बीती 28 मार्च तक पाकिस्तान के तब के प्रधानमंत्री इमरान खान और उन की गठबंधन वाली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव की स्क्रिप्ट जब सेना और संयुक्त विपक्ष लगभग पूरी तरह लिख चुके थे, तब इसी दिन पाकिस्तान सुप्रीम कोर्ट का एक अहम फैसला आया था. फैसले में कहा गया था कि अल्पसंख्यकों के प्रति कट्टर व्यवहार से पाकिस्तान की गलत छवि पेश हो रही है. कट्टर व्यवहार ने पाकिस्तानियों पर असहिष्णु, हठधर्मी और कठोर होने का लेबल चिपका दिया है.

मामला पाकिस्तान के लिहाज से नया नहीं था. अल्पसंख्यकों में शुमार होने वाले अहमदिया समुदाय के लोगों ने लाहौर हाईकोर्ट के उस फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी जिस में उन में से कुछ को ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था क्योंकि उन्होंने अपने उपासना स्थल की डिजाइन की थी और उस की भीतरी दीवारों पर इसलामिक प्रतीक चिह्नों का इस्तेमाल किया था.

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सैयद मंसूरी अली शाह ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि देश के गैरमुसलमानों यानी अल्पसंख्यकों को उन के अधिकारों से वंचित करना और उन्हें उन के उपासना स्थलों की चारदीवारी में कैद करना लोकतांत्रिक संविधान के खिलाफ और हमारे इसलामिक गणराज्य की भावनाओं के प्रतिकूल है.

गौरतलब है कि साल 1984 में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति जनरल जियाउल हक की हुकूमत के दौरान सरकार ने अहमदिया समुदाय के उपासना स्थलों को मसजिद कहने और अनाज देने को अपराध करार दिया था जिस की सजा 3 साल की कैद और जुर्माना था. इसी आधार पर अहमदिया मुसलमानों को ईशनिंदा का आरोपी बनाया गया था.

अहमदिया समुदाय का इतिहास और धार्मिक आंदोलन एक दिलचस्प और अलग बात है लेकिन संक्षेप में यह सम?ा लेना ही काफी है कि वे हजरत मुहम्मद को आखिरी पैगंबर नहीं मानते. इसलिए बाकी मुसलमान उन्हें मुसलमान होने की मान्यता नहीं देते बल्कि उन्हें काफिर करार देते हैं.

सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले पर पाकिस्तान से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई थी. इसलिए नहीं कि जिन की प्रतिक्रियाओं पर गौर किया जाता वे सब के सब सियासी उठापटक, गुणाभाग और जोड़तोड़ में व्यस्त थे बल्कि इसलिए कि यह धर्म से जुड़ा एक संवेदनशील मामला था जिस पर कुछ कहना वक्ती तौर पर एक तरह का दुस्साहस ही होता और गरमागरमी के माहौल में जोखिम कोई नहीं उठाना चाहता था. इमरान खान को सत्ता बचाए रखने और विपक्षियों को सत्ता हथियाने की पड़ी थी, लिहाजा, सिरे से सब खामोश रहे.

लेकिन जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने 7 अप्रैल के अपने फैसले में यह कहा कि अविश्वास प्रस्ताव पर मतदान होना ही चाहिए क्योंकि संविधान के तहत नैशनल असैंबली के डिप्टी स्पीकर को यह अधिकार नहीं था तो विपक्ष जश्न मनाता नजर आया.

गौरतलब है कि संयुक्त विपक्ष ने इमरान सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश करते हुए 342 में से 199 सांसद अपने साथ होने का दावा किया था और इमरान खान के साथ 141 सांसद होने की बात कही थी. सुप्रीम कोर्ट ने इमरान खान के 3 अप्रैल तक लिए गए फैसलों को रद्द करते हुए यह भी कहा कि प्रधानमंत्री को राष्ट्रपति को विधानसभा भंग करने की सलाह देने का अधिकार नहीं है तो विपक्षियों के चेहरे और खिल उठे और वे लोकतंत्र व संविधान की दुहाई देते नजर आए.

पाकिस्तान पीपल्स पार्टी के अध्यक्ष पूर्व प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो के बेटे बिलावल भुट्टो जरदारी ने फैसले के तुरंत बाद कहा, ‘‘यह संविधान और लोकतंत्र की जीत है. इस जीत से हम लोकतंत्र की बहाली, मीडिया की आजादी की बहाली और लोगों के सशक्तीकरण की तरफ बढ़ेंगे.’’

