उत्तर प्रदेश में नौजवान वोटर तेजी से बढ़ रहे हैं. जिन प्रदेशों में बदलाव की बयार बही, वहां नौजवानों का योगदान सब से ज्यादा रहा. दिल्ली से ले कर बिहार तक के विधानसभा चुनाव इस बात का उदाहरण रहे हैं. लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने भी इसी नौजवान तबके को अपनी ओर खींच कर बहुमत की सरकार बनाई थी. लेकिन पिछले ढाई साल की सरकार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नौजवानों को जोश में लाने वाला कोई फैसला नहीं लिया. नोटबंदीं के फैसले के बाद रोजगार की कमी और नौजवानों की नौकरियों पर आई मुसीबत ने नरेंद्र मोदी की चमक को फीका कर दिया है.
लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश के वोटरों ने भाजपा को 73 सांसद दिए थे. इस हिसाब से तो विधानसभा की 3 सौ से ऊपर सीटें उस के खाते में जाती दिख रही थीं. उम्मीद थी कि भाजपा लखनऊ में फिर किसी मिश्र, शुक्ला को मुख्यमंत्री बना कर यादवों, मुसलिमों और दलितों को हाशिए पर खड़ा कर सकेगी और पाखंडों के प्रदेश में जहां गंगा के किनारे हर 4-5 मील पर धर्म की दुकानें हैं, एक बार फिर पौराणिक युग लौटेगा, जिस में ऋषिमुनि और सेवक ही होंगे. लेकिन आज उत्तर प्रदेश में भाजपा की नाव फंस चुकी है. हालत यह है कि भाजपा अब दलबदलू नेताओं से ले कर परिवारवाद के मुद्दे पर अपनी नीतियों से पीछे हट कर समझौते कर रही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ‘सांसद अपने परिवार के लोगों को विधानसभा का टिकट देने की सिफारिश नहीं करेंगे’. इस बात से लगा था कि भाजपा परिवारवाद के खिलाफ एक मुहिम चलाएगी. पर भाजपा ने जब टिकट बांटने शुरू किए, तो प्रधानमंत्री का यह बयान चुनावी जुमला साबित हुआ. भाजपा ने न केवल अपने दल के सांसदों के परिवार के लोगों को टिकट दिए, बल्कि दलबदल करने वाले नेताओं के परिवार वालों को भी टिकट दिए. पुश्तैनी राज करना या राजनीति करना हमारे ग्रंथों की देन है और उसे 21वीं सदी की तकनीक, मेहनत, बराबरी, संविधान की बातें खत्म कर दें, यह कैसे मंजूर है. यह बीमारी तो सभी दलों में है, फिर भाजपा क्यों उस से इनकार करे. इस के अलावा भारतीय जनता पार्टी में प्रदेश लैवल के नेताओं की अनदेखी कर जिस तरह से केवल राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की बात ही चल रही है, उस से भाजपा का कैडर बुरी तरह से नाराज हो गया है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने उत्तर प्रदेश में ऊंची जाति की अहमियत को समझते हुए आरक्षण को ले कर अपनी सोच को सामने रख संदेश देने की कोशिश की है. बिहार के मुकाबले उत्तर प्रदेश में ऊंची जाति के वोट ज्यादा हैं. यहां इन के वोट चुनावी फैसला तय करते हैं. पर ऊंची जाति वालों का देश के विकास में क्या योगदान है? क्या वे खेती करते हैं? क्या वे कारखाने चलाते हैं? उत्तर प्रदेश में तो वे वैज्ञानिक भी नहीं हैं. उन्हें सिर्फ राज करना आता है.
