बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को लगता है कि ‘दलित एक्ट’ और ‘प्रमोशन में आरक्षण’ जैसे मुद्दों ने दलितो को एकजुट कर दिया है. ऐसे में अगर वह कांग्रेस के साथ समझौता करके चुनाव लड़ेंगी तो उनको नुकसान होगा. बसपा प्रमुख मायावती ने न केवल कांग्रेस से दोस्ती तोड़ी बल्कि ठाकुर जाति दिग्विजय सिंह को उसका जिम्मेदार ठहरा दिया. जिससे दलित बिरादरी में सवर्ण विरोध को हवा दी जा सके. सवर्ण विरोध के नाम पर मायावती ठाकुर विरोध ही करती रही हैं. अब मायावती ब्राहमण-दलित सोशल इंजीनियरिंग की बात नहीं करती हैं. एक बार फिर से वह इन चुनावों में ‘दलित-मुसलिम गठजोड़’ को ही साथ लेना चाह रही हैं.

मायावती यह बात भूल रही हैं कि ‘दलित-मुसलिम गठजोड़’ 2014 और 2017 के चुनावों में बैक फायर कर चुका है. ऐसे में भाजपा विरोधी दलों को एकजुट होकर ही सफलता मिल सकती है. विपक्ष में भी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिये मायावती ने कांग्रेस से नाता तोड लिया है. जिससे चुनाव के बाद किसी भी समझौते से आजाद रहा जाये. यह बात आमजन मानस में भी है कि मायावती किसी दबाव में कांग्रेस से समझौता तोड़ रही हैं. ऐसे में ‘दलित-मुसलिम गठजोड़’ मायावती की मंशा के अनुरूप सफल होगा यह साफ नहीं हो रहा है. मायावती को अपनी ताकत पर गुमान हो रहा है. राजनीति के जानकार मानते हैं कि वह अपना गलत आकलन कर रही हैं. अब दलितों में तमाम बिरादरी अलग अलग खेमे में है. जिससे दलित अब वोट बैंक नहीं रह गया है.

ताकत पर गुमान

2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती अपनी पूरी कीमत वसूल करना चाहती हैं. गठजोड़ की राजनीति में यह कोई बुरी बात भी नहीं है. मायावती को पता है कि अगर उन्होंने चुनाव पूर्व गठबंधन किया तो चुनाव बाद परिणामों के बाद गठबंधन तोड़ना सरल नहीं होगा. ऐसे में ‘एकला चलो’ की मुहिम के तहत वह अलग चुनाव लड़ें और चुनाव बाद के परिणाम के हिसाब से अपनी कीमत तय करें तो मुनाफे की संभावना अधिक है. इस कारण ही मायावती ने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व समझौता करने से मना कर दिया है. इन राज्यों में चुनाव के बाद अगर मायावती सरकार बनाने की भूमिका में फिट हो सकी तो अपनी मुंहमांगी कीमत वसूल करेगी.

मायावती को यह साफ पता है कि कांग्रेस और बसपा का वोट बैंक एक ही है. ऐसे में कांग्रेस के मजबूत होने से बसपा के कमजोर होने का पूरा अंदेशा है. अब मायावती कांग्रेस और भाजपा से नाराज वोटबैंक को अपने पक्ष में लाना चाहती है. कांग्रेस नेता सुरेन्द्र राजपूत कहते हैं ‘दलित वोट बैंक मायावती की सच्चाई से परिचित है. वह अपने हित देखने लगा है. बसपा की पकड़ अब 2014 के पहले वाली नहीं रह गई है. लोकसभा और विधानसभा चुनाव के परिणाम से पता चल चुका है कि दलित अब वोटबैंक भर नहीं रह गया है.’

मायावती के इस कदम से उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा और कांग्रेस के महागठबंधन पर भी सवालिया निशान लग चुका है. मायावती ने उत्तर प्रदेश के बारे में कोई जवाब नहीं दिया. इसकी वजह भी यही है कि वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को हाशिये पर रखना चाहती हैं. तीन राज्यों के चुनाव का असर लोकसभा चुनाव में पड़ेगा. अगर बसपा को यहां सफलता मिल गई तो कांग्रेस और भाजपा दोनों से ही मनचाहा समझौता कर सकेंगी. मायावती के इस कदम से समाजवादी पार्टी को भी गहरा झटका लगा है. सपा नेता अखिलेश यादव बसपा पर टिप्पणी करने के बजाये कांग्रेस को ही इसके लिये जिम्मेदार ठहराकर मायावती का पक्ष ले रहे हैं.

