नजरें लक्ष्य पर… कोशिश चुनाव साधने की… चुनौती बिखरे संगठन को एकजुट रखने की… सहज-आत्मीय माहौल… चेहरे पर मुस्कान… कोई तल्खी नहीं… सधी आवाज और बातचीत एकदम अपनों जैसी… इन विशेषताओं के साथ आखिर प्रियंका गांधी वाड्रा भारतीय राजनीति के मैदान में उतर ही पड़ीं. सालों से पर्दे के पीछे रह कर काम करने वाली प्रियंका को राजनीति में प्रत्यक्ष उतारने की मांग बहुत लंबे समय से हो रही थी, मगर निजी कारणों का हवाला देकर इतने सालों तक उन्हें इससे अलग रखा गया. एक तो उनके बच्चे छोटे थे और दूसरा भाई राहुल गांधी का करियर डांवाडोल था. अब ऐसे वक्त में उनकी एंट्री हुई है, जब बच्चे भी समझदार हो गये हैं और राहुल गांधी भी ‘पप्पू’ वाली छवि तोड़ कर बतौर पार्टी-अध्यक्ष कांग्रेस की झोली में तीन राज्यों की सरकारें डाल चुके हैं.

सदन के भीतर-बाहर जहां राहुल अब धाराप्रवाह भाषण करते हैं, वहीं उनके अचानक अटैक या प्यार की झप्पी से प्रधानमंत्री मोदी तक हतप्रभ रह जाते हैं. इसलिए अब ऐसा कहना कि प्रियंका के आने से राहुल का करियर चौपट हो जाएगा, गलत है.

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो प्रियंका के आने के बाद 2019 में कांग्रेस दोहरी मजबूती के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है. एक और एक ग्यारह की ताकत के साथ राहुल-प्रियंका 2019 की लोकसभा के लिए चुनावी मैदान में हैं. अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी और महासचिव के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता हृदय से स्वीकारते हैं.

सिक्के के दो पहलू – कांग्रेस और गांधी

अब ये आलोचना की बात हो या प्रशंसा की कि आज कांग्रेस का मतलब है गांधी-परिवार. इस परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है. कांग्रेस और गांधी परिवार को एक करने का श्रेय जाता है इंदिरा गांधी को, मगर एक वक्त वह भी था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस अलग-अलग थे. यह वक्त था जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद का. जब तक नेहरू जिंदा थे तब तक सरकार पर उनका एकछत्र राज था. उनके आगे कांग्रेस का वही हाल था, जो आज मोदी के आगे भाजपा का है.

नेहरू ने इंदिरा को सक्रिय राजनीति से हमेशा दूर रखा था. उनकी मौत के बाद भारत की राजनीति में एक शून्य पैदा हो गया. तब शुरू हुई नेहरू के उत्तराधिकारी की खोज. तब इंदिरा गांधी कहीं किसी गिनती में नहीं थीं. उस वक्त के. कामराज कांग्रेस अध्यक्ष हुआ करते थे. वे तमिलनाडु से थे और दक्षिण भारत की निचली जाति के प्रभावशाली नेता थे. मगर उनके दिमाग में भी इंदिरा का नाम नहीं था. तब प्रधानमंत्री पद के जो दो मजबूत दावेदार थे वह थे – मोरारजी देसाई और लाल बहादुर शास्त्री.

मोरारजी देसाई को ज्यादातर कांग्रेसी पसंद नहीं करते थे क्योंकि वे बड़े जिद्दी और अड़ियल किस्म के व्यक्ति थे, उनके विपरीत लाल बहादुर काफी शांत और सौम्य थे. कांग्रेसी नेताओं ने एकमत से प्रधानमंत्री के रूप में लालबहादुर शास्त्री को चुना, बिल्कुल वैसे ही जैसे सोनिया गांधी ने मनमोहन सिंह को चुना था. मगर शास्त्री जी मनमोहन सिंह नहीं बन पाये. यह कहानी कभी आगे, पहले इंदिरा की बात करें कि कैसे उनकी एंट्री कांग्रेस में हुई और कैसे कांग्रेस और गांधी परिवार एक दूसरे के पर्यायवाची हो गये.

