राष्ट्रीय राजनीति का यह वह दौर है जिस में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी दिनोंदिन मजबूत होती जा रही है. आजादी के बाद भारतीय लोकतंत्र में ऐसा पहली बार हो रहा है कि कोई गैरकांग्रेसी दल कांग्रेस से भी बड़ा हो रहा है. बिलाशक यह भगवा भाजपा खेमे के लिए खुशी और जश्न मनाने वाली बात है. लोकतंत्र की बारीकियों और उस के सही माने समझने वाले इस बात को ले कर चिंतित हैं कि विपक्ष इतना कमजोर भी नहीं होना चाहिए कि सत्तारूढ़ पार्टी मनमानी पर उतारू हो आए और कोई कुछ बोल भी न सके.

दिल्ली में नगर निगम चुनावों में मिली भारी सफलता के चलते न केवल भाजपा बल्कि हर कोई यह मान कर चल रहा था कि अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी अब खारिज हो रहे हैं. लेकिन यह मिथक दिल्ली की बवाना विधानसभा सीट के उपचुनाव से टूटा जिस पर सभी की निगाहें थीं. इस प्रतिष्ठित और अहम चुनाव में केजरीवाल की साख दांव पर लगी थी तो दूसरी तरफ भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की चाणक्य वाली छवि और दिल्ली भाजपा के अध्यक्ष मनोज तिवारी की काबिलीयत का इम्तिहान भी था. नतीजा आया, तो सभी हतप्रभ रह गए. आप के उम्मीदवार रामचंद्र ने भाजपा के वेद प्रकाश को

24 हजार से भी ज्यादा वोटों से धूल चटा कर आम आदमी पार्टी और केजरीवाल का परचम फिर से लहरा कर तमाम कयासों पर विराम लगा दिया.

बवाना के उपचुनाव में कोई मुद्दा नहीं था और था तो बस इतना कि क्या भाजपा वाकई इतनी मजबूत और लोकप्रिय हो गई है कि आप के ही विधायक वेद प्रकाश को तोड़ कर अपने खेमे में लाए और आसानी से जिता ले जाए. और, क्या आप इतनी दयनीय हालत में आ गई है कि कभी दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने का रिकौर्ड बनाने के बाद एक उपचुनाव भी न जीत पाए. इन राजनीतिक कयासों से परे अरविंद केजरीवाल ने प्रचार में अपनी सरकार द्वारा किए जा रहे विकास और जनहित के कार्यों को जनता के सामने रखा और जनता ने उन पर मुहर लगा दी.

केजरीवाल ने इस रोनेगाने में यकीन नहीं किया कि भाजपा उन के ही एक विधायक को तोड़ कर ले गई और उन की आम आदमी पार्टी को कमजोर कर रही है. उन्होंने दिल्ली के विकास की बात पर बात वोट मांगा, जो उन्हें मिला भी. केजरीवाल को यह एहसास हो चला है कि वे एक परिस्थितिजन्य नेता हैं जिन से जनता ने कई उम्मीदें लगा रखी हैं और उन्हें पेशेवर राजनेताओं जैसे बयानों व वक्तव्यों से यथासंभव परहेज करना है.

बवाना के नतीजे के माने बेहद अहम और चेतावनी भरे हैं कि लोग बेवजह के होहल्ले से दूर, विकास पर वोट करने लगे हैं, सियासी ड्रामेबाजी से वे उकताने लगे हैं. यह बात केजरीवाल ने वक्त रहते समझ ली और अब खुद को एक परिपक्व नेता के तौर पर प्रस्तुत भी कर रहे हैं. अब उन्हें मीडिया की शोबाजी की जरूरत महसूस नहीं हो रही है.

बवाना की जीत के बाद भी केजरीवाल ने कोई बड़बोलापन नहीं दिखाया और मनीष सिसोदिया के जरिए कार्यकर्ताओं को धन्यवाद ज्ञापित कर यह जता दिया कि वे अब सिर्फ काम करेंगे, बोलेंगे तभी जब बोलना अनिवार्य हो जाएगा.

