सत्ताधारी दलों को साथ ले कर चलने वाला सक्सैज फार्मूला अपनाए मोदी मुलायम सिंह के पोते व लालू प्रसाद यादव की पुत्री की शादी में शिरकत करने से नहीं चूके. 27फरवरी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संसद में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा का जवाब देते हुए आखिरकार कई बातें कहीं जिन में सब से दिलचस्प बात यह थी कि उन की सरकार का एक धर्म है इंडिया फर्स्ट, उन की सरकार का एक ही धर्मग्रंथ है भारत का संविधान, एक भक्ति है भारतभक्ति और उन की प्रार्थना है सब का कल्याण, उन की जिम्मेदारी है कि धर्म के नाम पर कोई अनापशनाप बयान न दे.
कहनेसुनने में ये बातें भले ही छोटी लगती हों लेकिन हैं बेहद महत्त्वपूर्ण जिन के जरिए लगता है नरेंद्र मोदी अपनी कट्टर हिंदूवादी छवि से बाहर निकल रहे हैं तो क्या हिंदुत्व उन के लिए अब गौण और संविधान सर्वोच्च प्राथमिकता है? ये बातें उन्होंने बेवजह नहीं कही थीं. 10 महीने पहले जनता ने जब उन्हें देश की बागडोर सौंपी थी तब माहौल में नरेंद्र मोदी को ले कर संशय था, लोग पूरी तरह बेफिक्र नहीं थे. उन्हें डर और चिंता इस बात की थी कि कहीं नरेंद्र मोदी हिंदुत्व की रौ में न बह जाएं. माना यह जा रहा था कि हिंदूवादी संगठन खासतौर से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मोदी को विकास के अपने एजेंडे से भटकाने के लिए दबाव बनाएगा. ऐसा हुआ भी लेकिन जल्द ही नरेंद्र मोदी को समझ आ गया कि देश हिंदुत्व से नहीं बल्कि निष्पक्षता और उदारता से चलेगा और इस के लिए सब को साथ ले कर चलना पड़ेगा.
पहली टकराहट हिंदूवादियों से
धर्म और सत्ता में फर्क स्पष्ट करने में नरेंद्र मोदी चूके नहीं हैं. कम से कम 3 बार उन्होंने तल्ख लहजे में जताया कि वे हिंदूवादियों के हाथों की कठपुतली नहीं हैं, उन की नजर में सभी बराबर हैं. पिछले 1 साल के दौरान हिंदूवादियों ने अनापशनाप, बेहूदे और भड़काऊ बयान दिए थे. सांसद साक्षी महाराज, साध्वी निरंजन ज्योति, विश्व हिंदू परिषद के मुखिया अशोक सिंघल और प्रवीण तोगडि़या तो यह साबित करने पर आमादा हो गए थे कि देश सिर्फ हिंदुओं का है और उन्हीं की मरजी से चलेगा.
विकास में बाधा
यह नरेंद्र मोदी के लिए तनाव की बात थी. लिहाजा, उन्होंने संघ को खासतौर से आगाह किया था कि वह हद में रहे और अपने आनुषंगिक संगठनों को भी काबू में रखे. इस का असर पड़ा था. कट्टर हिंदूवादियों ने अपने कदम वापस खींचे थे क्योंकि मोदी देश की जनता को बता रहे थे कि हिंदूवादी संगठनों के अनापशनाप बयानों से देश का विकास प्रभावित होता है. इन हिंदूवादी संगठनों ने कदम वापस खींचे थे, लेकिन न हथियार डाले थे और न ही इन्होंने हिम्मत हारी थी बल्कि इन की तो मोदी के कंधे पर बंदूक रख कर अपनी मंशाएं पूरी करने की थी. फौरी तौर पर हिंदू राष्ट्र बनाने का और घरवापसी का अपना अभियान इन्होंने समेट लिया और इंतजार किया गया कि कैसी रणनीति बनाई जाए कि मोदी उन के इशारों पर नाचने को मजबूर हो जाएं. 26 जनवरी को जब अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत आए तो मोदी सरकार उन के सामने ऐसे बिछी मानो कृष्ण खुद चल कर सुदामा के घर आए हों. मोदी ने तमाम शिष्टाचार निभाए पर ओबामा की इस बात को गंभीरता से लिया कि धर्म के नाम पर तोड़ने और बांटने वालों से कैसे बचना है. कहने की जरूरत नहीं है कि ओबामा का इशारा संघ की तरफ था.
