एक महा देश जिस में हजारों जातियांउपजातियां बसती हैं और जिन के कट्टरपंथी धार्मिक दुकानदारों की अपनी चलती हो वहां सब को हांक कर एक से कानून के दायरे में ला बांधना भगवा सरकार का केवल स्टंट है.

समान नागरिक संहिता यानी सब के लिए एकजैसा कानून, एकजैसे कायदे, एकजैसे नियम. सुनने में यह बहुत अच्छा लगता है. समानता का बोध कराता है. मगर भारत जैसे महा देश में जहां अनेक धर्म और हजारों जातियांउपजातियां हैं, जिन के अपनेअपने नियम हैं, परंपराएं हैं, आस्थाएं हैं, रीतिरिवाज हैं. और इन सब से धर्म के दुकानदारों को मोटी आय हासिल होती है. ऐसे में क्या वे किसी एक कानून के दायरे में आने को तैयार होंगे? यह बड़ा सवाल है.

देश के बहुसंख्यक सनातनी क्या अपनी धार्मिक मान्यताओं और परंपराओं का त्याग कर उस कानून को अपनाएंगे, जिस कानून के तहत मुसलिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी, दलित, आदिवासी सभी को उन के समकक्ष खड़ा कर दिया जाएगा? क्या भेदभाव, छुआछूत, आडंबर, अंधविश्वास, जातपांत और गोत्रसमस्या से ग्रस्त हिंदू समाज के पंडित व ब्राह्मण, जिन का पेट धार्मिक कर्मकांडों के ऊपर ही पलता है, यह स्वीकार्य करेंगे कि आम सनातनी धार्मिक कुचक्रों से आजाद हो जाए और अदालतों में जा कर शादी करने लगे?

अगर समान नागरिक संहिता बन गई और लागू हो गई तो संघ और भाजपा के लवजिहाद का क्या होगा? हिंदू युवा वाहिनी, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू सेना आदि संगठनों से जुड़े लाखों कट्टरपंथियों के हाथों से तो सारे मुद्दे ही छिन जाएंगे. जब कानून के मुताबिक सब समान हो जाएंगे और विवाह 2 वयस्क नागरिकों की मरजी का विषय होगा तो हिंदूवादी संगठनों की क्या भूमिका बचेगी? फिर कोई ब्राह्मण कन्या दलित लड़के से कोर्ट मैरिज करे या मुसलमान लड़के से, यह उस का अधिकार होगा. इसलिए समान नागरिक संहिता का राग अलापने से पहले भाजपा अपने हिंदूवादी संगठनों से तो पूछ ले कि यह उन्हें स्वीकार्य है भी या नहीं और अगर वे कोई समान नागरिक संहिता मांग रहे हैं तो वह है क्या?

मोतीनगर, दिल्ली के एक छोटे से मंदिर में बैठने वाले पंडित शलभ मणि शर्मा की चिंता इस कारण बढ़ी हुई है कि समान नागरिक संहिता लागू होने से लोग दबाव में शादीब्याह के लिए कोर्ट का रास्ता अपनाने लगेंगे. इस से सनातनी रीतिरिवाजों पर बुरा असर पड़ेगा. लोग अपने धर्मसंस्कार ही भूल जाएंगे. रीतिरिवाज, व्रतकथा सब भूल जाएंगे. उन 7 वचनों का क्या होगा जो विवाह के वक्त दूल्हादुलहन को पंडित द्वारा दिलाए जाते हैं. फिर हमारे यहां तो शादी 7 जन्मों का संबंध है, यह बात दूल्हादुलहन को मजिस्ट्रेट तो बताएगा नहीं. वह तो एक कौन्ट्रैक्ट पर साइन भर करवाएगा और 7 जन्मों का बंधन एक कौन्ट्रैक्ट बन कर रह जाएगा जैसे संपत्ति के मामले में रजिस्टर्ड अनुबंध होता है.

संकट में पुरोहित

समान नागरिक संहिता को ले कर पंडेपंडितों में ही खलबली मची हुई है, अन्य धर्मों के ठेकेदारों की क्या बात करें. दरअसल हिंदू शादियां पंडित कराते आए हैं. संस्कारों और रीतिरिवाजों के नाम पर कईकई दिनों तक चलने वाली सनातनी शादी में एक मध्यवर्गीय परिवार के लाखों रुपए खर्च हो जाते हैं. हजारों रुपए तो शादी कराने वाले बिचौलिए को, फेरे कराने और मंत्र पढ़ने वाले पंडित को दिए जाते हैं, ऊपर से फल, मिठाई, कपड़े, उपहार अलग से मिलते हैं.