उधर, दलितपिछड़ों की राजनीति करने वाली बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने ऊंची जाति के वोटों को सामने रख कर टिकटों का बंटवारा किया है. इन जातीय समीकरणों से अलग राहुल गांधी और अखिलेश यादव बदलाव की नई सियासत की ओर प्रदेश को ले जाने की बात कर रहे हैं. समाजवादी पार्टी के पास उत्तर प्रदेश में मजबूत संगठन है और कांग्रेस के पास नैशनल लैवल पर बेहतर नीति है. सपाकांग्रेस ने अपने बहुत सारे विरोधों को दरकिनार करते हुए इस विधानसभा चुनाव में जिस गठबंधन का फैसला किया है, उस का दूर तक असर जाएगा. सब से अच्छी बात यह है कि इन दोनों ही नेताओं की इमेज साफसुथरी और नौजवानों को पसंद आने वाली है.
सपाकांग्रेस के गठबंधन से लड़ाई त्रिकोणीय हो चुकी है. इन के एकसाथ आने से मुसलिम वोट बैंक का बिखराव रुक गया है, जिस का असर बहुजन समाज पार्टी पर पड़ने वाला है. बसपा ने यादव परिवार में बिखराव का फायदा उठाते हुए सब से ज्यादा मुसलिम उम्मीदवारों को टिकट देने का काम किया है. सपाकांग्रेस गठबंधन ने इस रणनीति को फेल कर दिया है. अब इस बात की उम्मीद जोर पकड़ने लगी है कि कहीं अंदर ही अंदर बसपा और भाजपा नई नीति बना लें, जिस से टिकटों का बंटवारा इस तरह के समीकरणों से किया जाए, ताकि सपाकांग्रेस गठबंधन की सीटें कम से कम निकल सकें.
राहुल अखिलेश हैं दोस्त
उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय होने के पहले साल 2000 में कन्नौज लोकसभा सीट से अखिलेश यादव संसद के सदस्य बने थे. यही वह दौर था, जब राहुल गांधी भी सांसद सदस्य बने थे.
साल 2004 में जब से कांग्रेस की अगुआई में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार बनी, तब से समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का दोस्ताना रिश्ता खट्टेमीठे अनुभवों के साथ चलता रहा.
भारतीय जनता पार्टी कांग्रेस और सपा पर परिवारवाद के नाम पर हमला करती रहती थी. राहुल गांधी और अखिलेश यादव का मजाक बनाने में भाजपा ने पूरी मुहिम चला दी. राहुल गांधी को ‘पप्पू’ और अखिलेश यादव को ‘आधा मुख्यमंत्री’ साबित करने का प्रपंच शुरू किया गया.
भाजपा को पता था कि अगर इन दोनों नेताओं को हाशिए पर धकेल दिया जाए, तो भाजपा के लिए चुनौती खत्म हो जाएगी. लोकसभा चुनाव की हार के बाद राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने मिल कर भाजपा का मुकाबला करने की कोशिश शुरू की. राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में अपनी सभाओं में अखिलेश यादव को ‘अच्छा लड़का’ कहा, तो अखिलेश यादव ने उन को ‘अच्छा दोस्त’ करार दिया.
अखिलेश यादव ने भाजपा का नाम लिए बगैर उसे ‘चालू पार्टी’ कहना शुरू किया. राहुल गांधी ने भाजपा की सरकार को ‘सूटबूट की सरकार’ का नाम दिया. जनता को ये दोनों ही ताने पसंद आए.
भाजपा सरकार की नोटबंदी का असर उत्तर प्रदेश के गांवगांव में हुआ, क्योंकि वहां की लचर काम की आदत के चलते नए नोट देर से पहुंचे. वहां जम कर बेईमानी भी हुई.
मुसीबत में मिला सहारा
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार को कमजोर करने के बाद भाजपा ने समाजवादी पार्टी को निशाने पर लिया, जिस के चलते मुलायम परिवार में विवाद शुरू हो गया.
अखिलेश यादव के दोनों चाचा शिवपाल यादव और रामगोपाल यादव आपस में ही भाजपा से मिले होने का आरोप लगाने लगे. अखिलेश यादव की सब से बड़ी परेशानी पिता मुलायम सिंह यादव बन गए, जो पूरी तरह से बेटे के खिलाफ खड़े हो गए.
