लोकसभा चुनाव नतीजों के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शाम को जब कार्यकर्ताओं को संबोधित करने की परंपरा निभाने के लिए भाजपा कार्यालय पहुंचे तो पूरी तरह जैविक नजर आ रहे थे. स्वाभाविक तौर पर उन का चेहरा उतरा हुआ था और आवाज में भी 4 दिनों पहले सा दम नहीं था क्योंकि जो जीत भाजपा के हिस्से में आई है वह बेहद शर्मनाक है. 400 पार भले ही सियासी जुमला रहा हो लेकिन पार्टी का 240 सीटों पर सिमट जाना उतना ही अप्रत्याशित था जितना यह कि इस कार्यक्रम में भाषण की शुरुआत ही जय जगन्नाथ से करना था.
ओडिशा में मिली कामयाबी के बाबत जगन्नाथ के प्रति आभार और आस्था व्यक्त करने के साथसाथ उन्हें जय श्रीराम न बोलने का खूबसूरत बहाना भी मिल गया. यह बात किसी सबूत की मुहताज अब नहीं रही कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का भाजपा को कोई फल नहीं मिला, बल्कि उलटा मिला लेकिन इस से कोई सबक उन्होंने सीखा हो, ऐसा लगा नहीं. क्योंकि जय जगन्नाथ बोलने के बाद वे सीधे बड़े मंगल और हनुमान का जिक्र करते नजर आए.
साबित हो गया कि भाजपा का धर्म यानी हिंदुत्व की राजनीति छोड़ने का कोई इरादा नहीं है. हर कोई दिलचस्प तरीके से भाजपा और एनडीए को बौर्डर पर मिले बहुमत की अपने ढंग से व्याख्या और विश्लेषण कर रहा है लेकिन यह सच कहने की हिम्मत कोई नहीं कर रहा कि ज्यादा कुछ नहीं हुआ है. बस धर्म, हिंदुत्व और मंदिरों की राजनीति करते रहने से वोटर ने उसे खारिज कर दिया है. इसी पैटर्न की राजनीति करते भाजपा सत्ता के शिखर तक पहुंची थी और इसी पैटर्न की राजनीति ने उसे फर्श पर भी ला पटका है क्योंकि इस से आमआदमी का कोई भला नहीं हो रहा था, उलटे नुकसान बेशुमार होने लगे थे.
इसे समझने के लिए एक अमेरिकी राजनेता और संविधान विशेषज्ञ व सीनेटर सैम जे एर्विन का यह कथन कल के नतीजों पर बेहद सटीक बैठता है कि, ‘राजनीतिक स्वतंत्रता किसी भी देश में मौजूद नहीं हो सकती जहां धर्म राज्य को नियंत्रित करता है और धार्मिक स्वतंत्रता किसी भी देश में मौजूद नहीं हो सकती जहां राज्य धर्म को नियंत्रित करता है.’ मामला 1966 के एक विवाद का है जब अमेरिकी स्कूलों में प्रार्थना पर एक संवैधानिक संशोधन का विरोध हो रहा था और इस की सुनवाई सुप्रीम कोर्ट में चल रही थी.
खासतौर से पिछले 10 सालों से देश में हो यही रहा था कि शासन धर्म चला रहा था. कम हैरत की बात नहीं कि इस से लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता तक छिनने लगी थी जो संविधान ने उसे दी हुई है. यह कैसे हो रहा था, इस पर बहस की लंबीचौड़ी गुंजाइशें मौजूद हैं लेकिन उत्तरप्रदेश जहां भाजपा औंधेमुंह गिरी वहां तो धार्मिक तमाशे, उन्माद और हंगामे इतने होने लगे थे कि मुसलमान तो मुसलमान, दलित और पिछड़े तक इस से आजिज आ गए थे. कुछ शांतिप्रिय सवर्ण भी असहज महसूस करने लगे हों, तो भी बात हैरत की नहीं.
उत्तरप्रदेश में अयोध्या है और मथुरा, काशी भी है (योगी आदित्यनाथ तो हैं ही) जहां से मसजिद हटा कर मंदिर निर्माण के संकल्प लिए जाने लगे थे. भाजपा सहित कट्टर हिंदूवादी संगठन खुलेआम कहने भी लगे थे कि अब मथुरा-काशी की बारी है. संत समाज ने तो अतिउत्साह में हिंदू राष्ट्र का संविधान तक बनाना शुरू कर दिया था. इस हल्ले के खतरे देख, कुछ ही सही, लोगों को ज्ञान प्राप्त होने लगा कि धर्म तो व्यक्तिगत आस्था का विषय है जिस पर राजनीति नहीं होनी चाहिए.