पंडितजी यज्ञ कुंड, समिधाएं, घी, हवन सामग्री, प्रसाद, फल, फूल, सुगंध आदि की लंबी लिस्ट जजमान को सौंपते हैं. यह समस्त सामग्री हजारों रुपए की होती है. जिस दुकान से आती है वहां से पंडितजी का कमीशन बंधा होता है. समान नागरिक संहिता तो इन के सारे धंधे चौपट कर देगी. सरकार को पहले पंडितों, पुरोहितों, ब्राह्मणों से इस विषय में विचारविमर्श करना चाहिए.

सनातन शादियों में तो पुरोहितों को बड़ा मान दिया जाता है. पुरोहित यज्ञ का ब्रह्मा कहलाता है. उस को दी जाने वाली दक्षिणा यज्ञ का मुख्य अंग होती है. पुरोहित का जीवन और उस का परिवार शादियों में मिलने वाली भारीभरकम दक्षिणा पर ही पलता है. यजमान की आर्थिक स्थिति का आकलन कर के पुरोहित अपनी दक्षिणा तय करते हैं. ली जाने वाली धनराशि हजारों से ले कर लाखों रुपयों तक होती है. अनेक स्थानों पर तो पुरोहित को कन्या या वर के पिता से दक्षिणा को ले कर लड़ते?ागड़ते भी देखा गया है.

पुरोहित का काम तो विवाह पूर्व ही शुरू हो जाता है. वर के धनी घर की कन्या ढूंढ़ने और कुंडली मिलान करने में ही वे हजारों रुपए यजमान से ऐंठ लेते हैं. फिर विवाह करवाने के बाद दक्षिणा अलग से मिलती है.

अब तो यह दक्षिणा भी सिर्फ रुपयों तक सीमित नहीं रही है, पंडितों को नकद दक्षिणा के साथसाथ महंगे उपहार भी दिए जा रहे हैं. इन उपहारों में फैंसी मोबाइल फोन, म्यूजिक सिस्टम, एलसीडी टीवी, एअरकंडीशनर और महंगे गैजेट से ले कर मोटरबाइक, कार या सब से बड़ा गिफ्ट, अपार्टमैंट तक शामिल हैं.

उपहारों की यह सूची यहीं खत्म नहीं होती. कुछ यजमान तो दहेज में मिलने वाली रकम का एक हिस्सा तक पंडितों को दे देते हैं और ऐसा वे अपनी मरजी से नहीं करते बल्कि पंडितों और यजमान के बीच तय एक डील के तहत उन्हें ऐसा करना होता है. यह डील होती है विवाह के लिए उचित वधू, जो साथ में ढेर सारा दहेज भी लाए, की तलाश करने की. यदि पंडित अपने यजमान के लिए धनी कन्या का रिश्ता ले आते हैं और विवाह तय हो जाता है तो यजमान तय डील के अनुसार दहेज का एक हिस्सा पंडितजी को देते हैं.

बैंडबाजा व बरात बंद

समान नागरिक संहिता जब सब को एक प्लेटफौर्म पर ले आएगी तो पंडितपुरोहितों के काम और सारे ढकोसले बंद हो जाएंगे. लोग कोर्ट मैरिज करेंगे तो मजिस्ट्रेट के सामने कागज पर दूल्हादुलहन और गवाहों के हस्ताक्षर होंगे और बस, चंद मिनटों में शादी हो जाएगी. न डोली न बरात, न हवन या आहुति, न डीजे न शामियाना, न धार्मिक कर्मकांड न वचनों का आदानप्रदान, न लोगों की भीड़, न दावत और न ही कोई ताम?ाम. अब जिस ने शादी ही कोर्ट के माध्यम से की होगी वह आगे के सभी संस्कारों, धार्मिक क्रियाकलापों से भी दूर हो जाएगा.

जिन धार्मिक कर्मकांडों में पंडितजी अग्रणीय भूमिका निभाते हैं जैसे, जन्मकुंडली बनाना, गोदभराई, बच्चे का नामकरण, छठी, अन्नप्राशन आदिआदि, समान नागरिक संहिता लागू होने से उन के तो पेट पर सीधे लात पड़ेगी तो सवाल यह कि बहुसंख्यक समुदाय और ब्राह्मण समाज क्या इस बदलाव के लिए तैयार होगा? समान नागरिक संहिता बनेगी तो उस में सिर्फ कोर्ट मैरिज ही मान्य हो सकती है क्योंकि हरेक धर्म के अथवा रीतिरिवाजों को समाप्त करना ही इन का उद्देश्य होगा. फिर न चर्च में शादी होगी, न मसजिद में न मंदिर में और न गुरुद्वारे में.