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दरअसल लालबहादुर शास्त्री ने ही पहली बार इंदिरा गांधी को अपने कैबिनेट में जगह दी थी. शास्त्रीजी इंदिरा की तेजी को समझते थे और जानते थे कि बाहर रह कर वह ज्यादा खतरनाक साबित होंगी, लिहाजा अपनी कैबिनेट में शामिल करके उन्होंने इंदिरा को कम महत्व वाले सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का मंत्री बना दिया. मगर इंदिरा को यह पद भाया नहीं. वे भीतर ही भीतर अपने समर्थकों का गुट बनाने में जुट गयीं.

उसी दौरान शास्त्री जी चाहते थे कि वह तीन मूर्ति भवन स्थित प्रधानमंत्री आवास में शिफ्ट हो जाएं, जहां जवाहरलाल नेहरू बतौर प्रधानमंत्री रहते थे, लेकिन इंदिरा ने इसमें अडंगा लगा दिया. वे चाहती थीं कि तीन मूर्ति भवन स्थायी तौर पर नेहरू के नाम का स्मारक घोषित हो जाए और आखिर में उन्हीं की जीत हुई. तीन मूर्ति भवन नेहरू और उनके वंशजों के नाम हो गया. इंदिरा की असल सियासत तीन मूर्ति से ही चलने लगी और ये परंपरा अब तक बरकरार है.

इंदिरा गांधी पार्टी के अंदर अपनी ताकत बढ़ा रही थीं और लालबहादुर शास्त्री अकेले पड़ते जा रहे थे. तब उन्होंने पहली बार प्रधानमंत्री कार्यालय यानी पीएमओ का दफ्तर खोला, जिसमें ईमानदार, विश्वासपात्र और काबिल अफसरों की टीम को देश चलाने के लिए रख लिया. पीएमओ का काम नाजुक और नीतिगत मसलों पर प्रधानमंत्री को सलाह देना था. शास्त्रीजी के इस पीएमओ वाले नये तजुर्बे ने इंदिरा के इशारे पर चल रहे कांग्रेसी नेताओं की चालें फेल कर दीं.

शास्त्रीजी की मौत के बाद कांग्रेस में फिर उत्तराधिकार की तलाश शुरू हुई. इस बार मोरारजी देसाई किसी भी कीमत पर प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. लेकिन तब तक इंदिरा गांधी काफी अनुभवी हो चुकी थीं. कांग्रेस अध्यक्ष के. कामराज ने जब प्रधानमंत्री पद के लिए इंदिरा का नाम आगे किया, तो मोरारजी देसाई और इंदिरा गांधी के बीच चुनाव की नौबत आ गयी और अंतत: कांग्रेस संसदीय दल के सांसदों ने इंदिरा को चुना और इंदिरा पहली बार देश की प्रधानमंत्री बनीं. तब तक इंदिरा की उम्र 49 साल पार कर चुकी थी. अपनी मंजिल तक पहुंचने में इंदिरा को लंबा वक्त लगा, मगर उनकी पोती प्रियंका ने राजनीति की शुरुआत सत्ताइस साल की उम्र में शुरू कर दी थी, हालांकि यह राजनीति वे पर्दे के पीछे रह कर करती रहीं. सक्रिय राजनीति में उतरने का अवसर उन्हें अब मिला है 47 की उम्र में.

प्रियंका गांधी की छवि और कार्यशैली में उनकी दादी इंदिरा की छाप और असर है. कांग्रेस पार्टी में प्रियंका से बड़ा स्टार प्रचारक कोई नहीं है. इस बार लोकसभा में कांग्रेस की नय्या पार लगाने की पूरी जिम्मेदारी प्रियंका पर है. गांधी परिवार की इस सदस्या के सक्रिय राजनीति में उतरने की राह लोग काफी समय से देख रहे थे. प्रियंका गांधी वाड्रा का लक्ष्य भी हालांकि सत्ता प्राप्त करना है, मगर यह सत्ता वह अपने भाई राहुल गांधी के लिए पाना चाहती हैं. वह काफी लंबे समय से पार्टी के लिए काम कर रही हैं.

