बसपा में अब कांशीराम की नीतियां नहीं बस नाम बचा है. कांशीराम का बहुजन समाज अब सर्वजन में बदल चुका है. जिसके बाद बसपा दूसरी पार्टियों की तरह हो गई है. पार्टी दलित वोट के लिये समय समय पर कांशीराम को याद कर यह जताने का काम करती है कि वह मान्यवर कांशीराम के बताये पदचिन्हों पर चल रही है.

असल में बसपा में केवल कांशीराम का नाम बचा है.उनकी बताई नीतियां हाशिये पर चली गई है. बसपा में कांशीराम का नाम भी उसी तरह हो गया है जैसे कांग्रेस में गांधी, भाजपा मे दीनदयाल उपाध्याय, सपा में लोहिया का नाम रह गया है.

बहुजन समाज पार्टी 9 अक्टूबर कों पार्टी संस्थापक कांशीराम के परिर्निवाण दिवस पर लखनऊ में बडी रैली कर रही है.वह अपने वोटर को यह बताने की कोशिश करेगी कि पार्टी कांशीराम के बताये रास्ते पर चल रही है.

बसपा के लिये परेशानी की बात यह है कि अब उसका कैडर खत्म हो रहा है. वहां बाहरी नेताओं का हस्तक्षेप बढ़ रहा है. बसपा अब ‘दलित-ब्राहमण’ समीकरण पर चल रही है. जिसका पार्टी के अंदर बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है.

बसपा के संस्थापक मान्यवर कांशीराम ब्राहमण और दलित के साथ को दूध और नींबू की तरह से देखते थे. बसपा के गठन काल में वह अपने भाषण के जरिये कार्यकर्ताओं को समझाते थे कि जिस तरह से नीबू के पड़ने से दूध फट जाता है उसी तरह से मनुवादी विचारधारा समाज को अलग कर देती है. बसपा में उस समय ‘ठाकुर, बामन, बनिया चोर‘ का नारा लगता था. अब बसपा ‘दलित-ब्राहमण’ समीकरण को जीत का आधार समझती है.

कांशीराम मूर्तिपूजा को हमेशा विरोध करते थे. उनका कहना था कि मूर्तिपूजा से समाज में मनुवाद की विचारधारा मजबूत होती है. जिससे सामाजिक भेदभाव पैदा होता है. कांशीराम समाज में रह रहे बहुजन वर्ग को मजबूत करने की बात करते थे. उनका कहना था कि हर जाति के लिये लोग सोचते हैं पर बहुजन वर्ग के लिये कोई नहीं सोचता. वह बहुजन समाज की तरक्की के लिये काम करते थे. सत्ता में आने के बाद बसपा और उसकी मुखिया मायावती दलित वर्ग को भूल गईं. बसपा ने मूर्ति पूजा को समर्थन दिया.

बसपा प्रमुख मायावती ने न केवल डाक्टर भीमराव अम्बेडर, कांशीराम की मूर्तियां लगवाई बल्कि खुद की मूर्ति भी लगवाई. अपने शासनकाल में मायावती पार्क और मूर्तियां लगवाने और भ्रष्टाचार को लेकर बदनाम हो गई. सरकार से जाने के बाद मायावती को इस बात का अहसास हो गया कि उनसे गलती हो गई. वह कहती है अब बसपा की सरकार आने पर पार्क और मूर्तियां नहीं लगवाई जायेंगी. बसपा अब दलित और ब्राहमण गठजोड़ को साथ लेकर चलने के प्रयास में मनुवाद के मुद्दे को छोड़ चुकी है. ऐसे में केवल कांशीराम के नाम को लेकर दलितों को जोड़ने का प्रयास कैसे सफल होगा यह देखने वाली बात होगी. कांशीराम के नाम पर बसपा अपने वोट बैंक को सहेजने का काम कर रही है.                     

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