हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान इस बार कहीं से भी यह मांग नहीं उठी कि इस बार मुख्यमंत्री दलित समुदाय से होना चाहिए. साल 2018 तक यदाकदा ही सही यह मांग उठती रहती थी तो लगता था कि यह तबका अपने अधिकारों को ले कर जागरूक है जिसे बुद्धिजीवी और अभिजात्य वर्ग दलित चेतना कहता है. तीनों राज्यों में दलितों ने किसी भी पार्टी के लिए एकतरफा वोट नहीं किया है. हां भाजपा की तरफ उस का झुकाव ज्यादा रहा है क्योंकि वाकई में भाजपा ने उस के लिए काफी कुछ किया है.

क्या और कैसे किया है इसे समझने से पहले एक नजर आंकड़ों पर डालना जरुरी है जिस से साफ होता है कि यह वर्ग या वोट अब अब किसी एक दल का बैंक या बपौती नहीं रह गया है. हालांकि यह इंडिया एलायंस के लिए एक मौका और न्यौता भी है कि वह अगर वाकई भाजपा को सत्ता से हटाने के प्रति गंभीर है तो उसे इस भटकते वंचित समुदाय को साधना होगा और उस के हितों व सामाजिक स्थिति पर भी अपने राजनातिक स्वार्थों से हट कर प्राथमिकता में रखना होगा.

यह कहते हैं आंकड़े

सब से ज्यादा 230 सीटों वाले मध्य प्रदेश में एससी के लिए 35 आरक्षित सीटों में से भाजपा इस बार 26 सीटों पर जीती है जबकि कांग्रेस 9 पर सिमट कर रह गई है. 2018 के चुनाव में भाजपा को 18 और कांग्रेस को 17 सीटें मिली थीं. 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ में एससी समुदाय के लिए आरक्षित 10 में से 6 पर कांग्रेस और 4 पर भाजपा जीती है.

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