छतीसगढ़ में बड़े उलटफेर की उम्मीदें संजोये अजीत जोगी और मायावती को उस वक्त करारा झटका लगा जब बिलासपुर के सरकंडा में आयोजित उनकी संयुक्त जनसभा  में 30 हजार के ही लगभग भीड़ इकट्ठा हो पाई जबकि दावा 5 लाख की भीड़ जुटाने का था. गौरतलब है कि बसपा और अजीत जोगी की छतीसगढ़ जनता कांग्रेस पार्टी  90 सीटों वाले इस आदिवासी बाहुल्य राज्य में मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं. गठबंधन के तहत बसपा 35 और जनता कांग्रेस 55 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे और अजीत जोगी इस गठबंधन की तरफ से मुख्यमंत्री होंगे.

सभा को संबोधित करते हुए दोनों नेता एक दूसरे के कानों को खुश करते रहे. मायावती ने अजीत जोगी को राज्य का मुख्यमंत्री बनाने की बात कही तो अजीत जोगी ने भी उनकी उधारी तुरंत चुकाते उन्हें देश का अगला प्रधानमंत्री घोषित करते 2019 के लोकसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ की पूरी 11 सीटें जिताने का वादा कर डाला.

बात पूरी तरह सूत न कपास जुलाहों में लट्ठमलट्ठा वाली इस लिहाज से नहीं है कि यह गठबंधन सत्ता में आए न आए, लेकिन तकरीबन 15 सीटों पर तो भाजपा और कांग्रेस दोनों का खेल बिगाड़ने की स्थिति में है, लेकिन उसे मिलने वाली सीटों की संख्या 5 से 8  के बीच ही आंकी जा रही है. यानि यह गठबंधन  सीधी लड़ाई लड़ रहे दोनों प्रमुख दलों के लिए बराबरी से नुकसान पहुंचाएगा, खुद कोई खास फायदा नहीं उठा पाएगा.

इस गठबंधन की बड़ी दिक्कत दोनों ही दलों का प्रभाव क्षेत्र बिलासपुर के इर्दगिर्द ही सिमटा रहना है, इस इलाके की 15 सीटों के अलावा 3-4 सीटों पर उसके उम्मीदवार 10 हजार तक वोट ले जाने की स्थिति में हैं, लेकिन वे किसके वोट ज्यादा काटेंगे इस सवाल पर कोरबा के एक युवा पत्रकार सुब्रत राय का कहना है कि यह उम्मीदवारों की घोषणा के बाद समझ आएगा.

हाल फिलहाल जो समझ आ रहा है वह यह है कि बसपा का ग्राफ इस राज्य में भी चुनाव दर चुनाव गिरा है. साल 2003 में बसपा को यहां 6.94 फीसदी वोट मिले थे जो 2008 के चुनाव में 6.12 फीसदी रह गए थे लेकिन 2013 के चुनाव में यह तादाद और गिरकर 4.29 फीसदी पर आ गई थी तब उसका एक ही विधायक चुना गया था. इस चुनाव में बसपा के 6 उम्मीदवार ही अपनी जमानत बचा पाये थे. आंकड़ों के लिहाज से देखें तो बसपा सबसे दयनीय हालत में अगर कहीं है तो वह छत्तीसगढ़ है.

बात कम हैरत की नहीं, केवल छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी बसपा के परंपरागत दलित वोटों का झुकाव कांग्रेस की तरफ ज्यादा बढ़ रहा है. 2013 के चुनाव के बाद एक एजेंसी सेंटर फार स्टडीज ऑफ द डेवलपिंग सोसाइटीज़ के एक सर्वे में यह उजागर हुआ था कि छत्तीसगढ़ में महज 11.5 फीसदी ही दलितों ने बसपा को वोट दिया था जबकि कांग्रेस को वोट करने वाले दलितों की तादाद 48.7 फीसदी थी.

सरकंडा में मायावती ने कांग्रेस पर अपना आरोप दोहराया कि वह बसपा को खत्म कर देना चाहती है, इसलिए उसने गठबंधन नहीं किया उलट इसके कांग्रेस का कहना यह है कि मायावती जरूरत से ज्यादा मुंह फाड़ रहीं थीं. सच जो भी हो पर छत्तीसगढ़ में इस बार भी बसपा कुछ खास कर पाएगी ऐसा लग नहीं रहा,क्योंकि अजीत जोगी के पाकेट में आदिवासी वोट न के बराबर हैं इसलिए दलित उनकी पार्टी को वोट देगा इसमे शक है.

छत्तीसगढ़ के दलित आदिवासी भी आरक्षण को लेकर डरे हुये हैं कि कहीं भाजपा इसे उनसे छीन न ले ऐसे में उन्हें कांग्रेस बेहतर विकल्प लग रहा है. मायावती और अजीत जोगी दोनों भाजपा और कांग्रेस पर बराबरी से बरसे लेकिन वोटर का भरोसा नहीं जीत पा रहे तो अब इसकी वजहें राजनैतिक कम सामाजिक ज्यादा हैं जिन्हें मायावती भी समझ रहीं हैं लेकिन उनकी कई मजबूरिया हैं.  हालफिलहाल उनकी ख़्वाहिश किसी तरह तीनों राज्यों में अपनी नाक बचाए रखने की है जिसके लिए वे अब छोटी पार्टियों का सहारा ले रहीं हैं.

कम भीड़ देखकर अजीत जोगी का भी चेहरा उतरा हुआ था जिनकी मंशा 10 से ज्यादा सीटें ले जाकर सरकार बनाने में अपनी टांग फसाने की है, लेकिन अब उन्हें भी समझ आ रहा है कि राजनीति उतनी आसान है नहीं जितनी कांग्रेस से निकाले जाने के बाद वे सोच रहे थे कि उनके हटते ही हाहाकार मच जाएगा. अब सिर्फ उनके अलावा कोई भी यह मानने तैयार नहीं कि अजीत जोगी के बगैर कांग्रेस छत्तीसगढ़ में कुछ नहीं. देखना दिलचस्प होगा के बसपा के हाथी पर बैठकर वे कितने दूर चल पाते हैं.

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