जिस देश की राजनीति आज सिर्फ धर्म, आस्था, परंपरा व रीतिरिवाज के ऊपर ही चल रही है, संघ और भाजपा, जो एक ओर धार्मिक आडंबरों और सांस्कृतिक परंपराओं व विरासतों को सहेजने व उन को पुनर्स्थापित करने में अपनी जान दिए दे रहे हैं, वहां समान नागरिक संहिता का ढिंढोरा पीटना घोर विरोधाभासी बात है. यह दोमुंहापन है. भारत के लोगों को धोखा देना है.

समान नागरिक संहिता से देश में क्या बदल जाएगा? कहा जा रहा है कि इस से शादी, तलाक, गोद लेना, संपत्ति का अधिकार जैसे मामलों में हर धर्म को एक ही प्लेटफौर्म पर लाया जाएगा. यानी सभी धर्मों के पर्सनल कानून समाप्त कर दिए जाएंगे और तमाम विवादित मामलों का फैसला देश की अदालतों में होगा.

यानी हिंदू आदमी अपनी पत्नी को तलाक देना चाहे या मुसलमान आदमी, दोनों की सुनवाई एक ही कानून के तहत होगी. यानी यूनिफौर्म सिविल कोड लागू होने से हर मजहब के लिए एकजैसा कानून आ जाएगा. जैसे हिंदुओं को

2 पत्नियां रखने की इजाजत नहीं वैसे मुसलिमों को भी 4 शादियों की इजाजत नहीं मिलेगी. जैसे हिंदू पतिपत्नी बिना अदालत से पूछे तलाक नहीं ले सकते वैसे ही मुसलिम पति भी 3 बार तलाक कह कर पत्नी से छुटकारा नहीं पा सकता. लेकिन क्या यह इतना आसान होगा? कैथोलिक ईसाई फिर तलाक दे सकेंगे, गर्भपात उन के लिए बंदिश नहीं होगी?

उदाहरण के लिए शाहबानो का केस देख लें. 36 साल बीतने के बाद भी क्या मुसलिम शादियों में तलाक के साथ मेहर वापसी और महिला को कोई गुजाराभत्ता न मिलने वाली स्थिति में तनिक भी परिवर्तन आया है? हालांकि देश में इस के लिए कानून है और मुसलिम महिला चाहे तो गुजारा भत्ता की याचिका के साथ कोर्ट जा सकती है, लेकिन क्या वह जाती है? नहीं. वह धर्म और धर्म के ठेकेदारों के दबाव में नहीं जाती. दूसरी तरफ ऐसे मामलों की संख्या भी नगण्य है जहां कोर्ट ने मुसलिम महिलाओं को गुजारा भत्ता दिलाया हो.

अब मान लें कि समान नागरिक संहिता लागू होने पर कोर्ट से मुसलिम औरत गुजारा भत्ता पाने की हकदार हो जाती है तो फिर सवाल मेहर पर उठेगा कि जब तलाक की हालत में गुजाराभत्ता देना पड़े तो मेहर का क्या औचित्य है? मेहर खत्म करने का मतलब है आप मुसलिम कानून से छेड़छाड़ करेंगे या उस को खत्म कर देंगे. मुसलिम औरत को मेहर के रूप में जो सुरक्षा मिलती है वह क्या हिंदू औरतों को भी मिलेगी?

शिगूफा छोड़ने में माहिर सरकार

सत्ता के नशे में चूर भाजपा की केंद्र सरकार यह भूल गई है कि मामला सिर्फ मुसलमान का नहीं है, समान नागरिक संहिता लागू होगी तो सिख, पारसी, जैन, बौद्ध, दलित, आदिवासी सब पर लागू होगी. सभी में धर्म के ठेकेदार बैठे हैं जो अपने नियमकानूनों में बदलाव के खिलाफ होंगे तो समान नागरिक संहिता का ढिंढोरा पीटने से पहले क्या इस की गहराई में जा कर यह देखने की कोशिश नहीं होनी चाहिए कि बदलाव किस हद तक स्वीकार्य होगा? होगा भी या नहीं?

हर धर्म के नेताओं से चर्चा करने, उन्हें मनाने, उन्हें समाधान देने, समाधान स्वीकार होने आदि में कितना लंबा वक्त लगेगा, इस का विचार किए बिना चुनावी माहौल में वोट पाने के लिए एक शिगूफा छोड़ देना सिर्फ स्टंट है.

