9/11 अमेरिका के लिए कभी ना भूल पाने वाली तारीख है. बीस साल पहले 11 सितम्बर 2001 को अलकायदा ने अमेरिका पर भीषण आतंकी हमला किया था. इस हमले का मास्टरमाइंड अलकायदा का सरगना ओसामा बिन लादेन था. अलकायदा अफगानिस्तान में आसानी से काम करने में सक्षम था क्योंकि उस समय की तालिबानी सरकार उसे संरक्षण देती थी. अमेरिका पर हमले के बाद अंतरराष्ट्रीय समुदाय ने तत्कालीन तालिबान सरकार को हमले के लिए जिम्मेदार लोगों को सौंपने के लिए कहा, लेकिन तालिबान ने इनकार कर दिया. उसके बाद अमेरिका के नेतृत्व में योजनाबद्ध तरीके से वहां से तालिबान को सत्ता से हटाने की कवायद शुरू हुई. आतंक को प्रश्रय देने वाले तालिबान के सफाये के लिए अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया और ओसामा सहित कई खूंखार आतंकियों को मौत के घाट उतार कर अफगानिस्तान में अपनी फौजें तैनात कर दीं. बीते दो दशकों में नाटो और अमेरिकी फ़ौज अफगानिस्तान में लगातार दहशतगर्दों से मोर्चे लेती रही. इस तरह दहशतगर्दों और कट्टरपंथियों के दम पर फलने-फूलने वाले तालिबान की हालत काफी खस्ता हो गयी.

लेकन बीते बीस साल में मिलिट्री और सुरक्षा की बहुत बड़ी कीमत भी चुकानी पड़ी है. यह कीमत पैसों और ज़िन्दगियों दोनों रूपों में चुकाई गयी हैं. इस लम्बी लड़ाई में अमेरिकी सेना के 2300 से ज़्य़ादा पुरुष और महिलाओं को जान गंवानी पड़ी और 20,000 से ज़्यादा लोग घायल हुए हैं. अमेरिकी करदाताओं पर इससे क़रीब 1 ट्रिलियन डॉलर का बोझ बढ़ा है. इसके अलावा ब्रिटेन के 450 सैनिकों समेत दूसरे देशों के सैंकड़ों सैनिक मारे गए या घायल हुए हैं. लेकिन सबसे ज़्यादा नुकसान अफगानियों को हुआ है. उनके 60,000 से अधिक सुरक्षाकर्मी इस दौरान मारे गए और इससे दोगुनी संख्या में आम नागरिकों की जानें गयी हैं. फिलहाल अफगानिस्तान में अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी की सरकार है जो अंतरराष्ट्रीय सहयोग से वहां एक स्थिर सरकार और बेहतर माहौल चाहते हैं. मगर तालिबान अभी ज़िंदा है. अफगानिस्तान में उसके साथ शांति वार्ता का दौर जारी है.

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बीस साल बाद भी शांति नहीं

बीस साल की लम्बी लड़ाई के बाद भी अफगानिस्तान में अभी शांति स्थापित नहीं हो सकी है. लेकिन अमेरिका ने अब युद्ध समाप्ति की घोषणा कर दी है. अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी सैनिकों की घर वापसी की तैयारियां भी शुरू हो चुकी हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने अफगानिस्तान से इस साल सितम्बर माह तक अमेरिकी सेना को हटाने की बात कही है. ये और बात है कि बाइडेन के इस फैसले से भारत सहित कई देशों की चिंता बढ़ गयी है.

रिसर्च समूह एक्शन ऑन आर्म्ड फोर्सेस वॉयलेंस के मुताबिक 2020 में दुनिया के किसी भी देश की तुलना में विस्फोटक उपकरणों से मारे गए सबसे ज़्यादा लोग अफ़ग़ानिस्तान के थे. रिसर्च कहती है कि भले ही दो दशकों तक अंतरराष्ट्रीय फौजें अफगानिस्तान  में डेरा डाले रहीं मगर अल-कायदा, इस्लामिक स्टेट (आईएस) और अन्य चरमपंथी समूह फिर भी ख़त्म नहीं हुए हैं और पश्चिमी ताकतों के वहां से हटने का इंतज़ार कर रहे हैं. वे बेहतर तरीके से संगठित होने की कोशिश में भी हैं. जल्दी ही दक्षिण के अधिकांश हिस्सों में तालिबान वापस आ जाएगा और दोहा में शांति वार्ता और ज़मीन पर सेनाओं की वापसी के बाद वे पूरे देश के भविष्य में एक निर्णायक भूमिका निभाएगा.

