नए साल की राजनीति में दिलचस्पी की इकलौती बात सिर्फ यही रहेगी कि क्या भाजपा मई में होने वाले लोकसभा चुनाव में 2014 जैसा प्रदर्शन दोहरा पाएगी और नरेंद्र मोदी फिर से प्रधानमंत्री बन पाएंगे या नहीं. 2018 के हाल देखते तो इन दोनों ही सवालों के जवाब भाजपा के लिहाज से उत्साहजनक नहीं है, क्योंकि 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में वोटर ने उसे बेरहमी से नकार दिया है. सबका साथ सबका विकास का उसका नारा अच्छे दिनों की तरह खोखला साबित हुआ है. जाहिर है लोकसभा के लिए उसे अपनी रणनीति बदलना पड़ेगी. संभावना इस बात की ज्यादा है कि भाजपा को अपने परंपरागत मुद्दों की तरफ लौटने का जोखिम उठाना ही पड़ेगा.
ये मुद्दे देश का बच्चा बच्चा जानता है कि उग्र हिन्दुत्व के हैं, मसलन यह नारा कि रामलला हम आएंगे , मंदिर वहीं बनाएंगे और धारा 370 वगैरह यानि भाजपा अब जाति के बजाय खालिस धर्म की राजनीति करने मजबूर होगी, मजबूर इसलिए कि विकास के दावे और भ्रष्टाचार उन्मूलन पर वह कुछ नहीं कर पाई है. पर क्या महान हिन्दू धर्म और संस्कृति के नाम पर सवर्णों के साथ दलित और सभी पिछड़े उसका साथ देंगे, 2019 की राजनीति का दारोमदार इसी सवाल के जवाब पर टिका है.
निश्चित रूप से भाजपा हिन्दू धर्म के गौरवशाली और वैभवशाली अतीत की वापसी की बात करेगी, वह भी इस तरीके से कि इसमें मनुवाद और वर्ण व्यवस्था न दिखे, दिखे तो वह कथित रामराज्य जिसमें कथित रूप से सब बराबर होते हैं और शेर और बकरी दोनों एक घाट पर पानी पीते हैं, सब की खुशहाली की बात का ढिंढोरा भी भाजपा पीटेगी. अब वह यह नहीं कहेगी कि दलितों को सवर्णों के बराबर का दर्जा दिये जाने की कोशिशें की जा रहीं हैं, बल्कि वह यह कहेगी कि हिन्दू एकता को बड़ा खतरा मुसलमान हैं हम इन्हें भगाने या खदेड़ने की नहीं बल्कि उनकी मुश्के कसने की बात कर रहे हैं.