अखिलेश यादव ने कहा कि ‘कांग्रेस को बड़ा दिल दिखाना चाहिये. गठबंधन की जिम्मेदारी कांग्रेस की है. उसे सभी भाजपा विरोधी दलों को एक साथ लेकर चलना चाहिये. कांग्रेस को समान विचारधारा के दलों को लेकर चुनाव लड़ना चाहिये.’ मायावती और कांग्रेस के संबंधों को लेकर कांग्रेस ने मायावती और सोनिया-राहुल के बीच तालमेल की बात को रखते हुये उम्मीद की है कि कोई रास्ता निकल आयेगा. भाजपा को इस तरह के झगड़े में अपना लाभ दिख रहा है. ऐसे में भाजपा ने कांग्रेस को दोषी मानते कहा है ‘कांग्रेस कभी गठबंधन नहीं कर सकती. वह केवल एक परिवार का ही शासन चाहती है.’

दिग्विजय तो बहाना

बसपा नेता मायावती ने कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह के जिस बयान को आधार बनाकर कांग्रेस से गठबंधन न करने की बात कही वह कोई समझ में आने वाला आधार नहीं है. दिग्विजय सिंह ने कहा था कि बसपा केन्द्र सरकार और उसकी सीबीआई-ईडी से डरी हुई है. इस वजह से गठबंधन नहीं करना चाहती. इस तरह के आरोप पहले भी कई नेता लगा चुके है. पहले मुलायम सिंह यादव और लालू प्रसाद यादव सहित कई नेता इस बात को दोहराते रहे है. सीबीआई सरकार के हाथ का ‘तोता’ होती है. यह टिप्पणी भी बहुत मशहूर रही है. उत्तर प्रदेश में भाजपा बसपा-सपा के गठबंधन को लेकर चिंता में थी. उसने भीम सेना को अपने पक्ष में करने की योजना भी बनाई थी.

एक आरोप यह भी है कि सपा के मुलायम परिवार में शिवपाल यादव को भड़काकर नई पार्टी बनावाने के पीछे भी एक राजनीतिक साजिश है. इसके पीछे अमर सिंह के हाथ को देखा जा रहा है. अमर सिंह और भाजपा की ताजा दोस्ती से इसको जोड़ा जा रहा है. ऐसे में दिग्विजय के बयान पर मायावती का इतना बड़ा फैसला वैसा ही है जैसे मायावती को बस एक बहाने की तलाश थी. असल में मायावती किसी गठबंधन में बंधना नहीं चाहती. जिससे चुनाव बाद मनचाहा समझौता कर सके.

दलित से दूरी का लाभ

‘प्रमोशन में आरक्षण’ और ‘दलित एक्ट’ के मसले पर दलित और अगड़े एक बार फिर से आमने सामने हैं. ऐसे में मायावती का कांग्रेस से समर्थन करना एक अलग संदेश दे सकता है. मायावती एक बार फिर से चुनाव में ‘दलित-मुसलिम’ गठजोड़ तैयार करना चाहती है. मायावती को लग रहा है कि हिन्दुत्व के विरोध के नाम पर मुसलिम और सवर्ण विरोध के नाम पर दलित बसपा में ही अपनी संभावना देख रहा है. ऐसे में कांग्रेस के साथ उनका समझौता उनको कमजोर कर सकता है. ऐसे में वह कांग्रेस के विरोध में खड़ी दिखाना चाहती हैं. चुनाव के बाद जैसे भी परिणाम होंगे वह समझौता करने को आजाद होगी. मायावती को लगता है कि कांग्रेस के मुकाबले सपा से करीबी रखना ज्यादा लाभकारी होगा. इससे दलितों में किसी तरह के डर की भावना नहीं रहेगी. दलित एक्ट और प्रमोशन में आरक्षण पर पिछडों ने ज्यादा हल्ला नहीं मचाया है.

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की हालत बेहद खराब है इसके मुकाबले मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस मजबूत हालत में है. उसे वहां बसपा की बहुत जरूरत नहीं है. इस वजह से उसे बसपा के दबाव की बहुत परवाह नहीं है. कांग्रेस भी समझ रही है कि बसपा अगर भाजपा के करीब जाते दिखेगी तो उसको बहुत नुकसान होगा. लोकसभा के स्तर पर मुसलिम वोट बैंक कभी भी कांग्रेस के मुकाबले बसपा को तवज्जों ज्यादा नहीं देगा. ऐसे में वह बसपा को लेकर बहुत आतुर नहीं है. कांग्रेस को पता है कि चुनाव के बाद अगर बसपा और भाजपा में कोई गठबंधन होता है तो बसपा का जनाधार पूरी तरह से खत्म हो जायेगा. दलित और मुसलिम वोटबैंक के धुव्रीकरण का जो प्रयास बसपा कर रही है वह एक बार फिर से नुकसान पहुंचा सकता है.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...