कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की बारह दिवसीय कैलाश मानसरोवर यात्रा उनके उत्साह या धार्मिक आस्था की नहीं बल्कि एक हताशा का प्रतीक है.  मुमकिन है यह दिखावा या पाखंड ही हो जैसा कि भाजपा आरोप लगा रही है लेकिन यह जो भी है उससे खुद राहुल गांधी, कांग्रेस या देश का भला होने वाला नहीं बल्कि इससे कई नुकसान जरूर हैं जो शायद ही राहुल गांधी को दिखें. अंधी श्रद्धा ज्यादा आत्मघाती होती है या दिखावटी यानि राजनैतिक श्रद्धा यह तय कर पाना कोई आसान काम नहीं लेकिन यह जरूर साफ दिख रहा है कि जिस तरह महंगा सूट और बूट पहनकर नरेंद्र मोदी जवाहर लाल नेहरू नहीं हो गए, उसी तरह मंदिर मंदिर जाकर राहुल मोदी यानि प्रधानमंत्री नहीं हो जाने वाले.

सरकार पर हमला बोलने और उसे तथ्यों पर घेरने यह सुनहरी वक्त था. दो अहम मुद्दों पर विपक्ष सरकार को कठघरे में खड़ा कर उसकी हकीकत जोरदार तरीके से जनता के सामने रख सकता था. पहला नोटबंदी पर रिजर्व बैंक की यह रिपोर्ट कि कोई काला धन देश में नहीं था जिसके लिए आम लोगों को मवेशियों की तरह दौड़ने मजबूर किया गया था और दूसरा उन पांच मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी जो मुद्दत से दलितों आदिवासियों और शोषितों के हक में लड़ाई बिना किसी होहल्ले के लड़ रहे थे.

ये पांचों कभी रोते गाते या फिर कोई मन्नत लेकर किसी धर्मस्थल में नहीं गए थे कि हे प्रभु दलितों और मजदूरों की बदहाली सुधार दो तो हम तीर्थ यात्रा करेंगे, इतने रुपए का प्रसाद चढ़ाएंगे या फिर निराहारी निर्जला व्रत रखेंगे. ये लोग बेहतर जानते और समझते हैं कि तमाम बदहालियों  के जिम्मेदार धर्म के ठेकेदार, फुटकर दुकानदार और उनकी बनाई वर्ण व्यवस्था और कर्मफल का धार्मिक सिद्धान्त है जिससे सदियों से समाज के कमजोर तबके का खून चूसा जा रहा है. देश में लोकतन्त्र भी अब रसूखदारों की कनीज बनकर रह गया है, इसलिए लड़ाई कानून के जरिये लड़ी जाये और अधिकारों से नावाकिफ लोगों को जगाया जाये. यह प्रक्रिया बिलाशक लंबी है लेकिन इसके अलावा कोई और रास्ता है भी नहीं.

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