मुलायम परिवार के करीबी लोग बताते हैं कि मुलायम सिंह यादव की छोटी बहू अपर्णा यादव ने कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ की और राजनाथ सिंह के पैर छुए.
इस बात को भाजपा के प्रचारतंत्र ने कुछ इस तरह से इस्तेमाल किया, जैसे अपर्णा यादव भाजपा के करीब जा रही हैं. यह वही दौर था, जब मुलायम सिंह यादव ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को अपने घर शादी पर बुलाया था.
अफवाहों के जरीए यह बात फैलाई गई कि भाजपा और सपा मिल गई हैं. मुलायम सिंह को इस में बलि का बकरा बनाया गया. अखिलेश खेमे को यह समझाया गया कि अमर सिंह के जरीए भाजपा ही सपा में परिवार के विवाद को हवा दे रही है.
भाजपा को उत्तर प्रदेश में सब से ज्यादा खतरा अखिलेश यादव से लग रहा था. उन की साफसुथरी इमेज भाजपा के लिए राह का रोड़ा बन रही थी. भाजपा इस कोशिश में थी कि मुसलिम वोट को सपा से अलग कर दिया जाए, तो वे मुकाबले से हट जाएंगे. ऐसे में भाजपा के लिए बसपा से मुकाबला करना और भी आसान होगा.
उधर, मुलायम सिंह पर दबाव था कि वे अखिलेश को मुख्यमंत्री की कुरसी से हटा कर खुद मुख्यमंत्री बन जाएं.
अखिलेश यादव के लिए यह सब से मुश्किल दौर था. एक तरफ पिता थे, तो दूसरी तरफ साजिशों से निबटने की चुनौती थी. अखिलेश यादव के लिए यह तय कर पाना मुश्किल था कि सलाह देने वालों में कौन सगा है और कौन पराया.
ऐसे में कांग्रेस का गांधी परिवार उन की मदद करने सामने आया. कांग्रेस खुल कर अखिलेश यादव के पक्ष में खड़ी हो गई. कांग्रेस ने इस बात के साफ संकेत दे दिए कि अगर मुलायम सिंह यादव अखिलेश यादव को मुख्यमंत्री की कुरसी से हटाते हैं, तो कांग्रेस के विधायक अखिलेश यादव का साथ दे कर उन को सत्ता में बनाए रखेंगे.
कांग्रेस के इस तरह खुल कर सामने आने से मुलायम सिंह यादव को अपने कदम पीछे खींचने पड़े. इस मौके का फायदा उठा कर अखिलेश यादव ने पलटवार किया और पार्टी पर भी अपना कब्जा कर लिया.
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने मुलायम सिंह यादव को समझाने में अहम भूमिका निभाई. एक तरफ सोनिया गांधी ने उन्हें समझाने का काम किया, तो दूसरी ओर राहुल गांधी और प्रियंका ने अखिलेश यादव का हौसला बनाए रखा.
इस के बाद ही सपा और कांग्रेस ने यह तय किया कि अब उत्तर प्रदेश में सपाकांग्रेस गठजोड़ तैयार हो. इस को बिहार की तर्ज पर महागठबंधन बनाने की तैयारी थी.
बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव भी इस के पक्ष में थे. मुलायम सिंह यादव से दोस्ती और रिश्तेदारी होने के बाद भी वे अखिलेश यादव के पक्ष में खड़े नजर आए.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के अड़ंगे के बाद जनता दल (यू) इस गठबंधन से बाहर हुआ. इसी तरह चौधरी अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल भी गठजोड़ का हिस्सा नहीं बन सका.
आसान होगी आगे की राह
सपा और कांग्रेस के कई नेता इस पक्ष में थे कि यह गठजोड़ न बने. आखिर में अखिलेश यादव और सोनिया गांधी की बातचीत के बाद सपाकांग्रेस का गठजोड़ बन गया.
