वह सिकुड़े और न ही बहुत ज्यादा हो, कुल प्रजनन दर प्रति महिला 2.1 से ऊपर होनी चाहिए. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमें मातापिता दोनों के मरने के बाद उन की जगह लेने के लिए पर्याप्त बच्चे पैदा करने की जरूरत होती है– एक बच्चा मां की जगह लेता है और दूसरा पिता की जगह लेता है और शिशु मृत्युदर के लिए थोड़ा अतिरिक्त.
संक्षेप में समझें तो यदि हम चाहते हैं कि जनसंख्या बढ़े, तो महिलाओं को 2 से अधिक बच्चे पैदा करने की आवश्यकता है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद आस्ट्रेलिया, ब्रिटेन और अमेरिका जैसे कई पश्चिमी देशों में बिलकुल यही हुआ था. महिलाएं 2.1 से अधिक बच्चों को जन्म दे रही थीं, जिस के परिणामस्वरूप शिशु जन्म में वृद्धि हुई. कई परिवारों में 3 या अधिक बच्चे हो गए. मगर अब महिलाएं एक या दो बच्चे ही पैदा कर रही हैं और बहुतेरी तो बच्चा पैदा ही नहीं करना चाहती हैं. जिस की वजह से दुनिया के देशों में प्रजनन दर में भारी कमी देखी जा रही है. यह चिंता का विषय है.
प्रजनन दर कम होने की कई वजहें हैं और एकदूसरे से जुड़ी हुई हैं. शिक्षा के प्रचारप्रसार के कारण दुनियाभर में औरतें शिक्षित हुई हैं. भारत में भी औरतों की शिक्षा के क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है. पहले लड़कियों की शादी कम उम्र में हो जाती थी. 17-18 साल की उम्र में वे मां बन जाती थीं. उन के पास मां बनने के लिए अधिक साल भी थे. पिछली पीढ़ी पर ही नजर डालें तो अनेक घरों में 5 से 8 या 10 बच्चे तक हैं.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 6 भाईबहन हैं जबकि नरेंद्र मोदी निसंतान हैं. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 5 भाईबहन हैं जबकि नीतीश कुमार का सिर्फ एक बेटा है. संविधान निर्माता बाबासाहेब अंबेडकर 14 भाईबहन थे, सुभाष चंद्र बोस भी 14 भाईबहन थे, पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई 7 भाईबहन थे. अपने गृहमंत्री अमित शाह 7 भाईबहन हैं, तेलंगाना के पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव 10 भाईबहन हैं और लालू यादव के 9 बच्चे हैं. जबकि अगली पीढ़ी में बच्चों की संख्या घट कर एक या दो रह गई है.
शिक्षा और उच्च शिक्षा ग्रहण करने और फिर कैरियर बनाने के चलते लड़के और लड़कियों की शादी की उम्र बढ़ कर 28-35 हो गई है. इस उम्र में शादी होने पर बच्चे भी एकाध ही हो रहे हैं. इस के अलावा दुनियाभर में औरतें सिर्फ गृहिणी नहीं रहीं, बल्कि नौकरीपेशा हैं, व्यवसाय कर रही हैं, ऊंचे पदों पर नियुक्त हैं, ग्लैमर की दुनिया में हैं. इस व्यस्तता के कारण भी वे अधिक बच्चे नहीं चाहती हैं.
आज के समय में संयुक्त परिवार टूट चुके हैं. पहले बहू को यदि बच्चा न हुआ तो लड़के की मां, दादी, बूआ, मौसी, चाची सब उस को टोकती थीं, इलाज के लिए डाक्टर से ले कर साधुसंतों या झाड़फूक वालों के चक्कर काटती थीं. जब तक बहू की गोद न भर जाए, बड़ीबूढ़ी चैन से नहीं बैठती थीं. अगर तमाम दवाइलाज के बाद भी बच्चा न हुआ तो लड़के की दूसरी शादी भी करवा दी जाती थी. अगर लड़के में दोष हुआ तो चुपचाप घर के दूसरे पुरुषों से संसर्ग करवा कर बच्चा पाया जाता था. मगर संयुक्त परिवार के टूटने से नवविवाहिताएं घर की बड़ीबूढ़ियों के तानों से आजाद हो गई हैं. अब अगर शादी के कई साल तक बच्चा न भी हुआ तो चिंता नहीं है. अनेक ऐसे कपल हैं जो निसंतान है और खुश हैं. किसी को बच्चे की ज्यादा चाह हुई तो आईवीएफ से एक बच्चा पा लिया या गोद ले लिया.