पूरे चुनावप्रचार में भाजपा का फोकस धर्म पर रहा तो लोगों को यह भी समझ आया कि सरकार का असल काम तो बुनियादी सहूलियतें जुटाना है, इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना है, प्रशासन चलाना और अर्थव्यवस्था सहित न्याय व्यवस्था संचालित करना है. ऐसे सैकड़ों काम हैं जिन के लिए हम सरकार चुनते हैं लेकिन हो यह रहा है कि सरकार मंदिरों से आगे कुछ सोचने और करने को तैयार ही नहीं. सो, जनता ने अपना फैसला सुना दिया.
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की धार्मिक इमेज और धार्मिक फैसलों ने आग में घी डालने का काम किया. हिंदूमुसलिम तो पूरे देश में हो ही रहा है लेकिन खासी दहशत दलितों और पिछड़ों में भी पैदा होने लगी थी जिन्हें यह एहसास है कि यह धर्म उन के लिए नहीं है या इस धर्म में उन के लिए कुछ नहीं रखा है. इस से तो ब्राह्मणों और बनियों की रोजीरोटी चलती है और डबल इंजन वाली सरकार इसे प्रोत्साहन दे रही है तो उन्होंने भाजपा से किनारा कर लेने में ही भलाई समझी.
ऐसा भी नहीं है कि दलितपिछड़े पूजापाठी न हों, उलटे, वे इस मामले में सवर्णों से उन्नीस नहीं. लेकिन अपनी सामाजिक और आर्थिक कमजोरियों का एहसास उन्हें है जिसे धर्म के जरिए दूर करने की कोशिश वे करते रहते हैं. वजह, उन्हें भी यह पट्टी पढ़ा दी गई है कि अपनी दुश्वारियों से नजात पाना है तो पूजापाठ करो, दानदक्षिणा दो और अपनी परेशानियों की बाबत सरकार से सवालजबाब मत करो सीधे ऊपर वाले से शिकवेशिकायत करो. इस जन्म की छोड़ो, धर्मकर्म कर अपना परलोक और अगला जन्म सुधारो.
ऐसा हो भी रहा था लेकिन इन तबकों की आस्था अभी इतनी गहरी नहीं हुई है कि वे अपनी बदहाली को किस्मत मान लें. इसी दौरान संविधान प्रचार का मुद्दा बना तो ये लोग और घबरा उठे कि कहीं ऐसा न हो कि हिंदू राष्ट्र बनाने के लिए सरकार मनुस्मृति पर अमल करने लगे यानी आरक्षण भी खत्म कर दे. और ऊंची जाति वालों को उन पर पौराणिक युग या संविधान बनने के पहले होने वाले अत्याचार ढाने का लाइसैंस देदे. भगवान तो कुछ कर नहीं रहा और अब सरकारें भी धर्मकर्म में डूबी जा रही हैं तो घबराए दलितपिछड़े ‘इंडिया’ गठबंधन की तरफ मुड़े जो उन्हें सुरक्षा, बराबरी के दर्जे और आरक्षण सलामत रखने का आश्वासन दे रहा था.
यह कह देना कोई अनुसंधान वाली बात नहीं है कि उत्तरप्रदेश में भाजपा की दुर्गति की वजह बसपा के वोटबैंक का ‘इंडिया गठबंधन’ की तरफ ट्रांसफर हो जाना है. असल बात यह है कि मायावती ने मनुवादियों के सामने घुटने टेक रखे हैं जिस से दलित खुद को लाचार महसूसने लगे हैं. वे अगर पिछड़ों खासतौर से यादवों और मुसलमानों की कही जानेवाली सपा की तरफ गए तो,महज इसलिए कि वह आमतौर पर धार्मिक पाखंडों से दूर रहती है और इन पर कहने भर की राजनीति करती है. उस के साथ वह कांग्रेस भी है जिस ने उसे कई तरह के हक संविधान के जरिए दिए थे लेकिन जब कांग्रेस के सवर्णों की सनातनी और पूजापाठी मानसिकता उजागर हो कर गैरत पर भारी पड़ने लगी तो दलितों ने उस से किनारा कर लिया और बसपा संग हो लिए जो घोषित तौर पर दलितों की, दलितों द्वारा, दलितों के लिए चलने वाली पार्टी थी.
इन्हीं सनातनी कांग्रेसियों की वजह से मुसलमान सपा के साथ हो लिया. यह अलगअलग राज्यों में अलगअलग तरह से एक नियमित अंतराल से हुआ. लगभग सभी राज्यों में दलितों और पिछड़ों की पार्टियां बनीं. जिन राज्यों में नहीं बन पाईं वहां पहले कांग्रेस और अब भाजपा इन की मजबूरी हो गई.
मध्यप्रदेश में भाजपा को 29 में से 29 सीटें लगभग 60 फीसदी वोटों के साथ मिलीं तो इसी वजह से कि दलितपिछड़ों की हिमायती और हक की बात करने वाली कोई पार्टी है नहीं. हिमाचल प्रदेश, ओडिशा, गुजरात और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी भाजपा को इस का फायदा मिला. इन राज्यों में भी कांग्रेस का कोई विकल्प या क्षेत्रीय दल नहीं हैं. लेकिन उत्तरप्रदेश में है तो उस ने अपना फैसला सुना दिया कि सियासत के असली भगवान हम हैं और हमें परलोक से पहले लोक सुधारना है.