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फौजों की वापसी से बढ़ी चिंता 

गौरतलब है कि अफगानिस्तान में उत्तर अटलांटिक संधि संगठन (नाटो) के लगभग दस हजार सैनिक तैनात हैं. इनमें लगभग साढ़े तीन हजार अमेरिकी फौजी हैं. पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में यह संख्या एक लाख से अधिक थी. ऑस्ट्रेलिया के भी करीब 80 सैनिक अफगानिस्तान में तैनात हैं. अब जबकि अमेरिका अपने सैनिकों को वापस बुला रहा है, तो अन्य देशों सहित ऑस्ट्रेलिया ने भी अपने सैनिकों की वापसी का ऐलान कर दिया है. ब्रिटेन भी अपने बचे हुए 750 सैनिकों को वापस बुला रहा है. इस तरह सितम्बर माह तक अफगानिस्तान बाहरी सैन्य ताकतों के दबाव से मुक्त हो जाएगा. लेकिन ये मुक्ति अफगानी नागरिकों के लिए ख़ुशी का नहीं बल्कि परेशानी का सबब बनने वाली है क्योंकि कट्टरपंथी तालिबान एक बार फिर अफगानिस्तान को अपनी जकड़ में कसने को तैयार बैठा है.

उल्लेखनीय है कि बीते 20 सालों में नाटो और अमेरिकी सेनाओं ने अफगानिस्तान के अधिकाँश हिस्से से खूंखार आतंकी संगठनों को खदेड़ कर बाहर कर दिया है. अमेरिका और ब्रिटिश सेना ने तालिबान को सत्ता से हटाकर उसकी सरपरस्ती में पल रहे आतंकी संगठन अलकायदा को पाकिस्तान की सीमा पर खदेड़ दिया. इसके अधिकांश आतंकी मारे गए. नाटो और अमेरिकी सेनाओं के अफगानिस्तान में लम्बे प्रवास के कारण अलकायदा, आईएसआईएस, पाकिस्तानी तालिबान,  बोको हरम, लश्कर और जैश-ए-मोहम्मद जैसे अनेकों आतंकी संगठनों की चूलें ढीली हो गयी और इस दौरान भारत पर भी आतंकी हमले काफी कम हुए. इसका श्रेय अमेरिकी सैनिकों को ही जाता हैं जिन्होंने अफगानिस्तान में तालिबानी संगठनों और दहशतगर्दों का जम कर सफाया किया है. मगर अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा अमेरिकी सैनिकों की घरवापसी के ऐलान ने अब अफगानिस्तान की सीमाओं से सटे कई देशों की चिंता बढ़ा दी है,

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खासतौर पर भारत की. क्योंकि अलकायदा, इस्लामिक स्टेट (आईएस) और अन्य चरमपंथी समूह अभी ख़त्म नहीं हुए हैं, उनका वर्चस्व वहां के कुछ सीमावर्ती इलाकों में है, जहाँ से वह पाकिस्तानी और अफगानिस्तानी सरकार को कभी-कभी डराते रहते हैं और मौक़ा पाते ही भारत में आतंकी गतिविधियों को अंजाम देते हैं. अमेरिकी सेना के लौटने की खबर से तालिबानी निश्चित ही उत्साहित हैं. इसका इंतज़ार उसे लम्बे समय से था और इस साल सितम्बर के बाद वे बेहतर तरीके से संगठित होने और पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्ज़े में करने की कोशिश करेंगे. गौरतलब है कि भारत का पड़ोसी पाकिस्तान जहाँ एक ओर तालिबान से दहशत खाता है, वहीँ भारत में गड़बड़ी फैलाने के लिए वह तालिबान की मदद भी लेता है