बराक ओबामा के दौरे से देश को भले ही कोई खास फायदा न हुआ हो लेकिन उन के जाने के बाद नरेंद्र मोदी जबरदस्त आत्मविश्वास में दिखे. यह ओबामा की पिलाई धर्मनिरपेक्ष घुट्टी का ही असर था कि वे 17 फरवरी को दिल्ली में ईसाइयों के एक धार्मिक समारोह में जानबूझ कर खासतौर से गए और साफतौर पर बोले कि किसी भी तरह की धार्मिक हिंसा बरदाश्त नहीं की जाएगी, हमारा संविधान धर्म की बिना पर की गई हिंसा की इजाजत नहीं देता है. यह बयान, तमाम अल्पसंख्यकों को हिफाजत की सरकारी गारंटी देता हुआ था. संघ को यह नागवार तो गुजरा पर वह अपनी तिलमिलाहट दबा गया लेकिन कांग्रेसी भड़क उठे. तय है कि उन्हें भी नरेंद्र मोदी से इस भाषा और ऐसे विचारों को सार्वजनिक रूप से व्यक्त करने की उम्मीद नहीं थी. लिहाजा, पलटवार में कांग्रेस प्रवक्ता मनीष तिवारी ने मोदी को यह चुनौती दे डाली कि ऐसे कह देने भर से क्या होता है. मोदी अगर संसद में यही बोलें तो बात में सचाई मानी जाएगी. और 27 फरवरी को बहैसियत प्रधानमंत्री, नरेंद्र मोदी ने संसद में यही बात दोहरा डाली तो कांग्रेसी सकते में हैं लेकिन संघ ने होली के दिन 6 मार्च को भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को नागपुर स्थित अपने मुख्यालय में तलब कर 9 घंटे उन की क्लास लगा डाली.
हिंदूवादी संगठनों और नरेंद्र मोदी की वैचारिक टकराहट अब किसी सुबूत की मुहताज नहीं है. जितनी सख्ती मोदी इन के प्रति दिखा रहे हैं उतनी कांग्रेस आजादी के बाद नहीं दिखा पाई थी. वजह, उस का वजूद और कथित धर्मनिरपेक्ष छवि संघ के छद्म विरोध की वजह से ही थे. नरेंद्र मोदी को तो इस की दरकार भी नहीं है. वे तो अपनी एक अलग छवि गढ़ने में लगे हैं जिस का सार यह है कि राजकाज चलाने के लिए उन्हें किसी विश्वामित्र या वशिष्ठ की जरूरत नहीं है जिस के बाबत संघ प्रमुख मोहन भागवत बड़े आश्वस्त थे कि अब सत्ता उन के हाथ में है.
सत्ता हाथ में है का मतलब नरेंद्र मोदी राम की तरह उन के इशारे पर सत्ता के हथियार से अनार्यों का नाश करेंगे. ऋषियों की भूमिका में खुद को देख रहे हिंदूवादी मुखिया भूल रहे हैं कि यह लोकतंत्र है. अब राजा का रोल एक जाति या समुदाय विशेष के लिए नहीं रह गया है. मोदी पर सभी वर्गों के लोगों ने वोट दे कर भरोसा जताया है और जमाना अस्त्रशस्त्रों और मंत्रों का नहीं बल्कि वोटों की ताकत का है जिसे इस्तेमाल करने का हर 2-3 साल में जनता को कभी विधानसभाओं, कभी नगर निकायों के माध्यम से मौका मिलता है.
बड़ी चुनौती
मोदी को अपनी मंशा और जनता के मुताबिक सब को साथ ले कर चलना है तो उन्हें और सख्त होना पड़ेगा और यह उन की मजबूरी भी हो गई है. उन का अपना एक विजन है जिस में धर्म और विकास 2 ऐसी समानांतर रेखाएं हैं जो कहीं जा कर नहीं मिलतीं. असहाय से हो चले हिंदूवादी संगठनों के पास क्या अब एक ही रास्ता बचा है कि भाजपा में फूट डाली जाए, उस के उग्रवादी धड़े को निर्णायक हवा दी जाए और हिंदुत्व से जुड़े बड़े अभियान मुनासिब वक्त पर फिर से व्यापक पैमाने पर चलाए जाएं? मंशा आम लोगों को धर्म के नाम पर भावनात्मक तौर पर भड़काने की होगी जिस से विकास के ब्रह्मास्त्र से मोदी कैसे और कितना निबट पाएंगे, यह देखना दिचलस्प होगा.
इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि कल को नरेंद्र मोदी को ही धर्मविरोधी प्रचारित किया जाने लगे. वजह, संघ और दूसरे हिंदूवादी संगठनों ने पिछले आम चुनाव के समय से ही चालाकी दिखानी शुरू कर दी थी. नरेंद्र मोदी के राजतिलक का श्रेय वे ठीक वैसे ही लेना चाह रहे हैं जैसे रामायणकाल में वशिष्ठ ऋषि ने लिया था जो इक्ष्वाकु वंश का राजपुरोहित और कुलगुरु था. राम के वनवास और दशरथ की मृत्यु के बाद हुई सभा में वशिष्ठ ने भरत से कहा था, ‘यह राज्य तुम्हें पिता व भाई ने दिया है, इस पर शासन करो (अयोध्या कांड स. 82). पर जब भरत ने इनकार कर दिया तो राम से यह कहा कि इक्ष्वाकु वंश में हमेशा से बड़ा पुत्र ही राजगद्दी पर बैठता आया है, जब तक बड़ा पुत्र जीवित रहता है कोई और राजा नहीं बन सकता….’ यह आदेश या उपदेश लंबाचौड़ा है (अरण्य कांड स. 111) लेकिन लोकतांत्रिक युग में भी देखा गया. लालकृष्ण आडवाणी को धकियाने में संघ हिचकिचाया नहीं था तो साफ कहा जा सकता है कि उस की मंशा वशिष्ठ की तरह गुरु बने रहने की थी जिस पर मोदी पलीता फेरते एक नई सामाजिक क्रांति की नींव रख रहे हैं. वे सब की बराबरी की भागीदारी की बात कर रहे हैं.
दिलचस्प बात यह है कि मोदी इन आधुनिक ऋषियों को मुखबिर या एजेंट नहीं बनाना चाहते. लोकतांत्रिक धर्म निभाते हुए सीधे जनता से संवाद कायम करते नजर आ रहे हैं, विरोधियों को आपस में लड़ा रहे हैं और जो जीत रहा है उसे अपने साथ ले रहे हैं. जम्मूकश्मीर में सरकार बनाने के लिए उन्होंने पीपल्स डैमोक्रेटिक पार्टी से हाथ मिलाने में कोई हिचक नहीं दिखाई. वैचारिक मतभेद भुला कर वे सीना तान कर शान से मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव की रिश्तेदारी में शिरकत करते हैं और वहीं अपने धुरंधर दुश्मन नीतीश कुमार से गर्मजोशी से हाथ भी मिलाते हैं.
बदलते समाज के साथ
इस में कोई शक नहीं है कि समाज तेजी से बदल रहा है. राजनीति के लिहाज से देखें तो सवर्णों का दबदबा खत्म सा हो चला है और अब देश की राजनीति पिछड़ों के हाथ में है. आज नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री हैं जबकि अधिकांश प्रमुख राज्यों के मुख्यमंत्री पिछड़े वर्ग के हैं. यह बदलाव धर्म की नहीं, शिक्षा और जागरूकता की वजह से आया है. नई पीढ़ी धार्मिक पाबंदियां और पाखंड बरदाश्त करने को कतई तैयार नहीं है. वह अपनी सहूलियत से धर्म को मानती है. इस से देश का माहौल बदला है. मिसाल है दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की अगुआई में आम आदमी पार्टी को मिला करिश्माई बहुमत.
इस नतीजे ने नरेंद्र मोदी को वक्त रहते आगाह कर दिया है कि व्यक्तित्व का जादू शाश्वत नहीं होता, इसलिए उन्होंने ताबड़तोड़ फैसले ऐसे ले डाले जो एक हद तक कांग्रेसी शैली के कहे जा सकते हैं. धर्म आधारित राजनीति का दौर जाता दिख रहा है, और लोग नेताओं से विकास की उम्मीद करने लगे हैं अब जो भी मंदिर निर्माण, घरवापसी और हिंदी हिंदू हिंदुस्तान की बात कर रहा है वह नई पीढ़ी की नजर में मजाक का पात्र बनता जा रहा है. लेकिन इस के उलट जातिवाद की राजनीति गहराती जा रही है. पिछड़ा वर्ग अपनी पकड़ बनाए रखने के लिए कुछ भी करने तैयार है. वहीं, दूसरी तरफ कांग्रेस और संघ दोनों की कोशिश यह है कि सत्ता फिर से ऊंची जाति वालों के हाथ में आ जाए जिस से धर्म के तवे पर रोटियां सेंक कर पंडेपुजारियों को खुश रखा जा सके और इस के एवज में वे धर्मगं्रथों का हवाला देते हुए समाज तोड़ने का अपना पसंदीदा काम करते रहें.