अखिलेश यादव पहले कांग्रेस को 80 से ज्यादा सीटें देने के लिए राजी नहीं थे, पर बाद में 105 सीटें देने को तैयार हो गए. कांग्रेस 105 और सपा 298 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. जीत के बाद दोनों ही दलों का एक घोषणापत्र तैयार होगा, जिस के आधार पर आगे की रणनीति तय होगी.
कांग्रेस और सपा दोनों का गठबंधन केवल उत्तर प्रदेश के चुनाव तक सीमित नहीं है, बल्कि यह लोकसभा चुनाव और नैशनल लैवल पर भी असर डालेगा.
उत्तर प्रदेश में लंबे समय से कांग्रेस सत्ता से बाहर है. कांग्रेस को सपा से यादवमुसलिम वोट मिल सकेंगे, जिस से उस के विधायकों की तादाद पहले से ज्यादा बढ़ जाएगी. वह बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में सरकार में हिस्सेदारी करेगी. सरकार बनने पर नैशनल एजेंडा कांग्रेस का होगा और प्रदेश लैवल पर सपा का एजेंडा लागू होगा.
उत्तर प्रदेश में हिस्सेदारी का फायदा कांग्रेस को साल 2019 के लोकसभा चुनाव में मिलेगा. कांग्रेस को उत्तर प्रदेश की सत्ता में दिलचस्पी नहीं है और सपा केंद्र की सत्ता की दावेदार नहीं है. ऐसे में सपाकांग्रेस दोनों ही अपनेअपने हितों के हिसाब से काम करेंगी.
नए चेहरे की कमी
पिछड़े वर्ग के लोग जहां अखिलेश यादव में अपना प्रतिनिधि देख रहे हैं, वहीं अगड़ी और मुसलिम जातियां राहुल गांधी में असरदार नेता को देख रही हैं. भाजपा की नीतियों से उसे साफ लग गया है कि वहां पर फैसले सामूहिक रूप से नहीं लिए जाते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तानाशाही सोच से सभी को खतरा महसूस होने लगा है. विरोधी दल ही नहीं, बल्कि भाजपा के अपने लोग भी इस बात से दुखी हैं कि भाजपा में कैडर के बजाय बाहरी नेताओं को टिकट दिया जा रहा है. भाजपा के पास प्रदेश लैवल पर कोई ऐसा नेता नहीं है, जिसे वह मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सामने रख कर चुनाव लड़े.
बहुजन समाज पार्टी के पास मायावती का चेहरा जरूर है, पर उन्होंने कांशीराम और अंबेडकर का इस्तेमाल सिर्फ मूर्तियां बनाने में किया. उन की सोच और जातिवाद के खिलाफ लड़ाई को वे भूल गईं. उन के बयान टीवी पर आ जाते या अखबारों में छप जाते, पर गांवों में फैले अछूतदलितों की फिक्र उन्होंने अरसे से नहीं की. अखिलेश यादव के चेहरे के सामने मायावती को बढ़त हासिल नहीं हो पा रही है.
परिवार के विवाद के बाद अखिलेश यादव की लोकप्रियता में बढ़ोतरी हुई है, जिस से इस गठबंधन को वोट मिलने में आसानी होगी. प्रदेश के लोगों को राहुलअखिलेश की छवि में बेहतर नेता दिखते हैं. इस जोड़ी के मुकाबले भाजपा के पास अभी कोई नया चेहरा नहीं
है. दलबदलू नेताओं को टिकट दे कर भाजपा ने अपनी चमक को फीका किया है. यही वजह है कि कांग्रेस की रणनीति और सपा की संगठनात्मक मजबूती मिल कर सियासत की एक नई कहानी लिख सकती है.