मीडिया से परहेज

बीते दिनों बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जब महागठबंधन को तोड़ने का ऐलान कर चुके थे तब तिलमिलाए राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने एक पत्रकारवार्त्ता में तुक की इकलौती बात यह कही कि मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ते भाजपापरस्त होता जा रहा है. मुसीबत के वक्त में ही सही, लालू यादव को मीडिया की मंशा पर और उस के कामों पर उंगली उठानी पड़ी तो तय है वे मीडिया की अहमियत की तरफ ही इशारा कर रहे थे.

मीडिया भाजपापरस्त हो कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की जोड़ी की तारीफों में कसीदे गढ़े, इस से ज्यादा चिंता की बात उस का, बोलने वाले नेताओं के मुंह पर भी मुश्कें बांधना है जिस के एक शिकार आम आदमी पार्टी यानी आप के मुखिया व दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी हैं.

खामोशी पर भी ताने

अब जबकि अरविंद केजरीवाल ने बिना वजह  तो दूर, मुकम्मल वजह होने पर भी बोलना छोड़ दिया है, तब भी लोग सकते में हैं और उन्हें तरहतरह से उकसाने की कोशिश कर रहे हैं. उन की खामोशी के राज मनगढ़ंत तरीके से ढूंढ़े जा रहे हैं. कोई पंजाब और गोवा विधानसभा चुनावों में आप को मिली हार का सदमा इसे बता रहा है तो कोई उन की चुप्पी को कपिल मिश्रा और फिर दिल्ली नगर निगम में मिली आप को करारी हार से जोड़ कर देख रहा है.

जीएसटी जैसे अहम मुद्दे पर तो अरविंद केजरीवाल प्रतिक्रियाहीन रहे ही, जून में किसान आंदोलन के दौरान मध्य प्रदेश के 6 किसानों की पुलिस फायरिंग में मौत पर वे कुछ नहीं बोले तो लोगों को बहुत हैरानी हुई थी. रामनाथ कोविंद को एनडीए ने राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किया तब भी वे चुप रहे और उजागर तौर पर अपनी पार्टी के विधायकों के लिए यूपीए की उम्मीदवार मीरा कुमार के पक्ष में वोट डालने का व्हिप जारी नहीं किया.

बिहार में नीतीश कुमार के पलटी खाने पर भी अरविंद केजरीवाल ने मुंह सिला रखा और अरुण जेटली द्वारा उन के खिलाफ दायर मानहानि के मामले में भी वे उस वक्त चुप रहे जब उन के वकील रामजेठमलानी ने यह कहा कि जेटली के खिलाफ अपशब्द बोलने को केजरीवाल ने ही उन से कहा था.

ऐसी कोई दर्जनभर घटनाओं पर लोग और मीडिया अरविंद केजरीवाल के बोल सुनने को कान लगाए बैठे रहे पर वे अपने मौनव्रत पर कायम रहे, तो इसी को ले कर उन पर ताने कसे जाने लगे जिन में से एक सोशल मीडिया पर बड़े शर्मनाम और घटिया तरीके से यह था कि घर का कुत्ता भी कुछ देर न भौंके तो चिंता होने लगती है, यह दिल्ली वाले क्या कर रहे हैं.

यह भड़ास नहीं, बल्कि अरविंद केजरीवाल के प्रति पूर्वाग्रह है जिन की दलीलों और एतराज की आड़ ले कर मीडिया मुद्दे की बात को भी गोलमाल कर यों ही हवा में उड़ा देता था जिस से आम लोगों का ध्यान इस तरह से हट जाता था कि दरअसल हो क्या रहा है और इस का अंजाम क्या होगा.

ध्यान दिल्ली की तरफ

जिन हालात में अरविंद केजरीवाल को दिल्ली वालों ने कमान सौंपी थी वे किसी सुबूत के मुहताज नहीं कि दिल्ली के लोग कांग्रेस के कुशासन से आजिज आ चुके थे और भाजपा पर भरोसा नहीं कर रहे थे. ऐसे में आप और अरविंद केजरीवाल ही उन्हें बेहतर विकल्प लगे तो उन की समझ पर शक नहीं किया जा सकता. अरविंद केजरीवाल गैरपेशेवर राजनेता हैं जिन्हें किसी संघ या संगठन से राजनीतिक संस्कार नहीं मिले हैं.