सोनिया गांधी और राहुल गांधी के तमाम राजनीतिक कार्यक्रमों में संयोजक के तौर पर उनकी भूमिका प्रभावशाली रही है. उनकी तेजी और स्मरण शक्ति गजब की है. अमेठी और रायबरेली में वह अपने कार्यकर्ताओं को बकायदा नाम से पुकारती हैं. उनकी यह खूबी उन्हें कार्यकर्ताओं से सीधे जोड़ती है. 2019 के चुनाव में उनका उतरना सभी विपक्षी दलों के लिए चिंता का विषय है. सुगबुगाहट तो यह है कि वह प्रधानमंत्री मोदी के निर्वाचन क्षेत्र से उम्मीदवारी का पर्चा भर सकती हैं, अगर ऐसा हुआ तो मोदी के सामने अपनी सीट बचाने का बड़ा संकट पैदा हो जाएगा.

भाजपा की तैयारियों में उत्साह नदारद

कुंभ स्नान के साथ भाजपा-अध्यक्ष अमित शाह प्रियंका से निपटने की रणनीति बनाने में जुट गये हैं, मगर अबकी बार जोश 2014 के मुकाबले जरा कम ही नजर आ रहा है. वजह यह है कि संघ के भीतर नरेंद्र मोदी को लेकर अलग-अलग मत सुनायी पड़ रहे हैं. 2014 में जहां भाजपा के दिग्गज नेताओं ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को स्वीकारा और संघ की पूरी ताकत भी उनके पीछे थी, वहीं अबकी बार यह ताकत नजर नहीं आ रही है. ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ या ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ जैसा कोई प्रभावी नारा भी अभी तक जनता के कानों में नहीं पड़ा है.

उधर राजनाथ सिंह, सुषमा स्वराज, उमा भारती, शाहनवाज हुसैन, मुख्तार अब्बास नकवी, अरुण जेटली जैसे दिग्गज भाजपाई खामोशी ओढ़े बैठे हैं. चुनाव सिर पर हैं और भाजपा खेमे में कोई हलचल दिखायी नहीं दे रही है. अंदरखाने की खबर यह है कि अबकी बार नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व पर कुछ संशय बना हुआ है. संघ की ओर से उन्हें कोई खास सपोर्ट मिलता नहीं दिख रहा है. जिस तरह हाल के दिनों में उनके कैबिनेट मंत्री नितिन गडकरी बातों-बातों में बड़ी चोटें कर गये हैं, वह भी गौर करने लायक है.

बीते दिनों अपने भाषणों के दौरान नितिन गडकरी कई ऐसी बातें बोल गये हैं, जिन्हें सीधे नरेंद्र मोदी से जोड़ कर देखा जा रहा है. बकौल गडकरी, ‘सपने दिखाने वाले नेता लोगों को अच्छे लगते हैं, लेकिन दिखाये हुए सपने अगर पूरे नहीं किये तो जनता उनकी पिटाई भी करती है, इसलिए सपने वही दिखाओ जो पूरे हो सकते हैं. मैं सपने दिखाने वालों में से नहीं हूं, जो भी बोलता हूं, वह डंके की चोट पर बोलता हूं.’ या ‘जो अपना घर नहीं संभाल सकते, वह देश क्या संभालेंगे…’ जैसी बातें साबित करती हैं कि पार्टी के भीतर मोदी-शाह के लिए सबकुछ ठीक नहीं है.

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मोदी जिस तरह विपक्षियों – ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, मायावती या रॉबर्ट वाड्रा के बहाने प्रियंका गांधी वाड्रा को निपटाने और चुनावी दौर में परेशान करने के लिए देश की बड़ी जांच एजेंसियों को हथियार बना कर इस्तेमाल कर रहे हैं, वह भी खुलेतौर पर दिख रहा है और राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो मोदी के इस दांव से भाजपा को फायदे की जगह नुकसान ही उठाना पड़ेगा. खैर, यहां बात करते हैं प्रियंका गांधी वाड्रा की, जिनकी एंट्री ने कांग्रेस के सुस्त-सोये कार्यकर्ताओं में नई जान फूंक दी है. विपक्ष तो उनकी एंट्री से इतना घबराया हुआ है कि कहीं उनकी खूबसूरती और चार्म पर टिप्पणी कर रहा है, तो कहीं उनके पति रॉबर्ट वाड्रा को जांच एजेंसियों के जरिए घेर कर चुनावी तैयारियों से उनका ध्यान भटकाने की कोशिश में मुब्तिला है.

