मेडिकल साइंस के विकास में शेष दुनिया को कमतर आंकने वाले पश्चिमी देश आज उसी शेष दुनिया पर आश्रित सा नजर आ रहे हैं. जबकि, चिकित्सा क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान के लिए दिए जाने वाले विश्व के सबसे बड़े वार्षिक पुरस्कार 'नोबेल' पर ज्यादातर कब्जा इन्हीं देशों का रहा है.

यहां नोबेल पुरस्कार के लिए उचित कैंडीडेट चुनने की प्रक्रिया और मापदंडों पर सवाल नहीं उठाया जा रहा, हालांकि समय-समय पर विवाद होते रहे हैं, बल्कि इस पुरस्कार पर एक अलग पहलू से नज़र डाली जा रही है जो कोरोनावायरस से उभरी कोविड-19 बीमारी ने गंभीर संकट दुनिया के सामने ला दिया है.

मालूम हो कि विश्वविख्यात वैज्ञानिक, इंजीनियर व आविष्कारक अल्फ्रेड नोबेल ने मरने से पहले अंतिम इच्छा के तहत अपनी धन-संपदा का उपयोग पुरस्कारों की एक श्रृंखला बनाने में करने को कहा था. ये पुरस्कार उन्हें दिए जाएं जो भौतिकी, रसायन, विज्ञान, शांति, शरीर विज्ञान या चिकित्सा और साहित्य के क्षेत्र में मानवजाति को सबसे बड़ा फायदा पहुंचाएं.

ये भी पढ़ें-Lockdown 2.0: फैसले में नहीं रखा गया उद्योग धंधे और मजदूरों का ध्यान

स्वीडन के स्टौकहोम में जन्मे अल्फ्रेड नोबेल की मौत के बाद उनकी वसीयत की गई संपत्ति के प्रबंधन के लिए नोबेल फाउंडेशन का गठन किया गया. नोबेल की वसीयत के तहत, स्वीडन का करोलिंसका इंस्टिट्यूट, जो एक मेडिकल स्कूल एवं रिसर्च सेंटर है, फिजियोलौजी या मेडिसिन यानी शरीर विज्ञान या चिकित्सा में पुरस्कार दिए जाने के लिए जिम्मेदार है. आज इस पुरस्कार को आमतौर पर चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है.

शुरुआत से अब तक, नोबेल पुरस्कार पर पश्चिम का क़ब्ज़ा रहा है. पांच पश्चिमी देशों ने तो बारबार यह पुरस्कार अपने नाम करके यह संदेश देने की कोशिश की कि उन्होंने मानवता को बहुत बड़ा योगदान दिया है. इनमें सबसे पहला नाम अमेरिका का है. उसके बाद ब्रिटेन, जर्मनी, फ़्रांस और स्वीडन का नाम आता है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...