प्रधानमंत्री पद के तगड़े दावेदार पीएमएल-एन (पाकिस्तान मुसलिम लीग – नवाज) के मुखिया नैशनल असैंबली में विपक्ष के नेता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाई शाहबाज शरीफ ने कहा, ‘‘पाकिस्तान का जो संविधान है, न सिर्फ वह बल्कि पूरा देश ही इस फैसले की वजह से बच गया है.’’ उन की तेजतर्रार भतीजी नेत्री मरियम नवाज ने कहा, ‘‘संविधान की सर्वोच्चता बहाल होने के साथ ही पूरे देश को बधाई, जिन लोगों ने भी संविधान का उल्लंघन किया उन का हिसाब बाकी है.’’

इन दिग्गजों को अहमदिया समुदाय से ताल्लुक रखते फैसले पर लोकतंत्र और संविधान की याद क्यों नहीं आई, इस पर बहस की कोई गुंजाइश नहीं क्योंकि न केवल ये खुद, बल्कि इमरान खान भी शुद्ध दक्षिणपंथी हैं जिन्हें न तो पाकिस्तान की जनता की परेशानियों से कोई लेनादेना है न महंगाई, गिरती अर्थव्यवस्था की कोई चिंता है, न जीडीपी से कोई सरोकार है, न बढ़ती बेरोजगारी से कोई लेनादेना है और फिर युवाओं और महिलाओं की बदहाली व धार्मिक असहिष्णुता की तो बात करना ही बेकार है.

कट्टरवाद इन सभी के संस्कारों में है. ये और इन के पूर्वज भी मुल्लामौलवियों व इमामों के इशारों पर नाचते रहे हैं. पाकिस्तान में जो सत्ता परिवर्तन की अफरातफरी मची उस में ये लोग यानी विपक्ष भी इमरान खान से कम गुनाहगार नहीं जिन्हें लोकतंत्र और संविधान तभी याद आते हैं जब सत्ता चाहिए होती है.

पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास में वहां न लोकतंत्र कभी था, न अभी है और न आगे कभी होगा, लोकतंत्र का खयाल ही बचकाना है जिसे सम?ाने के लिए पीछे चलें तो साफ दिखता है कि-

कौन सा लोकतंत्र…

पाकिस्तान का जन्म जिन हालात में हुआ था वे कतई उस के अनुकूल नहीं थे. आजादी के 9 वर्षों बाद तक तो वहां कोई संविधान ही नहीं था. 1956 में पाकिस्तान गणतंत्र बना और राष्ट्रपति पद निर्मित हुआ. रिपब्लिकन पार्टी के मुखिया इस्कंदर मिर्जा पहले राष्ट्रपति बने जिन्होंने अय्यूब खान को आर्मी का चीफ नियुक्त किया. तब बंटवारे के जख्म ताजा थे लेकिन साथ में आजाद होने का जश्न भी मन रहा था.

प्रथम ग्रासे मच्छिका वाली कहावत सटीक बैठी और नएनवेले पाकिस्तान में तख्तापलट का खेल शुरू हो गया जिस का हालिया एपिसोड 10 अप्रैल को भी देखने में आया. अपनी नियुक्ति के तेरहवें ही दिन अय्यूब खान ने इस्कंदर मिर्जा सरकार का तख्ता पलट दिया और देश में मार्शल लौ लागू कर दिया. यह आजाद पाकिस्तान का पहला सैन्य विद्रोह था जिस में तब के युवा व चर्चित नेता जुल्फिकार अली भुट्टो ने अय्यूब खान का दिल से साथ दिया था. कहा यह गया था कि इंसाफ हो गया क्योंकि इस्कंदर मिर्जा ने प्रधानमंत्री फिरोज खान नून को गद्दी से उतारा था.

बतौर इनाम, जुल्फिकार अली भुट्टो को विदेश मंत्री बनाया गया, लेकिन इस महत्त्वाकांक्षी नेता की पटरी अय्यूब खान से बैठी नहीं और उन्होंने 1966 में इस्तीफा दे दिया. बेलगाम अय्यूब खान ने 9 साल में अवाम के लिए तो कुछ नहीं किया लेकिन सेना को इतना ताकतवर बना दिया कि गणराज्य और लोकतंत्र मजाक बन कर रह गए. सेना ने पाकिस्तान को जब चाहा, जहां चाहा, जैसे चाहा तबीयत से रौंदा तो लोग हाहाकार कर उठे. जिस सीढ़ी और जिस तरीके से अय्यूब खान ने पाकिस्तान का तख्त हासिल किया था वह उन्हें भारी पड़ा. उन के चहेते याह्या खान ने उसी तर्ज पर उन का तख्ता पलट दिया और राष्ट्रपति बन बैठे.

याह्या खान अव्वल दर्जे के शराबी और ऐयाश नेता थे. शराब की लत उन्हें कुछ इस कदर थी कि तत्कालीन चीफ औफ स्टाफ जनरल अब्दुल हमीद खान ने सेना के आला अफसरों को हिदायत दे रखी थी कि रात 10 बजे के बाद याह्या खान का कोई हुक्म न माना जाए.