मुलायम व लालू के पारिवारिक समारोह में नरेंद्र मोदी का जाना सियासी नजरिए से देखा जाना गलती ही साबित होगा. बिहार संकट के समय भाजपा का जीतनराम मांझी का साथ देना एक जातिगत चाल थी. दलितों की मसीहा कही जाने वाली बसपा प्रमुख मायावती बेवजह अलगथलग नहीं पड़ गई हैं. रामविलास पासवान सरीखे धाकड़ दलित नेता संक्रांति पर प्रधानमंत्री को दहीचिवड़ा खिला कर खुद को शबरी की तरह गौरवान्वित महसूस करते हैं.
वैचारिक बदलाव
कांग्रेस की कमर तोड़ने में पिछड़ों का योगदान महत्त्वपूर्ण रहा है. कांग्रेस हमेशा ठाकुर, ब्राह्मणों के भरोसे रही. उस ने आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यकों और पिछड़े वोटों के दम पर खूब मलाई खाई और इस के एवज में देश को महंगाई व भ्रष्टाचार की दलदल में गले तक डुबो दिया. पिछले लोकसभा चुनाव प्रचार में जब नरेंद्र मोदी नायक की तरह उभरे तो लोगों को उन में विकास का जज्बा दिखाई दिया. शुरुआती दौर में हिंदुत्व की पकड़ में दिखते नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनते ही वैचारिक रूप से बदल गए. यह बात संघ के साथसाथ खत्म होती कांग्रेस को भी परेशान किए हुए है.
हालांकि धार्मिक उन्माद से देश हमेशा बचा नहीं रह सकता लेकिन लगता है कि मोदी की कोशिश अब अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की दिख रही है. यह काम वे इतने सधे ढंग से कर रहे हैं कि इसे कांग्रेस से उधार ली गई तरकीब कोई नहीं कह पा रहा. जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के वक्त में सवर्ण शिक्षित हो रहे थे, अब पिछड़े हो रहे हैं. पिछड़ों और अल्पसंख्यकों का सियासी घालमेल और तालमेल ही सत्ता और नेता तय करता आया है. मोदी के आने से मुलायम सिंह यादव व्यक्तिगत तौर पर भले ही खुश हुए हों लेकिन उन्हें बेहतर मालूम है कि इस के दूरगामी परिणाम समाजवादी पार्टी के हक में नहीं निकलने वाले हैं.
मोदी का फार्मूला
नरेंद्र मोदी के राज में मुसलमान उतना आतंकित नहीं हुआ जितना उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री रहते है. इस की दूसरी वजह भले ही आजम खान जैसे नेता समाजवादी पार्टी में हों लेकिन हिफाजत की जो गारंटी अल्पसंख्यकों को मोदी से मिल रही है वह कांग्रेस से नहीं मिली थी और यह गारंटी है बेखौफ रहो, हमारा संविधान सभी को बराबरी का दरजा देता है, इस देश का प्रधानमंत्री धर्म के लिहाज से कोई भेदभाव नहीं करता. जम्मूकश्मीर में भाजपा पीडीपी गठबंधन भले ही विवादों में हो लेकिन उस से मुसलमान का मोदी पर भरोसा बढ़ा है. बात वाकई काबिलेगौर है कि अपने 10 महीने के कार्यकाल में मोदी ने अपने खुद के धार्मिक आधार पर अपनी आलोचना का मौका किसी को नहीं दिया है.
सब को साथ ले कर चलने की नीति नई नहीं है और यह भारतीय परिवेश में सफलता का मूलमंत्र है जिस का आधार लड़ाओ ओर जीतने वाले को साथ ले लो है. मिसाल बिहार की लें तो नीतीश कुमार और लालू यादव नरेंद्र मोदी की इसी नीति के चलते वक्त रहते एक हो गए. ये दोनों जानते हैं कि पिछड़ों की ताकत और वोट बंटे तो सब से बड़ा फायदा अब भाजपा को मिलेगा. महाराष्ट्र जा कर शरद पवार की तारीफों में कसीदे नरेंद्र मोदी ने बेवजह नहीं गढ़े थे जहां उद्धव ठाकरे भाजपा से गठबंधन के बाद भी राष्ट्रीय मुद्दोें खासतौर से जम्मूकश्मीर पर भाजपा और नरेंद्र मोदी की खिंचाई करते रहते हैं. मोदी का संकेत दिखाता है कि अगर शिवसेना समर्थन वापस लेती है तो वे राकांपा का हाथ थामने में कतई नहीं हिचकिचाएंगे.