मुसलमान के कंधे पर राजनीति की बंदूक रख कर चलाने वाली भाजपा को यह सम?ाना चाहिए कि बीते 2 दशकों में मुसलिम समाज में भी काफी बदलाव आ चुके हैं. 4 शादियां और 40 बच्चे जैसी अतिशयोक्तियों को चुनाव के समय उछालने वाले यह बताएं कि हिंदुस्तान में कुल कितने मुसलिम मर्दों ने 4 शादियां की हैं और 40 बच्चे पैदा किए हैं? ऐसा एक भी उदाहरण उन्हें ढूंढ़ने पर भी नहीं मिलेगा. पढ़ालिखा मुसलमान 2 बच्चों से आगे नहीं बढ़ता है.

हाल ही में जबलपुर में मुसलिम धर्मगुरुओं की बैठक में मुसलिम समाज से आह्वान किया गया है कि शरिया कानून के तहत मुसलिम समाज में शादीविवाह भी बेहद सादगी के साथ होने चाहिए, जिस में परिवार के सदस्य मौजूद रहें और दोनों पक्ष सहमति से परिजनों के साथ सहभोज कर विवाह संपन्न कराएं.

मुसलिम धर्मगुरुओं ने कहा कि मुसलिम समुदाय में शरिया कानून के तहत शादियों में बैंडबाजा और दूल्हादुलहन का नाचनागाना वर्जित है. यानी इसे शरिया के खिलाफ माना गया है. बावजूद इस के, लोग आधुनिकता और दूसरों के साथ प्रतिस्पर्धा के चक्कर में शादी, निकाह में फुजूलखर्ची कर रहे हैं.

बीते कई वर्षों में मुसलिम शादियों में सामूहिक भोज, बैंडबाजा, डीजे और अन्य चीजों का चलन शुरू हो गया है. इस में लाखों रुपए खर्च होते हैं. इन सब के बिना भी शादियां हो सकती हैं. ऐसे में फुजूलखर्च न कर के परिवार की संपत्ति को बचाया जा सकता है और नवविवाहित जोड़े के भविष्य के लिए उस पैसे का उपयोग किया जा सकता है.

मौलाना मुशाहिद रजा ने कहा कि कई बार दूसरे से प्रतिस्पर्धा के चक्कर में लोग कर्ज ले कर शादियां करते हैं. परिवार का मुखिया कर्ज के बो?ा के तले दब जाता है. बैठक में अनेक मुसलिम धर्मगुरुओं ने अपने सु?ाव दिए हैं.

जब समान नागरिक संहिता की बात आती है तो यह भी ध्यान देना होगा कि निचली जातियों, आदिवासियों, दलितों, मुसलिमों आदि में गोत्र आदि को मानने का चलन नहीं है, इस का चलन सिर्फ हिंदू सनातनी समाज में है. भारतीय कानून के मुताबिक भी कोई वयस्क एकाकी पुरुष किसी वयस्क एकाकी स्त्री से विवाह करने के लिए आजाद है तो पहले संघ और भाजपा को देश के बहुसंख्यक सनातनियों से यह बात पूछनी चाहिए कि क्या वे इस बात को स्वीकार करेंगे कि शादी की इच्छा रखने वाले अपने गोत्र में या दूसरी जाति अथवा धर्म में जा कर रजिस्टर्ड मैरिज कर लें? अभी तो धर्म का डर दिखा कर युवाओं को काफी हद तक कंट्रोल कर लिया जाता है.

कैसे आएंगे एक प्लेटफौर्म पर

दक्षिण भारत में हिंदू समाज के एक तबके में मामा और भांजी के बीच शादी की प्रथा है. अगर कोई हरियाणा में ऐसा करे तो दोनों की हत्या कर दी जाएगी. ऐसी सैकड़ों जातियां हैं जिन के शादी के तरीके और नियम अलगअलग हैं.

समान नागरिक संहिता लाने से पहले क्या भारत की हर जाति और धर्म की परंपराओं, आस्थाओं, रीतिरिवाजों, रहनसहन, आर्थिक स्थिति का गहराई से आकलन करने की जरूरत नहीं है? और क्या यह काम इस महादेश में कुछ महीने या साल में पूरा होना संभव है?

रौनक मैसी रोमन कैथलिक हैं. वे कहते हैं, ‘‘हमारे यहां तलाक की कोई गुंजाइश नहीं है. शादी हमारे यहां जन्मजन्मांतर का बंधन है. अगर यूनिफौर्म सिविल कोड लागू हुआ तो हमारे लोगों में धर्म की सीख खत्म हो जाएगी और तलाक लेने की प्रवृत्ति बढ़ेगी.’’

दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सदस्य राणा परमजीत सिंह कहते हैं, ‘‘हमारी यह बहुत पुरानी मांग रही है कि हमें हिंदू सक्सेशन एक्ट के अधीन न लाया जाए. हमारे सब से पहले गुरु गुरुनानक देवजी ने कभी जनेऊ नहीं पहना था. हम इस संघर्ष में लगे हैं कि हमें अलग धर्म के रूप में मान्यता मिले, मगर हमारे मामलों का निबटारा हिंदुओं के लिए बनाए गए कानून के तहत किया जाता है. हमारा पूरा सिस्टम गुरुग्रंथ साहिब के अनुसार चलता है और आगे भी चलेगा. हमारे यहां तलाक नाम की चीज नहीं है. हम चाहते हैं कि सरकार बातचीत करे, न कि कोई कानून बना कर किसी पर जबरदस्ती थोप दे.’’

अधिवक्ता रवि वर्मा कुमार कर्नाटक के स्कूलकालेज में हिजाब पर उठे बवाल पर कहते हैं, ‘‘अकेले हिजाब का ही जिक्र क्यों है जब दुपट्टा, चूडि़यां, पगड़ी, क्रौस और बिंदी जैसे सैकड़ों धार्मिक प्रतीक चिह्न लोगों द्वारा रोजाना पहने जाते हैं. बिंदी लगाने वाली लड़की को तो आप क्लास से बाहर नहीं भेज रहे, चूड़ी पहने लड़की को भी नहीं, सिंदूर लगाने वाली को भी नहीं, क्रौस पहनने वाली ईसाइयों को भी नहीं, केवल मुसलिम लड़कियों को ही क्यों? यह संविधान के आर्टिकल 15 का सरासर उल्लंघन है.’’

गौरतलब है कि ‘समान नागरिक संहिता’ जिस को ले कर भाजपा इतना शोर मचा रही है, कोई नया विषय नहीं है. ऐसा लग रहा है जैसे भाजपा देश के नागरिकों के बीच समानता लाने के लिए प्रयत्नशील है, जबकि इस मुददे पर संविधान निर्माताओं ने देश का संविधान लिखते समय खूब विमर्श किया था.

भारतीय संविधान की ड्राफ्ट कमेटी के अध्यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा की बहसों में समान नागरिक संहिता के पक्ष में अपनी बात मजबूती से रखी थी. हमारे संविधान में समान नागरिक संहिता को लागू करना अनुच्छेद-44 के तहत राज्य की जिम्मेदारी के तौर पर दर्ज भी है. बावजूद इस के बीते 7 दशकों में इस पर कोई कार्य इसलिए नहीं हो पाया क्योंकि एक बहुलतावादी देश जहां अनेकानेक धर्मों, संप्रदायों, जाति, वर्ण और क्षेत्र मौजूद हैं, उन के बीच समानता के बिंदु खोजना एक दुष्कर कार्य है. इस पर जो होहल्ला चुनाव के दौरान भाजपा मचा रही है, बता दें कि उस के पास भी अभी तक इस का कोई प्रारूप या ड्राफ्ट नहीं है. यह हल्ला बिना ड्राफ्ट के ही मचाया जा रहा है.

बस चुनावी चोंचला

हाल ही में हुए 5 राज्यों में विधानसभा चुनावों में भी भाजपा ने ‘समान नागरिक संहिता’ लाने का खूब बढ़चढ़ कर प्रचार किया. भाजपा नेता हर चैनलअखबार में कह रहे थे, ‘‘इस से देश के हर नागरिक को समान अधिकार हासिल हो जाएगा, देश में समानता आ जाएगी.’’ हालांकि समानता का अधिकार तो देश के संविधान ने पहले ही सब को दिया हुआ है लेकिन भाजपा नेताओं के मुंह से सुन कर लग रहा था जैसे भाजपा ही देश में समानता लाएगी. गरीब, अनपढ़, अछूतों का सीना यह सुन कर फूल जाता है कि उन को भी एक ब्राह्मण के बराबर का दर्जा मिल जाएगा, पर क्या संघ और भाजपा की सचमुच ऐसा करने की मंशा है? क्या एक दलित को घोड़ी पर बैठ कर बैंडबाजे के साथ अपनी बरात निकालते वह देख सकेगी?

यह ढिंढोरा बस, चुनाव समाप्ति तक ही पीटा गया. इस के द्वारा सिर्फ यह दिखाने की कोशिश की गई कि इस से मुसलमान को 4 शादियों से रोका जा सकेगा. ऐसा संदेश दे कर उत्साहित हिंदुओं के वोटों से अपनी ?ाली भरने की भाजपा की एक चाल थी. दरअसल मोदी सरकार को नएनए शिगूफे छोड़ने की लत लगी हुई है.

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