राष्ट्रीय और विवादित मुद्दों पर दोटूक बोलने वाले अरविंद केजरीवाल को वक्त रहते शायद समझ आ गया है कि उस माहौल में बोलने से कोई फायदा नहीं जिस में बात को सुना और समझा कम जाता है, उस का मजाक ज्यादा बनाया जाता है. हालांकि, उन के न बोलने के नतीजे भी तुरंत देखने में आए. राष्ट्रपति चुनाव में मीडिया यह आशंका जता रहा था कि आप के कई विधायक क्रौस वोटिंग कर सकते हैं पर महज 2 विधायकों ने ही ऐसा किया तो अंदाजों पर दावे ठोकने वाला मीडिया और सन्नाटे में आ गया.

रामजेठमलानी जैसे धाकड़ और वरिष्ठ वकील के बारे में भी आमराय यह बनी कि वे 2 करोड़ रुपए की अपनी भारीभरकम फीस के लिए अरविंद केजरीवाल को बदनाम कर रहे हैं. वजह, जेठमलानी कोई दूध पीते या स्कूल जाते बच्चे नहीं हैं जो अपना तजरबा और कानूनी ज्ञान छोड़ कर मुवक्किल के मशवरे पर एक बचकानी बात करें जो न तो वकालत के उसूलों से मेल खाती और न ही उन के मिजाज से.

ऐसा भी नहीं कि अरविंद केजरीवाल कुछ नहीं कर या बोल रहे हों. फर्क सिर्फ इतना भर आया है कि उन की गैरत जिंदा हो उठी है और यह भी उन्हें समझ आ गया है कि मीडिया या कोई दूसरा विपक्षी दल उन के साथ नहीं है. सभी या तो खुद की परेशानियों से जूझ रहे हैं या फिर धीरेधीरे भाजपा की पनाह ले रहे हैं. हालात 70 के दशक सरीखे हो चले हैं जब चारों तरफ इंदिरा गांधी और कांग्रेस ही दिखती थी.

इन हालात और दूसरी कई राजनीतिक वजहों के चलते अगर उन्होंने अपना ध्यान दिल्ली पर लगा दिया है तो बात हर्ज की नहीं. लेकिन राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से जरूर चिंता की बात है कि जब कोई बोलने वाला ही नहीं बचेगा तो लोकतंत्र के माने क्या रह जाएंगे. दूसरी तरफ अरविंद केजरीवाल की खामोशी साफतौर पर शायद यही कह रही है कि, ‘आप मेरे बोलने का मजाक बनाओगे तो मैं क्यों बोलूं.’

खामोशी के दौरान दिल्ली को ले कर अरविंद केजरीवाल ने कई अहम फैसले लिए. मसलन, दिल्लीवासियों को जीवनरक्षक शल्य चिकित्सा के लिए सरकारी अस्पतालों में ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा. अब वे सर्जरी दिल्ली सरकार के खर्चे पर प्राइवेट अस्पतालों में भी करवा सकते हैं. बकौल केजरीवाल, ‘हम यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि लोगों की आर्थिक स्थिति चाहे कैसी भी हो, उन्हें बेहतर चिकित्सा और शिक्षा सुविधाएं मिलनी चाहिए.’

2 वर्षों में दिल्ली परिवहन विश्व स्तरीय बनाने का वादा करते अरविंद केजरीवाल ने डीटीसी कर्मचारियों के लिए भी 7वें वेतनमान आयोग की सिफारिशें लागू करने का फैसला ले लिया. हर इतवार को अपने विधानसभा क्षेत्र में जा कर आम लोगों से बगैर समय लिए वे मिलते हैं. और इस का फायदा उन्हें बवाना के उपचुनाव में मिला भी.

इसलिए गुनहगार हैं

इन बातों का जिक्र महज इसलिए कि दिल्ली सरकार के इस तरह के फैसलों का कोई मजाक नहीं बनाता. यानी एक खास वर्ग के लोगों की तकलीफ का नाम अरविंद केजरीवाल था. दिल्ली के मुख्यमंत्री से कोई शिकायत किसी को नहीं.

