नजरें लक्ष्य पर... कोशिश चुनाव साधने की... चुनौती बिखरे संगठन को एकजुट रखने की... सहज-आत्मीय माहौल... चेहरे पर मुस्कान... कोई तल्खी नहीं... सधी आवाज और बातचीत एकदम अपनों जैसी... इन विशेषताओं के साथ आखिर प्रियंका गांधी वाड्रा भारतीय राजनीति के मैदान में उतर ही पड़ीं. सालों से पर्दे के पीछे रह कर काम करने वाली प्रियंका को राजनीति में प्रत्यक्ष उतारने की मांग बहुत लंबे समय से हो रही थी, मगर निजी कारणों का हवाला देकर इतने सालों तक उन्हें इससे अलग रखा गया. एक तो उनके बच्चे छोटे थे और दूसरा भाई राहुल गांधी का करियर डांवाडोल था. अब ऐसे वक्त में उनकी एंट्री हुई है, जब बच्चे भी समझदार हो गये हैं और राहुल गांधी भी ‘पप्पू’ वाली छवि तोड़ कर बतौर पार्टी-अध्यक्ष कांग्रेस की झोली में तीन राज्यों की सरकारें डाल चुके हैं.

सदन के भीतर-बाहर जहां राहुल अब धाराप्रवाह भाषण करते हैं, वहीं उनके अचानक अटैक या प्यार की झप्पी से प्रधानमंत्री मोदी तक हतप्रभ रह जाते हैं. इसलिए अब ऐसा कहना कि प्रियंका के आने से राहुल का करियर चौपट हो जाएगा, गलत है.

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो प्रियंका के आने के बाद 2019 में कांग्रेस दोहरी मजबूती के साथ चुनाव मैदान में उतर रही है. एक और एक ग्यारह की ताकत के साथ राहुल-प्रियंका 2019 की लोकसभा के लिए चुनावी मैदान में हैं. अध्यक्ष के तौर पर राहुल गांधी और महासचिव के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस कार्यकर्ता और नेता हृदय से स्वीकारते हैं.

सिक्के के दो पहलू - कांग्रेस और गांधी

अब ये आलोचना की बात हो या प्रशंसा की कि आज कांग्रेस का मतलब है गांधी-परिवार. इस परिवार के बिना कांग्रेस की कल्पना नहीं की जा सकती है. कांग्रेस और गांधी परिवार को एक करने का श्रेय जाता है इंदिरा गांधी को, मगर एक वक्त वह भी था जब इंदिरा गांधी और कांग्रेस अलग-अलग थे. यह वक्त था जवाहर लाल नेहरू की मृत्यु के बाद का. जब तक नेहरू जिंदा थे तब तक सरकार पर उनका एकछत्र राज था. उनके आगे कांग्रेस का वही हाल था, जो आज मोदी के आगे भाजपा का है.

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