मगर प्रियंका पर इन बातों का रत्तीभर भी असर दिखायी नहीं देता. पति रॉबर्ट वाड्रा से जांच एजेंसियों की पूछताछ पर वह एक वाक्य में मीडिया के सवालों का मुंह बंद कर देती हैं कि – ‘यह सब तो चलता रहेगा.’

दो मोर्चों पर मजबूती से खड़ी प्रियंका

प्रियंका गांधी वाड्रा देश और परिवार दोनों ही मोर्चों पर मजबूती से खड़ी हैं. उनके राजनीति में उतरने की सुगबुगाहट के साथ ही भाजपा चौकन्नी हो गयी थी. पांच साल तक राबर्ट वाड्रा मामले में खामोश ओढ़े पड़ी जांच एजेंसियों में अचानक हलचल देखी जाने लगी और फिर प्रवर्तन निदेशालय ने रॉबर्ट को कथित रूप से अवैध संपत्ति और मनी लांड्रिग मामले में पूछताछ के लिए ठीक उसी दिन तलब कर लिया जिस दिन प्रियंका को बतौर कांग्रेस महासचिव अपना पद ग्रहण करना था. आशंका व्यक्त की जा रही थी कि इसके खिलाफ कांग्रेसी हो-हल्ला मचाएंगे, मगर रॉबर्ट और प्रियंका दोनों ने शालीनता और सहयोग का परिचय दिया और रॉबर्ट वाड्रा पूछताछ का सामना करने के लिए एजेंसी के सामने हाजिर हो गये.

चुनावी तैयारियों और रैलियों के अतिव्यस्त कार्यक्रम के बीच प्रियंका अपने पति रॉबर्ट को पूरा सपोर्ट करती नजर आयीं. कांग्रेस महासचिव की कुर्सी पर बैठने से पहले वे पति को लेकर प्रवर्तन निदेशालय पहुंचीं और फिर वहां से कांग्रेस औफिस जाकर उन्होंने कार्यभार संभाला. यही नहीं, जब रॉबर्ट वाड्रा को पूछताछ के लिए जयपुर तलब किया गया, तब भी प्रियंका लखनऊ में रैली पूरी करने के बाद सीधी जयपुर पहुंचीं. इन बातों से प्रियंका ने साफ कर दिया है कि वह देश और परिवार दोनों ही मोर्चों पर लड़ने के लिए मजबूती से कमर कस के खड़ी हैं और उनके यही तेवर भाजपा खेमे को डरा रहे हैं.

गौरतलब है कि 2014 में जब मोदी सत्ता के लिए संघर्ष कर रहे थे, तब रॉबर्ट वाड्रा को जेल भेजने की बातें खूब कर रहे थे, मगर सत्ता में आने के बाद पांच साल तक वह इस मामले में खामोशी ओढ़े रहे. जैसे ही यह खबर आयी कि प्रियंका गांधी राजनीति में पदार्पण करने वाली हैं, केन्द्र के अधीन जांच एजेंसियां अचानक नींद से जाग पड़ीं. ऐसा क्यों हुआ यह सवाल सबकी जुबां पर है.

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प्रियंका ने एक लाइन में इस सवाल का जवाब दिया है – ‘सबको पता है, क्या हो रहा है?’ वहीं प्रियंका की तारीफ करते हुए पति रॉबर्ट वाड्रा ने भी सोशल मीडिया पर लिखा – ‘प्रिय पी, तुम एक सच्ची दोस्त, परफेक्ट वाइफ और मेरे बच्चों के लिए बेस्ट मां साबित हुई हो. आज के दिन दुर्भाग्यपूर्ण राजनीतिक माहौल है, मुझे पता है तुम अपनी जिम्मेदारी को सही से निभाओगी. हम प्रियंका को देश के हवाले करते हैं. भारत की जनता इनका ध्यान रखे.’ रॉबर्ट के इस इमोशनल मैसेज से प्रियंका तो प्रभावित हुर्इं ही, कांग्रेसी खेमे में इस मैसेज ने संजीवनी का काम किया है.