अरविंद केजरीवाल ने राष्ट्रीय मुद्दों पर बोलना छोड़ दिया, तो कम हैरत की बात नहीं कि कोई राष्ट्रीय नेता चाहे वह भाजपा का हो या कांग्रेस का, वह उन के बारे में कुछ नहीं बोला.

लिंचिंग जैसे संवेदनशील मुद्दों पर उन की चुप्पी हैरान कर देने वाली है. भाजपा, कांग्रेस और मीडिया तीनों मिल कर अगर अरविंद केजरीवाल को दिल्ली तक समेटने में कामयाब रहे हैं तो इसे दूसरी दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए कि क्या वाकई अरविंद केजरीवाल और उन की लोकप्रियता नरेंद्र मोदी व राहुल गांधी के लिए खतरा बनती जा रही थी जो उन्हें इस तरह खामोश रखने के लिए टोटके किए गए.

अब कोई नहीं कहता कि नरेंद्र मोदी के गहरे संबंध फलां उद्योगपतियों से हैं, कोई किसी की डिगरियों के बाबत सवाल नहीं पूछता. ये बातें खासतौर से भजपा को राहत देने वाली हैं जो उस के खिलाफ बोलने वालों के मुंह या तो सिल देती है या फिर खरीद लेती है. जब अरविंद केजरीवाल इन दोनों तरीकों से नहीं माने तो मीडिया के जरिए इतना मजाक उन का बना दिया गया कि उन्हें खामोश रहने में ही बेहतरी लगने लगी.

लोकतंत्र में जानबूझ कर चुप रहने वाला भी कम गुनाहगार नहीं. इस लिहाज से जरूर अरविंद केजरीवाल शक के दायरे में हैं. जनता हर बात पर उन का समर्थन करे, यह कतई जरूरी नहीं. लेकिन हास्यास्पद विरोध कोई भी स्वाभिमानी नेता बरदाश्त नहीं कर सकता, फिर भले ही उस से जनता का ही नुकसान हो रहा हो.

देश में लोग जिस नेता को चाहने लगते हैं उसे देवता बना देते हैं और सालों बाद उसी को कोसते हैं लेकिन तब तक उन के पास कुछ नहीं रह जाता. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी इस की मिसाल हैं. उस वक्त अगर निडर हो कर बोलने वाला कोई नेता होता तो तय है कि कश्मीर समस्या इतनी विकराल न होती और न ही इमरजैंसी के हालात बनते.

अपनी खामोशी को ले कर भी कठघरे में खड़े अरविंद केजरीवाल को आज नहीं तो कल, जवाब देना ही पड़ेगा. फिर चाहे वह किसी धमाके की शक्ल में हो या इस स्वीकारोक्ति के रूप में कि भेदभाव के चलते लेगों के लिए क्या बोलूं और क्यों बोलूं.

बोले भी तो… 

मुद्दत बाद अरविंद केजरीवाल गौर करने लायक बोले तो वह शब्द बड़ा प्रचलित है ‘सौरी’. हुआ यों था कि कांग्रेस के पूर्व सांसद अवतार सिंह भड़ाना ने भी उन पर मानहानि का एक दावा दायर कर रखा था. जनवरी 2014 में केजरीवाल ने भड़ाना को देश के सब से भ्रष्ट व्यक्तियों में से एक बताया था. इस से दुखी भड़ाना ने उन्हें कानूनी नोटिस भेज कर अपना यह बयान वापस लेने की चेतावनी देने के साथसाथ एक करोड़ रुपए की क्षतिपूर्ति राशि मांगी थी. 21 अगस्त को केजरीवाल ने सब को चौंकाते हुए भड़ाना से माफी मांग ली.

दिलचस्प बात यह है कि माफी मांगने के लिए भी उन्होंने मुंह नहीं खोला बल्कि लिखित में माफीनामा कोर्ट को सौंप दिया. अब साबित होने लगा है कि केजरीवाल में राजनेताओं जैसे गुण और लक्षण आ गए हैं.

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