मायावती की सोच में राजनीतिक लचीलापन नहीं है. वह बहुजन समाज पार्टी को अपनी निजी जायदाद समझ कर काम कर रही हैं. यही वजह है कि 4 बार उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य की मुख्यमंत्री रहने के बाद भी उनको राष्ट्रीय स्तर का नेता नहीं माना जाता. राष्ट्रीय राजनीति में उनकी तुलना पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से कमतर की जाती है. दलित वर्ग जैसे बड़े वर्ग की नेता होने के बाद भी करीब 30 साल की राजनीति में वह उत्तर प्रदेश से बाहर अपना प्रभाव नहीं बना पाई.
उत्तर प्रदेश में 2007 के बाद से उनका जनाधार कमजोर होता जा रहा है. मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ के विधानसभा चुनाव और 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती से जिस समझदारी भरी राजनीति की उम्मीद की जा रही थी वह खत्म हो रही है.
मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ तीन राज्यों के विधानसभा चुनावों में गठबंधन न होने के पीछे मायावती का अक्खड़पन था. वह उत्तर प्रदेश में सीटों के बंटवारे में कांग्रेस को सबसे कम सीटें देना चाहती थी जबकि कांग्रेस से मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ मांग रही थी.
उत्तर प्रदेश में पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी को बसपा से अधिक सीटे मिली थी. बसपा को उस समय 5 और कांग्रेस को 2 सीटें मिली थी. बसपा को एक भी सीट नहीं मिल सकी थी. लोकसभा में बसपा का कोई सदस्य नहीं है. इसके बाद भी वह उत्तर प्रदेश में सपा और कांग्रेस से ज्यादा सीटें मांग रही थी.
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को सबसे कम सीटें देने की बात कहने वाली मायावती मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ दलित आबादी को आधार मानकर 25 प्रतिशत सीटें मांग रही थी. मायावती तालमेल का जो फार्मूला उत्तर प्रदेश में लागू कर रही थी वह उसे मध्य प्रदेश, राजस्थान और छतीसगढ़ में लागू नहीं करना चाहती थी. इस वजह से कांग्रेस के साथ उनका तालमेल नहीं हो सका.