धार्मिक संकीर्णता से बाहर आने की कीमत चुकाने को भी मोदी तैयार दिख रहे हैं. हिंदूवादी संगठन उन की इस छवि और हरकतों को ज्यादा समय तक बरदाश्त करेंगे, ऐसा लग नहीं रहा. लेकिन नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता ने हालफिलहाल उन के हाथ बांध रखे हैं. धार्मिक हिंसा व असहिष्णुता सहन नहीं की जाएगी, जिस का मतलब साफ है कि जितना चाहो उपद्रव कर लो, सरकार प्रोत्साहन नहीं देगी. इस से कट्टरवादियों के हौसले पस्त हैं. दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी बेहतर जानते हैं कि लोकतंत्र में संख्या महत्त्व रखती है, इसलिए 95 फीसदी अमन पसंद लोगों का ध्यान रखा जाना बेहतर होगा, 5 फीसदी से तो अब कुछ नहीं बनने या बिगड़ने वाला.
हां, कांग्रेस हिंदूवादियोें का साथ दे तो सियासी लड़ाई दिचलस्प हो सकती है. यह हालांकि दूर की कौड़ी है, लेकिन राजनीति में असंभव कुछ नहीं होता और न ही कुछ नाजायज माना जाता. लोग हमेशा ही जीतने वाले का गुणगान करते रहे हैं. नरेंद्र मोदी भी इस सूत्र से वाकिफ होंगे ही और तय है इसीलिए वक्त न गंवाते हुए वे एक नई दिशा में चलते जा रहे हैं. लोकतंत्र में कुछ स्थायी नहीं होता. हारजीत इस बात पर निर्भर करती है कि बहुसंख्यकों के साथसाथ अल्पसंख्यकों और छोटी जातियों का समर्थन कैसे हासिल किया जा सकता है.
बदलाव के आसार
कांग्रेसमुक्त भारत एक परिकल्पना भर नहीं है क्योंकि बड़े पैमाने पर एक सवाल कभी से किया जाने लगा है कि लोग अगर कभी भाजपा और नरेंद्र मोदी से ऊब जाएंगे तो फिर कहां जाएंगे? तय है कांग्रेस को जीवित करने के लिए मजबूर होंगे. वैदिककाल में रावण को मारने के बाद राम ने कहा भी था कि रावण शक्ति की कमी की वजह से नहीं मारा गया है. युद्ध में कोई भी हमेशा नहीं जीतता कभी एक पक्ष तो कभी दूसरे पक्ष की हारजीत होती है. (यु.का. 111) लोकतंत्र इस सिद्धांत का अपवाद नहीं है. वर्तमान व्यवस्था भर है जिस में शासक को करना वही पड़ेगा जो सभ्य समाज के लोग चाहते हैं.
और जो आज का सभ्य और बुद्धिजीवी समाज है वह सरकार से वैचारिक स्वतंत्रता चाहता है जिस के हिमायती हालफिलहाल नरेंद्र मोदी दिख रहे हैं. वे मरजी से धर्म परिवर्तन की वकालत भी करते हैं. जिस दिन वे विचारों की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाएंगे या लोगों को बोलने से रोकेंगे वे उस दिन जरूर अपनी पहचान और वजूद खो बैठेंगे. कांग्रेस का पतन इस का उदाहरण है. लोग किसी भी सरकार से तरक्की की ज्यादा या चमत्कारिक उम्मीदें नहीं रखते. हां, उन का रोजमर्राई जीवन अगर दूभर बनाया जाता है तो जरूर वे सत्ता पलट देते हैं.
नरेंद्र मोदी को ले कर लोग बेफिक्र हो रहे हैं लेकिन लापरवाह नहीं. दबा ही सही, एक खटका लोगों के मन में यह है कि कहीं यह टकराहट दिखावटी तो नहीं? मोदी की धर्मनिरपेक्षता और हिंदूवादियों से मिलीभगत या कोई समझौता है पर इस की संभावना कम ही है. क्या राममंदिर निर्माण का जिन्न फिर निकाला जाएगा और देश को एक बार फिर सांप्रदायिकता की आग में झोंक दिया जाएगा? इन आशंकाओं को दूर करने की जिम्मेदारी अगर मोदी नहीं निभाते हैं तो वे शक के दायरे में बने रहेंगे.