बांग्लादेश के आर्थिक विकास की कहानी अपने आप में प्रेरणादायी है, और इसकी तस्दीक पूरी दुनिया कर रही है. जाहिर है, इसको लेकर आशंका जताने वाले गलत साबित हुए हैं. लेकिन ठीक यही बात बांग्लादेश अपने लोकतंत्र की तरक्की के बारे में नहीं कह सकता. एक वक्त था, जब लोकतंत्र के नाम पर बांग्लादेश में चारों तरफ गड़बड़ियां फैली हुई थीं.

मसलन, बात-बात पर हड़ताल हो जाती और मासूम लोगों के कत्ल होते रहते थे. साल 2014 के आम चुनाव को नाकाम करने की बीएनपी (बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी) की हिंसक कोशिशों का भी खुलकर विरोध किया गया. उस चुनाव में 153 सांसद इसी वजह से निर्विरोध जीत गए थे और 2015 में पार्टी ने आम चुनाव की सालगिरह पर भी जमकर हंगामा काटा था. लेकिन अब ऐसा लगता है कि वह बिल्कुल उल्टी दिशा में मुड़ गए हैं.

लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी यही है कि उसमें मुखालिफ जमातों और आवाजों को भरपूर इज्जत मिली होती है. मगर अफसोस, आज बहुत कम लोग इस बात को लेकर संजीदा हैं कि बांग्लादेश की मौजूदा सियासत में विरोध की आवाज के लिए कोई जगह नहीं रह गई है. विरोधी पार्टियों के नेताओं को धमकाना, उनके ऊपर बेहूदा आरोपों के तहत मुकदमे लादना और फिर मनमाने तरीके से उन्हें गिरफ्तार करना, मीडिया पर दबाव बनाना आदि अच्छे सियासी माहौल के लक्षण नहीं हैं.

इसमें कोई दोराय नहीं कि लोकतंत्र के बगैर भी माली तरक्की की कई नजीरें दुनिया में मौजूद हैं. लेकिन वे विकास अयूब और मार्कोस की तरह टिकाऊ नहीं रहे हैं. हाल के दिनों में लोकतंत्र और विकास को असंगत ठहराने की प्रवृत्ति देखने को मिली है. ऐसी सोच वालों की दलील है कि मुल्क की माली तरक्की के लिए लोकतंत्र को हाशिये पर रखा जा सकता है. लेकिन इस नजरिये की खामियों को देखने के लिए किसी को राजनीति विज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. हम तो यही उम्मीद करेंगे कि बांग्लादेश इस झांसे में न आए. तमाम तरह की चुनौतियों के लिए बांग्लादेश को और अधिक राजनीतिक विस्तार व परिपक्वता की दरकार है.

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