1971 के युद्ध के 10 दिनों पहले शराब के नशे में धुत याह्या खान ने एक अमेरिकी मैगजीन ‘न्यू यौर्कर’ के पत्रकार बौब शेपली को बता दिया था कि पाकिस्तान भारत पर हमला करेगा. इस लड़ाई में पाकिस्तान को करारी शिकस्त मिली और उस के 2 टुकड़े हो गए. नए देश को बंगलादेश के नाम से जाना गया जो पहले पूर्वी पाकिस्तान हुआ करता था.

इस वक्त तक पाकिस्तान में गृहयुद्ध और जातीय संघर्ष ही होते रहे थे और सेना बेरहमी से इन्हें कुचलती रही, जिस में लाखों बेगुनाह मारे गए. अब तक पाकिस्तान के आम लोग भी यह सम?ाने लगे थे कि सेना सिर्फ संहार कर सकती है जिस से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, इसलिए मांग यह उठने लगी कि एक चुनी गई सरकार ही देश चलाए जो कि पाकिस्तान में आसान काम नहीं रह गया था.

इसी दबाव के चलते साल 1973 में एक कानून के तहत पाकिस्तान एक संसदीय गणतंत्र बना. जुल्फिकार अली भुट्टो ने प्रधानमंत्री बनने के लिए राष्ट्रपति पद से इस्तीफा दे दिया. उन की बनाई पाकिस्तान पीपल्स पार्टी ने 1970 के चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल किया था. पीपीपी का यह फलसफा खूब पसंद किया गया था कि इसलाम हमारा विश्वास है, लोकतंत्र हमारी नीति है और समाजवाद हमारी अर्थव्यवस्था है.

जिया ने भी ढाया कहर

सिंधी समुदाय के जुल्फिकार अली भुट्टो ने पूरी कोशिश की कि पाकिस्तान के बारे में दुनिया की राय और नजरिया बदले. एक हद तक ऐसा होने भी लगा था लेकिन उन की उदारवादी इमेज कट्टर सेना से बरदाश्त नहीं हो रही थी. वे खुद को पूरी तरह साबित कर पाते, इस के पहले ही सेनाध्यक्ष जियाउल हक ने न केवल उन का तख्ता पलट दिया बल्कि मार्शल लौ लागू करते उन्हें फांसी पर भी चढ़ा दिया. तब उन की बेटी बेनजीर भुट्टो 26 साल की थीं. ये वही जिया थे जिन्हें सेना प्रमुख बनाने के लिए भुट्टो ने तमाम कायदेकानून और नियम दरकिनार कर दिए थे क्योंकि वे उन की खुशामद करते रहते थे.

जियाउल हक अय्यूब खान के भी उस्ताद निकले. उन्होंने मीडिया के साथसाथ नागरिक स्वतंत्रता पर भी अंकुश लगा दिया. और तो और, 1979 में सभी राजनीतिक दलों को भी प्रतिबंधित कर दिया. पाकिस्तान को पूरी तरह कट्टर इसलामिक देश बनाने के लिए उन्होंने शरिया कानून भी लागू कर दिया.

उन का मानना था कि अगर पाकिस्तान इसलामिक देश नहीं है तो उस के बनने के माने क्या. इसी वक्त में पाकिस्तान में तालिबानियों का उदय हुआ. पूरी तरह अमेरिकी इशारे पर नाचते इस सैन्य तानाशाह ने सोवियत रूस और अफगानिस्तान के युद्ध में रूस को बाहर खदेड़ा. इस काम में अमेरिका ने उन की भरपूर मदद की. मीडिया घरानों को हुक्म था कि वे कोई भी खबर या रिपोर्ट पहले सेना के अफसरों को पढ़ाएंदिखाएं फिर छापें या दिखाएं. इस दौरान टीवी और रेडियो प्रसारण भी सेना के नियंत्रण में था तो जिस लोकतंत्र की बात भुट्टो करते रहे थे, महज 3 साल में ही उस की अर्थी निकाल दी गई.

पूरे 11 साल अल्पसंख्यकों पर बेहताशा जुल्म सेना और कट्टरवादियों ने ढाए. राजनीतिक दलों के नेता नजरबंद कर लिए गए थे या फिर खुद ही घरों में कैद हो गए थे. जो भी सैन्य शासन की मुखालफत करता था उसे जेल में ठूंस दिया जाता था. जिया के शासनकाल के दौरान सब से ज्यादा कहर अल्पसंख्यकों पर ढाए गए. इन में अहमदियों के अलावा हिंदू, पंजाबी, ईसाई और बंगाली व सिंधी भी शामिल हैं. धर्म परिवर्तन भी बड़ी तादाद में हुआ.

