स्वामी प्रसाद मौर्य के लिये जो मायावती कल तक दलित की बेटी थी, आज दौलत की बेटी हो गई हैं. स्वामी प्रसाद मौर्य ने उनपर पैसे लेकर टिकट बांटने का आरोप लगाया. जवाब में जब मायावती ने यह पूछा कि स्वामी प्रसाद मौर्य, उनके बेटे और बेटी को टिकट देने के बदले कितने पैसे दिये, तो स्वामी प्रसाद मौर्य इस बात का जवाब नहीं दे पाये. स्वामी प्रसाद मौर्य पर मायावती सबसे अधिक भरोसा करती थी. स्वामी प्रसाद मौर्य उत्तर प्रदेश मे बसपा के सबसे बडे नेता थे. स्वामी प्रसाद मौर्य अंदरखाने समाजवादी पार्टी से दोस्ती बना चुके थे. यही वजह थी कि मुख्य विपक्षी दल होने के बाद भी बसपा समाजवादी सरकार की किसी भी नीति का विरोध नहीं करती थी.
सबसे करीबी होने के कारण बसपा प्रमुख मायावती स्वामी प्रसाद मौर्य को पार्टी से हटा नहीं पा रही थी. स्वामी प्रसाद मौर्य चाहते थे कि मायावती उनको हटा दें. जिससे वह दलित वर्ग में सहानुभूति पैदा कर सकें. दूसरी तरफ समाजवादी पार्टी बसपा को कमजोर कर उसे चुनावी जंग से बाहर करना चाहती थी. ऐसे में स्वामी प्रसाद मौर्य अपनी 20 साल पुरानी बसपा को छोड़ कर सपा के करीब पहुंच गये.
1996 में बसपा में शामिल होने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य ने लोकदल से अपनी राजनीति शुरू की थी. 1980 में वह इलाहाबाद में युवा लोकदल के संयोजक बने थे. 1996 के विधानसभा चुनाव के दौरान जनता दल और समाजवादी पार्टी के गठबंधन के विरोध में जनता दल महासचिव का पद छोडकर बसपा में शामिल हुये.
मायावती के साथ उनकी छाया की तरह दिखने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य सार्वजनिक रूप से मायावती के पैर छूते थे. मायावती का विरोध करने वाले सपा नेता मुलायम सिह यादव के लिये अपमान जनक शब्दों का प्रयोग करते थे. अखिलेश सरकार को गुंडों की सरकार बताने वाले स्वामी प्रसाद मौर्य अब फिर से मुलायम शरण में है.
बसपा नेता मायावती कहती हैं कि स्वामी प्रसाद अपने परिवार को बसपा में एडजस्ट करना चाहते थे. बसपा में परिवारवाद की कोई जगह न देखकर वह पार्टी से बाहर चले गये. स्वामी प्रसाद मौर्य को लेकर समाजवादी पार्टी अति उत्साह में है. उसे लगता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य के आने से समाजवादी पार्टी मजबूत होगी और 2017 के विधानसभा चुनाव में उसकी जीत पक्की हो जायेगी. समझने वाली बात यह है कि स्वामी प्रसाद मौर्य का अपना कोई जनाधार नहीं है.
स्वामी प्रसाद मौर्य अगर खुद में जनाधार वाले नेता होते तो अपने बेटे और बेटी को चुनाव जितवा लेते. केवल स्वामी प्रसाद मौर्य ही नहीं, बसपा से अगल हुये तमाम नेताओं का इतिहास देंखे, तो साफ पता चलता है कि जो बसपा को छोड हाथी की सवारी से उतरते है, वह पैदल हो जाते हैं. आरके चौधरी, मसूद अहमद, दीनानाथ भास्कर, बाबू सिंह कुशवाहा, राजबहादुर, अखिलेश दास और जुगुल किशोर जैसे न जाने कितने नाम लिये जा सकते हैं.
विरोधी पार्टी के साथ दोस्ताना सबंध निभाने के चलते सपा स्वामी प्रसाद मौर्य को अपनी पार्टी में जगह दे सकती है. दलित और पिछडों की वैचारिक दूरी के बीच स्वामी प्रसाद मौर्य कब तक सपा के खुले आंगन में सांस ले सकेंगे और कब उनका दम घुटने लगेगा, यह आने वाले समय में पता चल सकेगा. मायावती के लिये अच्छी बात यह है कि जब वह मुसीबत में होती हैं, उनका वोट बैंक पूरी ताकत से साथ देता है.