जो बाइडेन ने क्यों लिया ऐसा फैसला

अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की घर वापसी की बातें लम्बे समय से हो रही हैं. ट्रम्प सरकार ने भी कई मौकों पर ये बात कही कि अफगानिस्तान में शांति वार्ता संपन्न होते ही वह अपने सैनिकों को वापस बुला लेगा. मगर तारीख कभी तय नहीं हुई. वक़्त आगे खिसकता गया. मगर जो बाइडेन ने सत्ता में आने के कुछ माह में ही यह बड़ा फैसला ले लिया है. इस फैसले के पीछे कई कारण हैं. गौरतलब है कि कोविड-19 संक्रमण के कारण इस वक़्त अमेरिका काफी परेशान है. महामारी ने भारी आर्थिक क्षति तो पहुंचाई ही है, अमेरिकी नागरिक बड़ी संख्या में हताहत हुए हैं. विश्व भर में हुई हर छह मौतों में से एक मौत अमेरिका में हुई है. इस महामारी में अब तक 5,79,942 अमेरिकी अपनी जान गवां चुके हैं. ये आंकड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है. खबर लिखे जाने तक अमेरिका के 32,305,912 लोग कोरोना महामारी की चपेट में हैं. कब किसकी इहलीला समाप्त हो जाए, कहा नहीं जा सकता है. ऐसी हालत में मौत से डरे हुए लोग अपने परिजनों के ज़्यादा से ज़्यादा नज़दीक रहने की कोशिश कर रहे हैं. अफगानिस्तान में तैनात बहुतेरे अमेरिकी सैनिकों के परिजन इस महामारी में मारे गए हैं, जिससे सैनिकों में गहरा दुःख और अवसाद है. वे अपने घर लौटने के लिए छटपटा रहे हैं. दूसरी तरफ बहुतेरे परिवार जिनके सैनिक बेटे अफगानिस्तान में तैनात हैं वो उनसे मिलने के लिए व्याकुल हैं. लिहाज़ा इन सैनिकों की घरवापसी को लेकर परिजनों का खासा दबाव बाइडेन सरकार पर है.

दूसरा, डेमोक्रेटिक बाइडेन सरकार बेवजह की दिखावेबाजी और दुनिया पर अपना भौकाल तानने की जगह जमीनी बातों को ज़्यादा तरजीह दे रही है. राष्ट्रपति बाइडेन अपने नागरिकों के लिए ज़्यादा चिंतित और जवाबदेह होना चाहते हैं. वे अपनी सैन्य ताकत, ऊर्जा और धन अमेरिका को मजबूत करने में लगाना चाहते हैं. जबकि पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प सहित रिपब्लिकन पार्टी के कई नेता शोरशराबे और दिखावे में ज़्यादा विश्वास करते थे. उनके पास हल्ला ज़्यादा काम कम था. दुनिया का बाप बनने की उनकी इच्छा बिलकुल वैसी थी जैसी मोदी सरकार में विश्वगुरु बनने की चाह है. बाइडेन खामोश मगर धारदार नेता हैं. उनको अच्छी तरह पता है कि अफगानिस्तान में पनपने वाले आतंकी संगठनों का पहला शिकार भारत और पाकिस्तान होंगे. ऐसे में विश्व गुरु बनने का ढोल पीटने वालों को उनकी असली जिम्मेदारी सौंप कर बाइडेन अब तेल और तेल की धार देखना चाहते हैं. अमेरिकी सैनिकों की घर वापसी का ऐलान करते वक़्त जो बाइडेन ने मीठी छुरी से भारत को हलाल करते हुए कहा – ‘भारत, पाकिस्तान, रूस, चीन और तुर्की का अफगानिस्तान के स्थिर भविष्य में अहम योगदान है. इन क्षेत्रीय हितधारकों को इस युद्धग्रस्त देश में शांति लाने के लिए और अधिक कोशिशें करनी चाहिए, जहां से अमेरिका अपनी सेना को 11 सितंबर तक वापस बुलाने जा रहा है. हम क्षेत्र के अन्य देशों को अफगानिस्तान का समर्थन करने के लिए कहेंगे, खासकर पाकिस्तान से और साथ ही रूस, चीन, भारत व तुर्की से, जिनकी अफगानिस्तान के स्थिर भविष्य में अहम हिस्सेदारी है.’

खतरनाक हो सकते हैं नतीजे

नाटो और अमेरिकी सेनाओं के अफगानिस्तान से हटने के बाद तालिबान और उसकी पनाह में पलने वाले आतंकी संगठन और कट्टरपंथ बिना शक फिर मजबूत होगा और अफगानिस्तान पर एक बार फिर तालिबान का शासन हो सकता है. उल्लेखनीय है कि अफ़ग़ानिस्तान दुनिया में अफीम का सबसे बड़ा उत्पादक है. इसकी अधिकतर पैदावार तालिबान के कब्जे वाले इलाकों में होती है. ये तालिबान की कमाई का एक बड़ा ज़रिया है. इसके अलावा तालिबान उसके इलाके से होकर जाने वालों से और संचार, बिजली और खनिज जैसे कारोबार से भी कर वसूलता है. पाकिस्तान और ईरान तालिबान की मदद से इनकार करते रहे हैं लेकिन माना जाता है कि यहां रहने वाले लोगों से तालिबान को मदद मिलती है. इस तरह तालिबान अंदर ही अंदर काफी मजबूत है और बाहरी ताकतों के अफगानिस्तान से हटने के बाद वह और ज़्यादा मजबूत होगा.