शाम होतेहोते जैसे ही तसवीर साफ हुई, मठमंदिरों में बैठे हिंदुत्व के झंडाबरदार सकते में आ गए और सोशल मीडिया पर उन का विश्लेषण प्रवाहित होने लगा. ऐसी पोस्टें इफरात से इधरउधर होने लगीं जिन का सार यह है कि वे हिंदू गद्दार हैं जिन्होंने भाजपा को वोट न दे कर इंडिया गठबंधन को दिया जो मुसलमानों का है. ये पोस्टें बेहद भड़काऊ और कुछ तो इतनी भद्दी हैं कि उन का यहां जिक्र भी नहीं किया जा सकता. ये गालियां, दरअसल, उन दलितों के नाम थीं जिन्होंने हिंदू राष्ट्र का हिस्सा बनने से इनकार कर दिया. इन दलितों को पीढ़ियों से एहसास है कि इस हिंदू राष्ट्र में उन की हैसियत मवेशियों सरीखी रही है.
रही बात मुसलमानों की, तो उन्हें हमेशा की तरह कोसा गया. 95 फीसदी मुसलमानों ने इंडिया गठबंधन को वोट दिया तो कोई गुनाह नहीं कर दिया. इस बाबत उन पर दबाव भी तो हिंदुत्व के दुकानदारों ने ही बनाया था. नरेंद्र मोदी आम कट्टरवादी हिंदू की तरह नहीं बोले लेकिन मीटिंगों में उन्होंने बारबार राहुल गांधी को शहजादा कह कर संबोधित किया. इस तंज के पीछे उन की मंशा यही जताने की थी कि राहुल हिंदू नहीं हैं बल्कि मुसलमान, पारसी और ईसाई सहित न जाने क्याक्या हैं. इस खेल में इकलौती सुखद बात यही रही कि वोटर ने इस पर ध्यान नहीं दिया.
कट्टर हिंदूवादी मुद्दत तक बौखलाए भी रहेंगे क्योंकि ये नतीजे उन की दुकान, मंशा और मिशन पर पानी फेरते हुए हैं. अधिकतर लोगों ने लोकतंत्र को प्राथमिकता दी है, धर्मतंत्र को नहीं और जिन लोगों ने दी है उन में से भी कई यह राग अलापते नजर आ रहे हैं कि अच्छा हुआ जो भाजपा और मोदी को और बेलगाम होने का मौका नहीं मिला.
लेकिन क्या इस से धर्म और मनुवाद की राजनीति पर लगाम लग गई या लग जाएगी, इस सवाल का जवाब दे पाना किसी के लिए आसान नहीं. हां, एक हद तक यह फैसला अब नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू जैसे नेता के हाथों में होगा जिन की पार्टियों को हिंदुत्व के नाम या दम पर वोट नहीं मिले हैं. अपाहिज भाजपा इन 2 बैसाखियों के सहारे चलेगी, तो कहा जा सकता है कि वह कोई रिस्क नहीं उठाएगी.
तो फिर भाजपा अब क्या करेगी, यह देखना दिलचस्पी की बात होगी क्योंकि उसे तो मंदिरों और धर्म की राजनीति के अलावा कुछ आता नहीं. उसे एक नए भगवान जगन्नाथ मिल गए हों तो मुमकिन है आदिवासी बाहुल्य राज्य ओडिशा के मंदिर वह चमकाए, जगन्नाथ कौरीडोर बनवाए, कोणार्क के मंदिर का भी कायाकल्प कर दे, जिस से उड़िया ब्राह्मणों का भला हो और गरीब आदिवासी मोक्ष के चक्कर में आ कर उत्तरप्रदेश सहित देशभर के दलितों की तरह अभी अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी मारें और ज्यादा नहीं बल्कि 5-10 वर्षों बाद झींकता नजर आए कि इस से तो नवीन बाबू का राज ही भला था जिस में उन की जिंदगी में कोई खास बेचैनी या अशांति नहीं थी.
अब जो भी हो लेकिन यूपी के 2 लड़कों ने भाजपाई मंसूबों पर ग्रहण तो लगा ही दिया है. यह झटका जोर का ही है और लगा भी जोर से है जिस ने सवर्णों को भी सोचने के लिए मजबूर कर दिया है कि आखिर हमें हिंदू राष्ट्र के नाम पर मिला क्या है सिवा नफरत के जो दिलोदिमाग पर दीमक की तरह काबिज हो गई है. यह तबका भी महंगाई, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार से त्रस्त है लेकिन हिंदुत्व के चलते खामोश था. इस का रुख तय करेगा कि भविष्य की राजनीति का मिजाज कैसा होगा- मंदिरमसजिद वाला या अस्पतालों, सड़कों, बिजली, पानी और स्कूलकालेजों वाला.