जियाउल हक ने ईशनिंदा कानून को और कड़ा कर दिया था, इसलिए अल्पसंख्यकों का पाकिस्तान में रहना दुश्वार हो गया था. एक तरह से यह उन के लिए इसलाम कुबूल कर लेने का फरमान था. नहीं तो उन्हें भी जेल में ठूंस दिया जाता था. 28 मार्च के फैसले में सुप्रीम कोर्ट दरअसल, जियाउल हक को ही ?ांक रहा था.

जिया का हश्र भी वही हुआ जो आमतौर पर निरंकुश तानाशाहों का होता आया है.

17 अगस्त, 1988 को एक विमान हादसे में वे कई साथियों सहित मारे गए. यह हादसा और मौत दोनों रहस्मय थे और किसी साजिश की देन थे जिस का खुलासा अभी तक कोई जांच नहीं कर पाई.

बेनजीर भुट्टो ने अपनी आत्मकथा ‘द डौटर औफ ईस्ट’ में लिखा है कि जिया की मौत एक ईश्वरीय कारनामा था. यह और बात है कि आईएसआई के तत्कालीन प्रमुख हमीद गुल इसे अमेरिकी साजिश करार देते रहे थे. हकीकत कुछ भी हो लेकिन तब तक पूरी दुनिया जियाउल हक से आजिज आ चुकी थी और खुद पाकिस्तान भी इस का अपवाद नहीं था. वहां भी उन्हें लोकतंत्र का विलेन कहा जाने लगा था.

ये भी रहे फ्लौप

लंबे वक्त के तानाशाही शासन से मुक्त हुए पाकिस्तान में 1988 में आम चुनाव हुए जिस में पीपीपी विजयी हुई और बेनजीर भुट्टो प्रधानमंत्री बनीं. उन्हें अपने पिता की फांसी से उपजी हमदर्दी का भी फायदा मिला था. वे किसी भी इसलामिक देश की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं. बेनजीर ने भी समाजवाद और उदारवाद का राग अलापा, लेकिन परिवारवाद और भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते राष्ट्रपति गुलाम इशाक खान ने उन्हें बर्खास्त कर दिया. फिर 1990 के आम चुनाव में पहली बार उभरते राजनेता पीपल्स मुसलिम लीग के मुखिया मियां मोहम्मद नवाज शरीफ प्रधानमंत्री चुने गए. लेकिन 1993 में गुलाम इशाक खान ने फिर नैशनल असैंबली को भंग कर दिया.

1993 के चुनाव में एक बार फिर बेनजीर भुट्टो की वापसी हुई लेकिन हुआ वही जो अब तक होता आ रहा था. 1996 में भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते एक बार फिर उन्हें पद से हाथ धोना पड़ा. लेकिन इस दौरान दुनियाभर में उन की पूछपरख बढ़ी और उन्हें एक लोकप्रिय नेता मान लिया गया था. उन के पति आसिफ अली जरदारी की इमेज काफी खराब हो चुकी थी, जिन्हें भ्रष्टाचार के आरोपों में जेल की सजा भी भुगतनी पड़ी थी. 1999 में उन्होंने पाकिस्तान छोड़ दिया और दुबई जा कर रहने लगीं, जिस का फायदा नवाज शरीफ को मिला और वे फिर प्रधानमंत्री चुने गए पर अपना यह कार्यकाल भी वे पूरा नहीं कर पाए.

नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो के बीच ‘आया राम गया राम’ का खेल चलता रहा. एक तरह से यह कट्टरवाद और सीमित उदारवाद की लड़ाई थी, जिस में नवाज शरीफ भारी पड़ते रहे क्योंकि वे भी जियाउल हक के छोड़े कामों को अंजाम देते रहे थे. इसलाम को थोपने में कोई कसर उन्होंने भी नहीं छोड़ी. अब तक भी पाकिस्तान की कोई पहचान नहीं बन पाई थी (न अभी है). आजादी के 75 साल बाद भी पाकिस्तान यह तय नहीं कर पा रहा है कि वह दक्षिण एशिया का हिस्सा है या मध्यपूर्व का. पाकिस्तानी अभी भी यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि कौन सी पहचान उन के लिए मुफीद होगी सऊदी अरब और ईरान जैसी कट्टरवादी या फिर मिस्र और जौर्डन जैसी उदारवादी.