अहमद पटेल और अभिषेक मिश्रा की जोड़ी
सपा और कांग्रेस के गठबंधन में पूरे चुनाव भर और चुनाव नतीजे आने के बाद कई तरह के उतारचढ़ाव आने वाले हैं. इन से लड़ने के लिए जिस राजनीतिक समझदारी और रणनीति की जरूरत है, उस में कांग्रेस की तरफ से अहमद पटेल और सपा की तरफ से अभिषेक मिश्रा की जोड़ी सब से असरदार है.
अहमद पटेल किसी नेता के विरोध को खत्म करने के लिए सोनिया गांधी को बीच में लाने का काम करते हैं, तो हर बात को समझ कर उसे अखिलेश यादव के सामने रखने की कला में अभिषेक मिश्रा सब से ज्यादा कुशल हैं. वे मुलायम सिंह यादव के भी करीब हैं, जिस से पितापुत्र के बीच बेहतर तालमेल बन सकता है.
बहन और पत्नी की ताकत
अखिलेश यादव की दोस्ती जितनी राहुल गांधी के साथ है, उस से कहीं ज्यादा प्रियंका के साथ है. अखिलेश यादव की पत्नी और सांसद डिंपल यादव राहुल गांधी से ज्यादा उन की मां सोनिया गांधी के करीब हैं.
संसद में सदन के दौरान सोनिया और डिंपल आपस में बात करती दिखती रही हैं. राहुल गांधी की बहन प्रियंका भी डिंपल के साथ मधुर रिश्ते रखती हैं. आपसी बातचीत में दोनों ही बहुत सहज रही हैं.
उत्तर प्रदेश की राजनीति में डिंपल यादव खामोशी से पति अखिलेश यादव के कंधे से कंधा मिला कर चल रही हैं, तो प्रियंका अपने भाई राहुल गांधी के साथ खड़ी नजर आती हैं. बहन और पत्नी का यह साथ राहुल और अखिलेश को सब से भरोसेमंद साथी देता है. ये दोनों ही सब से प्रमुख सलाहकार हैं.
सब से अच्छी बात यह है कि दोनों ही दलों का बड़े से बड़ा नेता प्रियंका और डिंपल की बात को काटने की हिम्मत नहीं रखता है. ऐसे में यह जोड़ी विधानसभा चुनाव में पीछे रह कर भी अहम भूमिका में है.
मुकाबले में भारी पड़ते अखिलेश और राहुल
उत्तर प्रदेश के चुनावी गठबंधन में 43 साल के अखिलेश यादव और 46 साल के राहुल गांधी उम्र के लिहाज से 66 साल के नरेंद्र मोदीऔर 52 साल के अमित शाह की जोड़ी पर भारी पड़ सकते हैं.
बसपा नेता मायावती अभी भी जातीय समीकरण से चुनाव जीतना चाहती हैं. यही वजह है कि उन को बारबार टिकट के दावेदार बदलने पड़ते हैं. वहीं तरक्की के नाम पर जनता ने लोकसभा चुनाव में भाजपा का साथ दिया, पर बाद में तरक्की की बात पीछे छूट गई. प्रदेश के चुनाव में भाजपा को अपनों से ज्यादा दूसरों पर यकीन करना पड़ रहा है.
राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों ही एकजैसी सोच के सहारे मजबूत हो कर आगे बढ़ेंगे. चुनाव में सपा और कांग्रेस दोनों ही पुराने नेताओं के चेहरों को छोड़ आगे बढ़ी हैं. अखिलेश यादव स्मार्ट नेता के रूप में उभरे, वहीं राहुल गांधी अभी भी खुद को साबित करने में लगे हैं.
सपाकांग्रेस ने सब से कम दलबदलू नेताओं को टिकट दिए हैं. राहुलअखिलेश अकेले भले ही नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी से कमजोर दिखते हों, पर एकजुट हो कर दोनों प्रभावी हो जाते हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी उत्तर प्रदेश में बाहरी मानी जाती है, जबकि राहुलअखिलेश की राजनीति उत्तर प्रदेश में ही रही है.