‘न्यूयॉर्क टाइम्स’ लिखता है कि नाटो की अनुपस्थिति में अफगानिस्तान में लंबे समय तक आतंकवादी संगठनों पर रोक लगा पाना मुश्किल हो सकता है. इन संगठनों को तालिबान का फुल सपोर्ट रहता है. ऐसा ही कुछ वाशिंगटन पोस्ट ने भी कहा है. वह लिखता है – राष्ट्रपति बाइडेन ने अफगानिस्तान से हटने का सबसे आसान तरीका चुना है लेकिन इसके नतीजे खतरनाक हो सकते हैं.

ट्रंप प्रशासन में राष्ट्रपति की उप सलाहकार रहीं लीजा कर्टिस कहती हैं –  1990 के दशक में अफगानिस्तान पर तालिबान के नियंत्रण के वक्त उसने आतंकियों को पनाह दी और उन्हें प्रशिक्षित किया. लश्कर और जैश समेत कई आतंकी संगठनों से भारत में 2001 में संसद पर हमला कराया गया. इससे पहले 1999 में विमान अपहरण कांड भी हुआ था. इसलिए अमेरिका और नाटो के अफगानिस्तान से अपने सैनिकों को वापस बुलाने के बाद तालिबान और क्षेत्र को आतंकियों द्वारा सुरक्षित पनाहगाह के रूप में इस्तेमाल किए जाने की पूरी संभावना है और भारत को जबरदस्त चिंता होनी चाहिए. अमेरिका के लिए पाक के पूर्व राजदूत और हडसन इंस्टीट्यूट थिंक-टैंक में दक्षिण एवं मध्य एशिया मामलों के निदेशक हुसैन हक्कानी भी कहते हैं – तालिबान के कब्जे वाले क्षेत्र के आतंकियों की पनाहगाह बनने से भारत का चिंतित होना लाजमी है.

अफगानिस्तान में धार्मिक कट्टरता बढ़ेगी 

गौरतलब है कि तालिबान इस्लामिक कट्टरपंथ का घोर हिमायती है. वह बलपूर्वक औरतों को परदे में रखने, उनको शिक्षा से दूर रखने, मर्दों के दाढ़ी-टोपी और धार्मिक क्रियाओं का पाबंद करने वाला है. तालिबान ने सबसे पहले 1996 में काबुल पर क़ब्ज़ा किया था और लगभग दो सालों में पूरे देश पर शासन करने लगा था. उसने इस्लाम के कंट्टरपंथी रूप को बढ़ावा दिया और सरेआम फांसी जैसी सजाएं लागू कीं. तालिबान की सरपरस्ती में तमाम आतंकी संगठन अफगानिस्तान की जमीन पर खड़े हो गए, जो पूरी दुनिया में इस्लाम को फैलाने का सपना पालने लगे.

मगर अमेरिका और उसके सहयोगियों के हमले के दो महीनों के अंदर तालिबान का शासन ख़त्म हो गया और तालिबानी लड़ाके पाकिस्तानी सीमाओं पर जा छिपे. इसके बाद साल 2004 में अफगानिस्तान में अमेरिका के समर्थन वाली सरकार बनी, लेकिन पाकिस्तान के सीमांत इलाकों में तब भी तालिबान का दबदबा बना रहा. साथ ही उसने ड्रग्स, खनन और टैक्स के ज़रिए हर साल लाखों डॉलर की कमाई भी की. अंदर ही अंदर ताकत जुटाते रहे तालिबान ने लगातार आत्मघाती हमले किए और अंतरराष्ट्रीय व अफ़ग़ान सेना के लिए इन पर काबू पाना मुश्किल हो गया.