इसी असमंजस का शिकार पाकिस्तान के तमाम शासक रहे. इमरान खान इस का अपवाद साबित नहीं हुए जो उन की विदाई की वजह भी बना. बहरहाल, नवाज शरीफ ने वही गलती दोहराई थी जो याह्या खान ने की थी. उन्होंने भी कई काबिल अफसरों को दरकिनार करते परवेज मुशर्रफ को सेना की कमान सौंप दी थी. कारगिल युद्ध की आड़ ले कर मुशर्रफ ने भी नवाज शरीफ को सत्ता से बेदखल कर दिया था. इन दोनों के बीच भी शह और मात का खेल चलता रहा था जिस में परवेज ने नवाज की बाजी उलट दी थी.

2008 तक पाकिस्तान की बागडोर उन के हाथ में रही. इस के बाद पाकिस्तान राजनीतिक अस्थिरता का शिकार होता रहा. यूसुफ रजा गिलानी ने 2008 में प्रधानमंत्री पद संभाला लेकिन कार्यकाल वे भी पूरा नहीं कर सके. भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पद से हटा दिया था.

2013 के आम चुनाव में नवाज शरीफ तीसरी बार प्रधानमंत्री बने और तीसरी बार भी कार्यकाल पूरा नहीं कर पाए. साल 2017 में पनामा पेपर्स मामले में नाम आने पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें पद से हटा दिया और आरोपी पाए जाने पर 10 साल जेल की सजा भी सुना दी. जमानत पर रिहा हो कर इलाज के लिए लंदन चले गए नवाज शरीफ को 10 अप्रैल की तारीख शुभ संदेश ले कर आई क्योंकि इमरान खान अविश्वास प्रस्ताव में हार गए थे और उन के भाई शाहबाज शरीफ नए प्रधानमंत्री चुन लिए गए थे. इस तरह उन की वतन वापसी की राह भी आसान हो गई.

धार्मिक पाखंड ले डूबे

2 दशकों तक शानदार क्रिकेट खेलने वाले इमरान खान की पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी यानी पीटीआई ने 2018 के आम चुनाव में अच्छा प्रदर्शन किया था, लेकिन स्पष्ट बहुमत उसे भी नहीं मिला था, इसलिए उसे सरकार बनाने के लिए छोटे दलों का सहारा लेना पड़ा था. अब तक जनता भुट्टो और शरीफ परिवारों से नाउम्मीद भी हो चुकी थी. जनता के गुस्से को भुनाने के लिए इमरान ने धर्म और तंत्रमंत्र का सहारा लिया.

उन की तीसरी पत्नी बुशरा बीबी खान पाकिस्तान की मशहूर ज्योतिषी और तांत्रिक हैं. इमरान उन के संपर्क में आए और प्रधानमंत्री बन जाने की ख्वाहिश जताई तो बुशरा ने कुछ दिन चक्कर कटवाने के बाद कहा कि आप मु?ा से शादी कर लो तो यह इच्छा पूरी हो जाएगी. आम और खास दोनों तरह के पाकिस्तानी यह मानते हैं कि बुशरा रूहानी ताकतों से लैस हैं और उन के पास 2 जिन्न हैं.

बात या शर्त, अंधा क्या चाहे, फिर यहां तो जन्नत सी हूर मिल रही थी. बुशरा की खूबसूरती की मिसाल ढूंढे़ से नहीं मिलनी. किशोर उम्र में शर्मीले नौजवानों की जमात में शुमार किए जाने वाले इमरान को क्रिकेट के वक्त से ही रोमांस और शादियों का चस्का लग गया था. सो, तुरंत उन्होंने हां कर दी.

बुशरा से शादी के पहले उन्होंने ब्रिटेन की सामाजिक कार्यकर्ता जेमिमा गोल्ड स्मिथ से शादी की थी. 9 साल बाद दोनों में तलाक हो गया था. जेमिमा को इसलामिक प्रतिबंध रास नहीं आ रहे थे. हालांकि इमरान के कहने पर उन्होंने इसलाम कुबूल लिया था और अपना नाम भी बदल लिया था. इमरान ने दूसरी शादी पेशे से पत्रकार रहम खान से की थी जो सिर्फ 9 महीने चल पाई थी. सैक्सी कहे जाने वाले खूबसूरत शख्सियत के मालिक इमरान उन मर्दों में से हैं जो औरत को पांव की जूती और उपभोग की चीज सम?ाते रहे हैं, इसलिए इन दोनों से उन का तलाक भी हो गया था.

स्त्री विरोधी मानसिकता वाले इमरान ने पिछले साल जून में महिलाओं के पहनावे को ले कर एक इंटरव्यू में कहा था, ‘‘अगर कोई महिला बहुत कम कपड़े पहन रही है तो इस का क्या असर होगा, इस का पुरुषों पर असर होगा जब तक कि वे रोबोट नहीं हैं.’’ इस चर्चित और विवादास्पद इंटरव्यू में उन्होंने इसलामिक संस्कृति की दुहाई दी थी. तब साफ हो गया था कि उन की नजर भी देश के बिगड़ते हालात पर कम, महिलाओं के कपड़ों पर ज्यादा है.

