बीती 28 मार्च तक पाकिस्तान के तब के प्रधानमंत्री इमरान खान और उन की गठबंधन वाली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की स्क्रिप्ट जब सेना और संयुक्त विपक्ष लगभग पूरी तरह लिख चुके थे, तब इसी दिन पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया था. फैसले में कहा गया था कि अल्पसंख्यकों के प्रति कट्टर व्यवहार से पाकिस्तान की गलत छवि पेश हो रही है. कट्टर व्यवहार ने पाकिस्तानियों पर असहिष्णु, हठधर्मी और कठोर होने का लेबल चिपका दिया है.
मामला पाकिस्तान के लिहाज से नया नहीं था. अल्पसंख्यकों में शुमार होने वाले अहमदिया समुदाय के लोगों ने लाहौर हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी जिस में उन में से कुछ को ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था क्योंकि उन्होंने अपने उपासना स्थल की डिजाइन की थी और उस की भीतरी दीवारों पर इसलामिक प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल किया था.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सैयद मंसूरी अली शाह ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि देश के गैरमुसलमानों यानी अल्पसंख्यकों को उन के अधिकारों से वंचित करना और उन्हें उन के उपासना स्थलों की चारदीवारी में कैद करना लोकतांत्रिक संविधान के खिलाफ और हमारे इसलामिक गणराज्य की भावनाओं के प्रतिकूल है.
गौरतलब है कि साल 1984 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जियाउल हक की हुकूमत के दौरान सरकार ने अहमदिया समुदाय के उपासना स्थलों को मसजिद कहने और अनाज देने को अपराध करार दिया था जिस की सजा 3 साल की कैद और जुर्माना था. इसी आधार पर अहमदिया मुसलमानों को ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था.