खून में दौड़ती राजनीति

राजनीति प्रियंका के खून में है. लंबे समय से वह अमेठी और रायबरेली में सोनिया गांधी और राहुल गांधी की रैलियों के आयोजन का कार्यभार संभालती रही हैं. उनकी कार्यशैली अनूठी है. वे अजनबियों के साथ पलक झपकते ही स्नेहिल संबंध बना लेती हैं. उनकी खूबसूरती और मोहक मुस्कान सामने वाले को सम्मोहित कर लेती है. अपने राजनीतिक दौरों के दौरान कभी प्रियंका किसी बूढ़ी महिला का हाथ थाम कर बैठ जाती हैं, कभी उनके साथ परांठा-अचार का नाश्ता करती हैं, तो कभी रिक्शे पर अपने बच्चों को घुमाती हैं. उनका यह व्यवहार क्षेत्र के लोगों को उनसे गहरे जोड़ता है.

हालांकि वे थोड़ी गुस्सैल स्वभाव की भी हैं. मगर कार्यकर्ताओं का मानना है कि उनका गुस्सा उन लोगों पर ही प्रकट होता है, जो पार्टी का काम ठीक से नहीं करते हैं. ऐसा ही आचरण उनकी दादी इंदिरा गांधी का भी देखा जाता था.

दरअसल प्रियंका में लोगों को इंदिरा की छवि ही नजर आती है. खासतौर पर उनकी हेयर स्टाइल और लंबी नाक. तमाम समानताओं के साथ एक समानता यह भी है कि प्रियंका गांधी का करियर भी इंदिरा गांधी की तरह ही शुरू हुआ है. प्रियंका की तरह इंदिरा भी शुरू से ही स्मार्ट थीं, लेकिन उन्हें राजनीति से दूर रखा गया था. जवाहर लाल नेहरू ने कभी उन्हें अपनी उत्तराधिकारी के रूप में नहीं देखा. ये अलग बात थी कि राजनीति उन्हें विरासत में मिली थी. शुरू में गूंगी गुड़िया के रूप में मशहूर इंदिरा के राजनीतिक तेवर पिता की मृत्यु के बाद राजनीति में पदार्पण के साथ देश-दुनिया ने देखे. वैसे ही तेवर प्रियंका में हैं. महज 16 साल की उम्र में, प्रियंका गांधी ने अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया था. तब से वह कई राजनीतिक जुलूसों, रैलियों और सम्मेलनों में हिस्सा लेती रही हैं.

रायबरेली के पुराने लोग प्रियंका में हमेशा इंदिरा को देखते हैं. इंदिरा की तरह वे भी सीधी और भावुक बातें करके लोगों को वह करने पर मजबूर कर देती हैं, जो वह चाहती हैं. यह बात तो रायबरेली की पहली ही जनसभा में साबित हो गयी थी. वह 1999 का लोकसभा चुनाव था. कांग्रेस ने रायबरेली सीट से कैप्टन सतीश शर्मा को खड़ा किया था. भाजपा ने जवाब में राजीव गांधी के ममेरे भाई अरुण नेहरू को टिकट दिया था. अरुण नेहरू और राजीव गांधी में रिश्ते बिगड़ गये थे. वे कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ गये थे. अरुण नेहरू मजबूत नेता थे. वहीं कैप्टन सतीश शर्मा सोनिया परिवार के घरेलू मित्र थे. प्रियंका उन्हें अंकल कहती थीं.

कैप्टन रायबरेली से लगभग हारे हुए कैंडिडेट नजर आ रहे थे. उन्होंने प्रियंका से आग्रह किया कि वह उनकी एक चुनावी सभा में आ जाएं. तब प्रियंका सिर्फ 27 साल की थीं. रायबरेली में उनकी पहली जनसभा थी. प्रियंका ने वहां सिर्फ एक लाइन बोली – ‘मेरे पापा के साथ जिसने गद्दारी की. पीठ में छुरा भोंका, ऐसे आदमी को आपने यहां घुसने कैसे दिया? उनकी यहां आने की हिम्मत कैसे हुई?’ भीड़ ने प्रियंका की डांट सुनी. एक सन्नाटा खिंच गया चारों ओर. प्रियंका को लगा कि कुछ ज्यादा हो गया. उन्होंने बात संभाली और बोलीं – ‘मेरी मां ने ये कह कर भेजा था कि कभी किसी की बुराई मत करना. लेकिन मैं आपसे भी अगर अपने दिल की बात नहीं कहूंगी तो किससे कहूंगीं.’ और प्रियंका के इस इमोशनल संबोधन के बाद पूरा चुनाव ही पलट गया. कैप्टन सतीश शर्मा जीत गये और अरुण नेहरू का राजनीतिक करियर खत्म हो गया. कैप्टन खुद मानते थे कि ये चुनाव उन्हें अकेली प्रियंका की एक मीटिंग ने जिता दिया था.

