नरेंद्र दामोदरदास मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद राज्यपाल पद का पतन, अधोपतन अपनी सीमाओं को तोड़कर इतिहास में दर्ज हो चुका है. यह कलंक आज देश की सबसे बड़ी अदालत उच्चतम न्यायालय की चिंता का सबब बना हुआ है.

केंद्र की सत्ता पर काबिज़ भारतीय जनता पार्टी को यह नहीं भूलना चाहिए कि जब 2014 में नरेंद्र मोदी की सरकार बनी थी तब राष्ट्रपति कांग्रेस के प्रणब मुखर्जी थे. अगर कांग्रेस के इशारे पर प्रणब मुखर्जी नरेंद्र मोदी के रास्ते पर रोड़े अटकाते तब भाजपा को कैसा लगता.

खुद को ज्यादा होशियार समझना और होशियारी करना आखिरकार गलत साबित हो ही जाता है जिसका खमियाजा आगेपीछे खुद को ही भुगतना होता है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए. आजादी मिलने के बाद जो संविधान बना है उसकी शपथ ले करसत्यनिष्ठा से देश के संविधान के संरक्षण में संवैधानिक भूमिका निभा कर ही आप एक सच्चे नागरिक कहला सकते हैं. मगर जिस तरह आज संवैधानिक पदों पर बैठे हुए चेहरे केंद्र सरकार के इशारे पर गैरसंवैधानिक कार्य कर रहे हैं वह देशहित में नहीं कहा जा सकता.

इसका सबसे बड़ा उदाहरण आज हमारे सामने है. केंद्र सरकार ने जिन राज्यों में विपक्ष की सरकारें हैं वहां जो राज्यपाल नियुक्त किए हैं वे सारे के सारे वहां की चुनी हुई सरकारों के मुख्यमंत्रियों को संविधान से मिली हुई शक्तियों के बावजूद उन्हें काम करने नहीं दे रहे. इन राज्यपालों की निष्ठा संविधान के प्रति नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी और उस की केंद्र सरकार के प्रति दिखाई देती है.वे भाजपा व प्रधानमंत्री के कठपुतली बन गए हैं जबकि उन की निष्ठा देश और संविधान के प्रति होनी चाहिए.मामला अब सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर है, जहां चिंता जाहिर की जा रही है.

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