चुनाव के मौसम में टीवी से लेकर अखबारों तक में चुनावी खबरें पूरी तरह से छाई रहती हैं. जिसको देखकर लगता है जैसे चुनाव के समय समाज में अपराध होने कम हो गये हों. हकीकत यह है कि अपराध कम नहीं होते, अखबार में उसको जगह मिलनी कम हो जाती है. थानों की पुलिस चुनावी कराने में लग जाती है, जिससे घटनाओं का खुलासा कम होता है. चुनाव के मौसम में अखबारों में आधे से अधिक पेज चुनावी खबरों में रंग जाते हैं. अखबारों के संवादादाताओं को चुनावी खबरों, लेख, रिपोर्टिग, इंटरव्यू में लग जाना पड़ता है.

डेस्क पर काम करने वालों को भी इस मौसम में अलग अलग जिलों में भेज दिया जाता है. खबरिया चैनल अपने स्ट्रिंगर के भरोसे चुनावी खबरें नहीं कर सकते ऐसे में दिल्ली से लेकर लखनऊ तक स्टूडियों में बैठे लोगों को जिलों जिलों जाना पड़ता है. चुनाव के समय अखबारों से लेकर खबरिया चैनलों की विज्ञापन के रूप में कमाई बढ़ जाती है. ऐसे में उनको जनसमस्याओं को दरकिनार कर चुनावी खबरों को जगह देनी मजबूरी हो जाती है.

खबरिया चैनल चुनाव को लेकर तरह तरह के विशेष आयोजन भी करते हैं. इसमें लोगों से बातचीत सबसे खास होती है. पहले यह कम होता था, अब तो हालत यह हो गई है कि राजनीतिक दलों के पास खबरिया चैनलों में पार्टी का पक्ष रखने वाले नेताओं की कमी हो जाती है. ऐसे में नये नये प्रवक्ताओं को यहां भेजा जाता है. राजनीतिक दलों की नजर में जिस चैनल का महत्व ज्यादा होता है वह वहां अपने महत्वपूर्ण प्रवक्ता को भेजता है. जिसका महत्व कम होता है वह सबसे नये प्रवक्ता को भेजता है. हर दल के कुछ लोग जनता बन कर सामने की सीटों पर बैठ जाते हैं. इसके बाद खबरिया चैनल का एंकर जो एंकर कम एक्टर अधिक हो जाता है वह ऐसे सवाल जवाब करता है जैसे वह अकेला ही यह कर रहा हो.

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