27 साल की तब की प्रियंका और 47 साल की आज की प्रियंका में कोई ज्यादा फर्क नहीं आया है. वे आज भी उसी तरह इमोशनल बातें करके लोगों का दिल जीत जीतने में उस्ताद हैं, मगर कोई कार्यकर्ता काम से जी चुराये तो डांट-डपट भी करने से नहीं चूकतीं. राजनीति उनके खून में है और मेच्योरिटी लेवल भाई राहुल गांधी से कहीं ज्यादा. यही वजह रही कि इतने साल तक सोनिया ने उन्हें राजनीति से दूर रखा ताकि राहुल ठीक तरह से स्थापित हो सकें.

भय्याजी के नाम से मशहूर हैं प्रियंका

राहुल और सोनिया गांधी के चुनाव क्षेत्र अमेठी और रायबरेली में प्रियंका बचपन से ही काफी सक्रिय रही हैं. क्षेत्र के लोग राहुल गांधी के साथ-साथ प्रियंका को भी ‘भय्याजी’ के संबोधन से पुकारते हैं. इन दोनों जगहों को प्रियंका अपने घर के रूप में देखती हैं. प्रियंका की खासियत है कि वो लोगों से जल्दी जुड़ जाती हैं. इस बात के गवाह कई लोग हैं कि रायबरेली में प्रियंका गांधी कभी भी अचानक ही बीच सड़क पर रुककर किसी भी कार्यकर्ता को नाम से पुकार लेती थीं और उसका हालचाल लेती थीं.

वर्ष 2004 के आम चुनाव में उन्होंने रायबरेली में सोनिया गांधी के लिए अभियान प्रबंधक के रूप में जबरदस्त काम किया था. वहीं अमेठी में भाई राहुल गांधी के अभियान की निगरानी भी उन्होंने की. वर्ष 2004 के चुनाव में कांग्रेस पार्टी की जीत का परचम लहराया तो पार्टी में प्रियंका का कद बढ़ गया. हालांकि वह एक उम्मीदवार के रूप में या प्रचारक के रूप में पार्टी की चुनावी जीत में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं निभाती थीं, लेकिन वह इसके पीछे थीं.

2007 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में, जब राहुल गांधी अपने राज्यव्यापी अभियान में व्यस्त थे, प्रियंका ने अमेठी-रायबरेली क्षेत्र की दस सीटों पर अपनी ऊर्जा और प्रयास केन्द्रित किया. आम चुनाव 2009 और 2014 में, प्रियंका गांधी ने अमेठी और रायबरेली के निर्वाचन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर प्रचार किया और अपने भाई और मां के लिए जीत हासिल करने में मदद की. 23 जनवरी, 2019 को, प्रियंका गांधी का औपचारिक रूप से राजनीति में प्रवेश हो गया है. कांग्रेस महासचिव पद के साथ उन्हें उत्तर प्रदेश के पूर्वी भाग का प्रभार दिया गया है, जहां 41 सीटों के लिए वह ताबड़तोड़ रैलियां करेंगीं, वहीं बाकी की 39 सीटों का जिम्मा ज्योतिरादित्य सिंधिया उठाएंगे.

फर्स्ट शो, हिट शो

सक्रिय राजनीति में प्रियंका गांधी वाड्रा की एंट्री धमाकेदार रही. पति रॉबर्ट वाड्रा को प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों के सुपुर्द करके जब वह अपने पहले रोड शो के लिए लखनऊ पहुंचीं तो अमौसी हवाई अड्डे से लेकर लाल बाग चौराहे से होते हुए कांग्रेस आफिस तक करीब 25 किलोमीटर का रास्ता फूलों, नारों, पोस्टर-होर्डिंग और बैनरों से पट गया. एक ट्रक पर भाई राहुल गांधी, ज्योतिरादित्य सिंधिया, राज बब्बर, जितिन प्रसाद  और अन्य नेताओं के साथ बैठी प्रियंका को एक नजर देखने की लालसा में जैसे पूरा शहर सड़क पर उमड़ पड़ा. लखनऊ में प्रियंका गांधी का यह पहला मेगा शो था. प्रियंका को देखकर कार्यकर्ता और आम शहरी जोश से भर गये. उन्होंने जगह-जगह ट्रक रोक कर फूल-मालाओं से उनका स्वागत किया.