प्रधानमंत्री बनने के 2 साल बाद बुशरा से भी उन की खटपट होने लगी और दोनों अलग रहने लगे. अपने प्रधानमंत्री बनने का श्रेय बुशरा के काले जादू को देने वाले इमरान ने चुनाव प्रचार में अपनी सरकार को ‘रियासत ए मदीना’ यानी मदीने की सरकार की तरह चलाने का वादा जनता से किया था. यह वादा भारत के उन नेताओं जैसा था जो रामराज्य का लौलीपौप दिखा कर सत्ता पर काबिज हो बैठे हैं. उन्होंने पाकिस्तान को कर्जमुक्त बनाने की बात भी कही थी. लेकिन कट्टरवाद उन के कार्यकाल में भी खूब फलाफूला. इस मसले पर वे नवाज शरीफ पर भी भारी पड़े. अविश्वास प्रस्ताव के दौरान भी बुशरा के काले जादू की खबरें उड़ी थीं.

गड्ढे में गया पाकिस्तान

इमरान खान भी जनता की उम्मीदों व जरूरतों पर खरे नहीं उतर पाए. वे धर्म की संकीर्ण सोच में उल?ो नेता थे, इसलिए भी खुद को पहले के प्रधानमंत्रियों से बेहतर साबित नहीं कर पाए. उन के कार्यकाल में पाकिस्तान की हालत दिनोंदिन खस्ता होती गई. बढ़ती महंगाई ने जनता को रुला दिया जिस से यह भी साफ हो गया था कि इमरान खान की न तो कोई अर्थनीति है और न ही विदेश नीति. वे अल्लाह ताला के भरोसे रहने वाले नेता हैं.

इस की गवाही आंकड़ों की जबानी देखें तो साल 2020 में पाकिस्तान एशिया के 13 गरीब देशों में 8वें नंबर पर था. भारत सब से नीचे यानी 13वें नंबर पर था. बंगलादेश इस लिस्ट में नहीं था. विश्व बैंक के आंकड़ों के मुताबिक, पाकिस्तान में प्रतिव्यक्ति सालाना आमदनी 1,193.73 डौलर थी जबकि भारत में यह 1,900 डौलर थी.

बंगलादेश ने इस मामले में भी इन दोनों पड़ोसियों को पछाड़ दिया था. जहां प्रतिव्यक्ति सालाना आमदनी 1,968 डौलर थी. यही नहीं, जीडीपी के मामले में भी बंगलादेश बाजी मार ले गया. 1971 में उस के बनते वक्त वहां की जीडीपी महज 8.75 करोड़ डौलर थी जो 2020 में 324 अरब डौलर की हो गई थी. यानी 1971 के मुकाबले 23 गुना ज्यादा, जिस की औसत वृद्धि दर 6.68 फीसदी रही.

भारत की जीडीपी 1971 में 67.35 अरब डौलर थी जो 2020 में 2,620 अरब डौलर रही. उस की औसत वृद्धि दर 7.7 फीसदी रही. पाकिस्तान यहां भी फिसड्डी साबित हुआ. उस की जीडीपी की औसत वृद्धि दर 6.68 फीसदी रही. 1971 में पाकिस्तान की जीडीपी 10.6 अरब डौलर थी जो 2020 में 314 अरब डौलर रही.

पाकिस्तान में नया कुछ हुआ है तो वह इतना है कि सत्ता परिवर्तन के साथसाथ भीख का कटोरा हस्तांतरित हुआ है. कल तक जो शाहबाज खान इमरान को कर्ज के बाबत कोसा करते थे, आज वे खुद अब भिक्षा के लिए चीन और सऊदी अरब के मुहताज हो चले हैं. आंकड़े बहुत भयावह हैं कि पाकिस्तान को इसी जून तक 2.5 अरब डौलर का और 2023 के आखिर तक 20 अरब डौलर का कर्ज चुकाना है. कंगाल हो चुके पाकिस्तान पर अब दिवालिया होने का खतरा मंडरा रहा है. भारीभरकम कर्ज के अलावा दिक्कत पाकिस्तानी रुपए की लगातार गिरती कीमत है जो 180 रुपए प्रति डौलर तक जा पहुंची है. इस के जल्द ही 200 रुपए तक जाने की आशंका है.