नौजवानों का मिल रहा है जबरदस्त समर्थन
समाजवादी पार्टी की प्रवक्ता और बाल आयोग की अध्यक्ष जूही सिंह कहती हैं, ‘‘अखिलेश यादव ने अपने पूरे कार्यकाल में नौजवान तबका, औरतें और समाज के कमजोर तबके को ध्यान में रखते हुए काम किया है. अलगअलग तरह के तमाम चुनावी सर्वे हुए. इन में अखिलेश यादव को सब से आगे माना गया. मुख्यमंत्री के तौर पर हर किसी ने उन की भूमिका को सराहा है.
‘‘प्रदेश को जिस विकास की जरूरत है, उस के लिए नीतियां अखिलेश यादव के पास हैं. पूरी पार्टी उन के साथ मजबूती से खड़ी है.’’
जूही सिंह की गिनती अखिलेश यादव के करीबी नेताओं में होती है. वे सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव के भी बेहद करीब हैं.
उत्तर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव शैलेंद्र किशोर पांडेय ‘मधुकर’ कहते हैं, ‘‘देश और प्रदेश में सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए कांग्रेस हर तरह के कदम उठाने के लिए हमेशा ही आगे रही है. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जब उत्तर प्रदेश में ‘खाट सभा’ की और सोनिया गांधी की वाराणसी रैली हुई, उस समय प्रदेश के लोगों का रुझान कांग्रेस की ओर दिखने लगा था. प्रदेश में कांग्रेस सत्ता से बाहर है. ऐसे में उस के लिए अपने फैसले लागू करना मुश्किल हो गया था. अब सपा के साथ गठबंधन से नए समीकरण बने हैं, जिस का समर्थन पूरा प्रदेश कर रहा है. इस से प्रदेश के विकास को सही दिशा मिल सकेगी.
‘‘अभी तक प्रदेश में जाति और धर्म को ले कर राजनीति होती रही है, पर अब विकास की बात होगी, जिस से रोजगार के नए अवसर मिलेंगे.’’
आराधना मिश्रा ‘मोना’ कांग्रेस की विधायक हैं. उन्होंने राहुल गांधी और अखिलेश यादव दोनों के कामकाज को करीब से देखा है. वे कहती हैं, ‘‘समाज को जिस तरह की राह पर चलने की जरूरत है, दोनों नेताओं की साफ सोच उस ओर ले जाती है. आज की साफसुथरी राजनीति के वे अगुआ नेता हैं. अपनी बात कहते समय वे कभी विरोधी नेता पर ओछी टिप्पणी नहीं करते हैं. ऐसे में इस चुनाव में यह सब से बेहतरीन जोड़ी है.
‘‘दलों के बीच गठबंधन पहले भी हुए हैं. पहली बार बिना किसी पूर्वाग्रह के समझौता हुआ है. विरोधी दल इस तालमेल के बाद अपनी रणनीति बदलने में जुट गए हैं, जिस से साफ है कि इस गठबंधन की ताकत से वे डर रहे हैं.’’
लंबे समय से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार योगेश श्रीवास्तव कहते हैं, ‘‘चुनावी तालमेल और दलबदल आज के दौर में कोई नई बात नहीं है. ऐसे नेता चुनाव में उतरने से पहले एक हो जाते हैं, जो कुछ दिन पहले से एकदूसरे को भलाबुरा कहते रहे. कांग्रेससपा पहले भी साथ आए हैं. पर इस बार हालात अलग हैं.
‘‘इस गठबंधन की अगुआई नई सोच के नौजवान नेता कर रहे हैं. लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने जो सपने दिखाए थे, वे पूरे नहीं हुए. इस से उपजी नाराजगी को अपने पक्ष में करने का यही सब से सही समय है. अगर सपाकांग्रेस उत्तर प्रदेश में भाजपा को घेरने में कामयाब हो गई, तो साल 2019 की आधी लड़ाई जीत लेंगी. भाजपा को इस बात का आभास है, इसलिए वह हर तरह के समझौते कर रही है.’’