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प्रियंका ने हाथ हिलाये, हाथ जोड़े, सलाम किया और जनता के सामने एक भावुक बात कह दी – ‘जब भी उत्तर प्रदेश आती हूं, मुझे अपने घर जैसा अहसास होता है. आप सभी का प्यार और अपनापन हमें शक्ति देता हैं. कल हम फिर आ रहे हैं आपके बीच.’ जनता भावविह्वल हुई. जयजयकार के नारे लगे. गौरतलब है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद जब राहुल गांधी लखनऊ आये थे तो उनका इतना जोरदार स्वागत नहीं हुआ था, जितना उनकी बहन प्रियंका का हुआ.

डर के मारे योगी ने दिया फुल पेज विज्ञापन

प्रियंका गांधी के रोड शो की भीड़ और भव्यता से घबरायी प्रदेश की योगी-सरकार ने इस खबर को अखबारों के पहले पन्ने पर आने से रोकने के लिए सभी प्रमुख अखबारों को पहले पूरे पेज का रंगीन विज्ञापन दे डाला. इस घटना से प्रियंका को लेकर भाजपा खेमे का डर सामने आ गया है. लोगों ने योगी का मजाक भी बनाया कि – ‘डर के आगे विज्ञापन है’. छोटे और मंझोले अखबार-मालिकों में भी उत्साह जगा कि अगर प्रियंका गांधी वाड्रा ऐसे ही रोड शो करती रहीं तो आज नहीं तो कल योगी सरकार उन्हें भी फुल पेज विज्ञापन देने के लिए मजबूर हो जाएगी.

अक्सर ऐसा होता है कि जब किसी राजनीतिक दल का कोई बड़ा कार्यक्रम होता है तो वो दल या उसके नेता अखबारों को विज्ञापन देते हैं. लेकिन लखनऊ में उल्टी गंगा बही. रोड शो प्रियंका का था और लाखों का विज्ञापन बांटा योगी आदित्यनाथ ने. वह भी फुल पेज का. प्रदेश के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने अखबार-मालिकों के सामने विज्ञापन जारी करते हुए शर्त रखी कि उसे पहले पेज पर लिया जाए वरना भुगतान नहीं होगा. साफ था कि प्रियंका के रोड शो के कवरेज को जनता की नजरों से छिपाने के लिए सारी कवायद की गयी, मगर खबर तो फिर भी लोगों तक पहुंची और पूरे जोश से पढ़ी गयी.

लखनऊ में प्रियंका गांधी के रोड शो में उमड़े जनसैलाब और युवाओं में व्याप्त उत्साह को देखकर जहां भाजपा खेमा परेशान है, वहीं प्रदेश की जनता को ऐसा लग रहा है जैसे इंदिरा गांधी का फिर से राजनीति में पदार्पण हो गया हो. प्रियंका गांधी की सक्रिय राजनीति में एंट्री के बाद उनका ऐसा स्वागत तो होना ही था क्योंकि कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा लंबे समय से यह मांग की जाती रही है. लोगों से सहजता पूर्वक जुड़ाव और उनसे घुलना मिलना तो प्रियंका गांधी की विशेषता है ही, साथ ही खासकर उत्तर प्रदेश में राजनीतिक परिस्थितियां भी ऐसी हैं कि यहां कांग्रेस का कोई बड़ा चेहरा पार्टी को लीड करे.

ऐसे में प्रियंका गांधी अगर उत्तर प्रदेश में सक्रिय भूमिका निभा रही हैं तो इसका कांग्रेस पार्टी को ना सिर्फ लोकसभा चुनाव में फायदा होगा, बल्कि इसका सकारात्मक असर यूपी के 2022 में होने वाले विधानसभा चुनाव पर भी अच्छा खासा पड़ेगा.

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