पाकिस्तान के सब से बड़े बैंक स्टेट बैंक औफ पाकिस्तान का लिक्विड फौरेन एक्सचेंज रिजर्व गिर कर 11.3 डौलर का हो गया है जो फरवरी में 5.1 अरब डौलर था. आईएमएफ के एक अंदाजे के मुताबिक पाकिस्तान की औसत मुद्रास्फीति दर इस साल 11.2 फीसदी तक पहुंच सकती है. इमरान खान ने जो भिक्षापात्र शाहबाज शरीफ को ट्रौफी की तरह थमाया है उसे ले कर उन के वित्त मंत्री डाक्टर मिफ्चा इस्माइल अब चीन और सऊदी अरब के साथसाथ आईएमएफ का भी मुंह ताक रहे हैं. आईएमएफ रहम करेगा, ऐसा लगता नहीं, क्योंकि सब्सिडी को ले कर इमरान खान उस के साथ हुए करार को तोड़ चुके हैं यानी जातेजाते भीख मिलने के रास्ते भी बंद कर गए हैं.

इमरान खान के दौर में पाकिस्तान लगातार बदहाली का शिकार होता गया. बढ़ती महंगाई और घटती आमदनी से वहां के लोग हाहाकार करने लगे थे. ऐसे में 14 मार्च को दिए गए उन के इस बयान ने तो आग में घी डालने का काम किया कि मैं आलूप्याज के दामों की राजनीति करने नहीं आया हूं. इमरान चाहते यह थे कि लोग उन की कट्टरवादी इमेज के लिए महंगाई की मार ?ोलते रहें. लेकिन जब लोगों का गुस्सा बढ़ गया तो विपक्ष ने तुरंत इसे लपक लिया.

शाहबाज शरीफ ने इमरान से इस्तीफे की मांग कर डाली तो बिलावल भुट्टो ने उन्हें महंगाई न रोक पाने पर जम कर कोसा. मार्च के महीने में ही पाकिस्तान में खानेपीने के आइटमों में 12.7 फीसदी की बढ़ोतरी हो चुकी थी. जून 2018 यानी इमरान के प्रधानमंत्री बनने के बाद से 3 गुना ज्यादा थी.

आर्थिक संकट को ले कर इमरान चारों तरफ से घिर गए थे. पाकिस्तान का विदेशी मुद्रा भंडार भी 7.6 अरब के सब से निचले स्तर तक पहुंचा और पाकिस्तानी रुपया भी डौलर के मुकाबले 160 तक गिर गया. 29 फीसदी की इस गिरावट का असर आम लोगों की जेबों पर पड़ा तो वे कराह उठे. कुछ नहीं सू?ा तो इमरान ने आईएमएफ यानी अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से 6 अरब डौलर का भारीभरकम कर्ज और ले डाला, जो बढ़ कर 283 अरब डौलर का हो गया. यानी हरेक पाकिस्तानी पर 1,230.50 डौलर कर्ज हो गया जबकि प्रतिव्यक्ति आमदनी 1,193.73 डौलर पर सिमट गई. 5 अप्रैल को जब इमरान अपनी सरकार बचाने के लिए भागादौड़ी कर रहे थे तब पाकिस्तानी रुपए की कीमत डौलर के मुकाबले 189.37 रुपए पहुंच गई थी.

ट्रिपल ए के भी शिकार हुए

परेशानी के इस दौर में न तो अल्लाह किसी काम आया और न ही बुशरा के काले जादू ने कोई कारनामा किया. इमरान खान ने अपने तरकश के आखिरी तीर निकाले जो नाकाम रहे. गलत नहीं कहा जाता कि पाकिस्तान की कमान ‘ट्रिपल ए’ के हाथ में रहती है. पहला ए अल्लाह दूसरा ए आर्मी और तीसरा ए अमेरिका है.

इन सभी ने इमरान से मुंह मोड़ रखा था. पिछले आम चुनाव में जिस आर्मी ने खुलेतौर पर इमरान का साथ दिया था वही उन से खफा हो चली थी. इमरान अभी तक आर्मी के हाथ के मोहरे थे लेकिन उन्होंने भी जुल्फिकार अली भुट्टो की तरह खुद को सैन्य चंगुल से आजाद कराने की कोशिश की तो औंधेमुंह गिरे. आईएसआई के पूर्व चीफ फैज हमीद को हटाने में देरी करने पर भी सेना की भौंहें तिरछी हुई थीं.

जैसे ही इमरान ने जनरल कमर बाजवा को नजरअंदाज करना शुरू किया और अमेरिका की आलोचना शुरू की तो कहने को तो मिलिट्री तटस्थ रही पर उस के रुख ने जता दिया था कि अब कुछ नहीं हो सकता.

इमरान बहुत से ड्रामे कर के जाएं या शराफत से पद छोड़ दें, यह उन की मरजी पर निर्भर है. रूस-यूक्रेन जंग के ठीक पहले उन की रूस यात्रा भी अमेरिका सहित बाजवा को रास नहीं आई थी, जिन्होंने रूसी हमले को तुरंत रोकने की मांग की थी. सेना का मूड देखते पीटीआई के सहयोगियों ने उस से किनारा कर लिया जिस से विपक्ष और मजबूत हुआ.