उच्च शिक्षा प्राप्त और अच्छी नौकरी या व्यवसाय में लगी बहुतेरी महिलाएं शादी कर के किसी बंधन में नहीं बांधना चाहती हैं, इसलिए भी प्रजनन दर लगातार प्रभावित हो रही है. आस्ट्रेलियाई महिलाएं पुरुषों की तुलना में बेहतर शिक्षित हैं. आस्ट्रेलिया में दुनिया की सब से अधिक शिक्षित महिलाएं हैं. अधिकांश महिलाएं मां नहीं बनना चाहती हैं.
आज युवाओं को हर चीज में देरी हो रही है. युवाओं के लिए उच्च शिक्षा पाना, स्थिर नौकरी प्राप्त करना और अपना घर खरीदना शादी से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है. ये ऐसे कारक हैं जो पहले बच्चे के जन्म के लिए भी महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं. इसलिए, कई युवा आर्थिक और आवास असुरक्षा के कारण बच्चा पैदा करने में देरी करते हैं.
इस के अलावा, अब हमारे पास सुरक्षित और प्रभावी गर्भनिरोधक है, जिस का अर्थ है कि विवाह के बाहर यौन संबंध संभव है और प्रजनन के बिना यौन संबंध की लगभग गारंटी दी जा सकती है. इन सब का मतलब है कि मातापिता बनने में देरी हो रही है. महिलाएं देर से और कम बच्चे पैदा कर रही हैं.
बच्चे पालना एक महंगा और समय लेने वाला काम है. कई औद्योगिक देशों में बच्चों के पालने पर आने वाली लागत बहुत अधिक है. आस्ट्रेलिया में बच्चों की देखभाल की औसत लागत मुद्रास्फीति से अधिक हो गई है. स्कूल की ट्यूशन फीस, यहां तक कि पब्लिक स्कूलों के लिए भी, मातापिता के बजट का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा खर्च कर देती है. इसलिए लोग एक बच्चे से ज्यादा नहीं पैदा कर रहे हैं.
यदि प्रजनन दर को बढ़ाना है तो सहायक देखभाल के बारे में गंभीरता से सोचना होगा. युवाओं को जल्द से जल्द बेहतर कैरियर और आवास मिले, बच्चों और वृद्ध देखभाल के बुनियादी ढांचे में अधिक निवेश, बढ़ती उम्र की आबादी का समर्थन करने के लिए तकनीकी नवाचार और ऐसे कार्यस्थलों की आवश्यकता है जो मूल रूप से देखभाल को ध्यान में रख कर तैयार किए गए हों. इस के बगैर लड़केलड़कियों को अधिक बच्चे पैदा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है.
परिवारों में कम बच्चे पैदा होने या बच्चे न होने से एक और समस्या सिर उठाने लगी है. यदि परिवार में एक ही बच्चा है और वह शिक्षा के लिए विदेश गया और वहीं सैटल हो गया तो उस की पैतृक संपत्ति और उस के मातापिता द्वारा अर्जित चल-अचल संपत्ति की देखभाल करने और भोगने वाला कोई नहीं बचता है. दिल्ली में कई ऐसी कोठियां उजाड़ हालत पड़ी हैं, क्योंकि जो बच्चे विदेश में सैटल हो गए, वो वापस भारत नहीं लौटे.
जेरोधा के सहसंस्थापक और अरबपति निखिल कामथ भविष्य की पीढ़ियों के लिए धन जमा करने में विश्वास नहीं करते हैं. निखिल कामथ अपनी अधिकांश संपत्ति परोपकारी कार्यों के लिए दान करने के बाद ‘द गिविंग प्लेज’ में शामिल होने वाले सब से कम उम्र के भारतीय हैं. वे बेंगलुरु स्थित उद्यमियों और गिरवी रखने वाले साथी इन्फोसिस के सहसंस्थापक नंदन नीलेकणि, बायोकोन की संस्थापक किरण मजूमदार शा और विप्रो के संस्थापक अजीम प्रेमजी से प्रेरित हैं. वे भविष्य की पीढ़ियों के लिए धन जमा करने में विश्वास नहीं करते हैं.
अपने पोडकास्ट, डब्ल्यूटीएफ में, 37 वर्षीय अरबपति निखिल कामथ ने कहा कि वे अपने जीवन के 2 दशक केवल ‘बच्चों की देखभाल’ में नहीं बिताना चाहते हैं केवल यह आशा करने के लिए कि जब वे बूढ़े हो जाएंगे तो उन के बच्चे उन के साथ अच्छा व्यवहार करेंगे.
कामथ कहते हैं, “मैं बच्चे की देखभाल करतेकरते अपने जीवन के 18-20 साल बरबाद कर दूं और एक दिन वह 18 साल की उम्र में ‘स्क्रू** यू’ कहे और मुझे छोड़ कर चला जाए. मैं अपने जीवन में ऐसी स्थिति नहीं चाहता.”