चीन के विरूद्ध आप खड़े हो सकते हैं. सवाल यह है, कि उससे हमें हासिल क्या होगा? हम भारत सरकार की नीतियों की ही बात करें, तो देश की मोदी सरकार भारत को एक ब्राण्ड और बाजारवादी अर्थव्यवस्था के जरिये उसे ‘आर्थिक महाशक्ति’ बनाना चाहती है. जिसके लिये उसके पास अपार जनशक्ति, प्राकृतिक संसाधन और एक बड़ा बाजार है. पूंजी निवेश के लिये वह निजी कम्पनियों को आमंत्रित कर रही है, उनके लिये वैधानिक संशोधन कर रही है, और उसका प्रचार कर रही है. ‘मेक इन चाईना’ के तर्ज पर ‘मेक इन इण्डिया’ पर काम कर रही है. यही भारत की आर्थिक प्रतिद्वंदिता और अदावत है.

राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से भारत और चीन के बीच 1962 का युद्ध और सीमा विवाद है. भारत जिन पड़ोसी देशों में पहले वर्चस्व रखता था, आज वहां चीन का वर्चस्व है. चीन उन देशों की अर्थव्यवस्था में निर्णायक बढ़त बना चुका है. भारत इस वर्चस्व की वापसी चाहता है. नेपाल, श्रीलंका और बांग्लादेश से वह संबंध चाहता है, जिसने उसे गवां दिया है. पाकिस्तान से उसके तनावपूर्ण संबंध हैं, कश्मीर से लेकर आतंकी हमलों की गांठ पड़ी है. पहले जहां अमेरिका था, वहां पाकिस्तान में चीन भी है.

जो अदावत और प्रतिद्धंदिता भारत और चीन के बीच है, आर्थिक एवं राजनीतिक वर्चस्व की, वही प्रतिद्वंदिता और अदावत अमेरिका की है. चीनी सागर को ले कर दोनों देशों के बीच सामरिक प्रतिस्पर्द्धा है और भारत अमेरिकी खेमें में शामिल होता जा रहा है. मोदी की अमेरिकी यात्रा के बाद भारत और चीन के संबंधों में तनाव बढ़ गया है. नीतियां और तेवर भी बदल गये हैं.

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