पहली बार किसी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने भारत की तारीफ करते उसे खुद्दार देश कहा. इमरान की मंशा, दरअसल अपनी सेना को भड़काने और कट्टरों को यह जताने की थी कि देखो, अवाम साथ हो तो ही धर्म का राज्य फलताफूलता है. उन्होंने बारबार लोगों से सड़कों पर उतरने की अपील भी की जिस का कोई असर नहीं हुआ.

मुमकिन है उन की मंशा इतना गदर मचवा देने की रही हो कि सेना देश की बागडोर अपने हाथ में लेने को मजबूर हो जाए और वे नैशनल असैंबली में वोटिंग के बाद की फजीहत से बच जाएं. लेकिन ऐसा होना भी उसी सूरत में मुमकिन था जब सेना चाहती जो इमरान की हरकतों से आशंकित हो चली थी. इस पर भी बात नहीं बनी तो उन्होंने जज्बाती हो कर विपक्षियों के बिक जाने की बात कही और देश को बचाने की अपील की लेकिन लोगों ने उन का यकीन नहीं किया.

शाहबाज शरीफ और बिलावल भुट्टो बेहतर जानते हैं कि इमरान की विदाई की पटकथा सेना कभी की लिख चुकी थी. उन का काम तो भाषण देना, नैशनल असैंबली में हल्ला मचाना और आरोप लगाना भर था. इस के एवज में उन्हें कुरसी मिल रही थी. जो होना था वह सेना तय कर चुकी थी.

इमरान खान भी भूल गए थे कि वे कहने को ही इलैक्टेड प्रधानमंत्री हैं, नहीं तो हर कोई जानता है कि वे सेना द्वारा सलैक्टेड थे. पाकिस्तान की राजनीति में सब से कमजोर कड़ी प्रधानमंत्री होता है. चुनी हुई 4 सरकारों को मिलिट्री ने गिराया है जिस के चलते कोई भी प्रधानमंत्री बेचारा अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाया.

दरअसल, लोकतंत्र के असल माने कभी पाकिस्तानी शासकों ने सम?ो ही नहीं. इमरान खान को दोष इस बात पर दिया जा सकता है कि उन्होंने भी लोगों की बोलने की आजादी और न्यायपालिका को मजबूत नहीं किया यानी राइट टू लाइफ पर यकीन नहीं किया जबकि उन के पास सुनहरा मौका था कि वे कट्टरता की बेडि़यां तोड़ सचमुच में ‘नया पाकिस्तान’ गढ़ सकते थे लेकिन कठमुल्लाओं से टकराने की हिम्मत वे भी नहीं जुटा पाए और पौने चार साल तक उन के इशारों पर नाचते हुए महज वक्त काटते रहे. अब कुरसी खोने के बाद भी वे इस तरफ ध्यान नहीं दे रहे हैं. इमरान कब तक बयानबाजी कर जनता का ध्यान बंटा पाएंगे, यह देखना दिलचस्प होगा क्योंकि बेमेल गठबंधन वाली नई सरकार के सामने चुनौतियां ही चुनौतियां हैं. शाहबाज खान भी नहीं सम?ा पा रहे हैं कि इमरान का फैलाया रायता कहां से समेटना शुरू करें फिलवक्त तो आर्थिक संकट उन के सामने किसी आपदा की तरह खड़ा है.

इमरान खान के जाने और शाहबाज शरीफ के आने से बदलना कुछ नहीं है क्योंकि पाकिस्तानी लोकतंत्र की जड़ें बेहद खोखली हैं. शाहबाज शरीफ के पास न तो जिन्न हैं और न ही चिराग जो वे रातोंरात चमत्कार कर महंगाई को काबू कर लेंगे और न ही आर्मी की अनदेखी वे कर पाएंगे जिस के रहमोकरम से वे प्रधानमंत्री बने हैं.

पद संभालते ही कश्मीर राग अलाप कर उन्होंने भी जता दिया कि उन की नीति भी आम लोगों को इसलाम के नाम पर बहकाने और भड़काने की ही होगी. महज 33 साल के बिलावल भुट्टो भी पुराने पाकिस्तान की बात कर रहे हैं जहां कट्टरवाद और धार्मिक संकीर्णता दिनचर्या में शामिल हैं. ऐसे में उन से भी ज्यादा उम्मीदें अपनी मां और नाना की तरह नहीं की जा सकतीं. जाहिर है पाकिस्तान की कट्टरवादी इमेज को सुधारने वे और शाहबाज शरीफ कोई पहल नहीं करेंगे.

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