साल 2014 के अंत तक जब नाटो के देश इस लड़ाई में लंबे समय तक शामिल होने से पीछे हटने लगे तो अफगान सेना पर भार बढ़ गया. इससे तालिबान को और हिम्मत मिल गई. उसने अफगानिस्तान के कई इलाकों पर कब्जा कर लिया और लगातार बम धमाके किए. आज अफ़ग़ानिस्तान के 70 प्रतिशत हिस्से पर तालिबान खुले तौर पर सक्रिय है. वह इस्लाम के कट्टर रूप की शिक्षा का हिमायती है. शरिया या इस्लामी कानून को अपने अर्थों में प्रचारित करता है और क्रूर सज़ाओं के लिए जाना जाता है. पुरुषों को दाढ़ी बढ़ाने, औरतों को बुर्के में रखने के साथ वह लड़कियों की शिक्षा का विरोधी है. उसे टीवी, संगीत, सिनेमा से चिढ है. वह इसे इस्लाम के खिलाफ मानता है.

तालिबानी क्रूरता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उसने 1996 में शासन में आने के बाद लिंग के आधार पर कड़े कानून बनाए. इन कानूनों ने सबसे ज्यादा महिलाओं को प्रभावित किया. अफगानी महिला को नौकरी करने की इजाजत नहीं थी. लड़कियों के लिए सभी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दरवाजे बंद कर दिए गए थे. किसी पुरुष रिश्तेदार के बिना घर से निकलने पर महिला को कड़ी सज़ा दी जाती थी. पुरुष डॉक्टर द्वारा चेकअप कराने पर महिला का बहिष्कार किया जाता था. तालिबान के किसी भी आदेश का उल्लंघन करने पर महिलाओं को निर्दयता से पीटा और मारा जाता था. घर में गर्ल्स स्कूल चलाने वाली महिलाओं को उनके पति, बच्चों और छात्रों के सामने गोली मार दी जाती थी. प्रेमी के साथ भागने वाली महिलाओं को भीड़ में पत्थर मारकर मौत के घाट उतार दिया जाता था. गलती से बुर्का से पैर भी दिख जाए तो अधेड़ उम्र की महिला को भी पीट दिया जाता था. महिलाओं को घर में बंदी बनाकर रखे जाने के कारण तालिबानी शासन के दौरान महिलाओं में आत्महत्या के मामले तेजी से से बढे. अब जबकि तालिबान फिर सत्ता में आने को तैयार बैठा है, अफगानिस्तान की जनता में भय तारी है.

अफगानी महिलाओं में पसरा खौफ

अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा के बाद से अफगानी महिलाएं काफी डरी हुई हैं. बीते बीस सालों में उन्होंने जिस आज़ादी को जिया है वह उनसे फिर छिन जाएगी. अमेरिकी सैनिकों की वापसी से अफगानी महिलाओं काे तालिबान के लौटने का डर सताने लगा है. उन्होंने आशंका जताई है कि अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद देश में दोबारा तालिबान का कब्जा हो सकता है और उस सूरत में सबसे पहले औरतों पर उनका कहर टूटेगा.

हेरात यूनिवर्सिटी की छात्रा बसीरह हैदरी कहती हैं कि हमने तालिबान के खौफनाक दिन देखे हैं. आशंका है कि अब वे हमें घरों से नहीं निकलने देंगे. उनका कहना है कि तालिबानी उनके घर से बाहर निकलने पर पाबंदी लगा देंगे. अफगानिस्तान की पत्रकार आतिफा अलीजादे एक इंटरव्यू के दौरान बीबीसी से कहती हैं, ‘मेरे पिता डरे हुए हैं, उन्होंने मुझसे काम छोड़ने को कहा है.’ आतिफा ऐसा इसलिए कह रही हैं क्योंकि पिछले छह महीने में अफगानिस्तान में 8 पत्रकारों की हत्या कर दी गई है. ऐसे में आतिफा और उनके परिजनों को यह डर सता रहा है कि 11 सितंबर के बाद कहीं आतिफा के साथ भी ऐसा ही कुछ ना घटित हो.
एक अन्य छात्रा सलमा एहरारी ने कहा कि दुनिया इस बात को समझे कि तालिबान उन्हें मूर्ख बना रहा है. तालिबान अब भी नहीं बदला है. भले ही तालिबानी लोग सोशल मीडिया और आधुनिक टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल कर रहे हैं. लेकिन उनकी सोच आज भी सदियों पुरानी है. उनके रहते महिलाएं शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकतीं. हम अपनी पढ़ाई पूरी कर कुछ बड़ा काम करना चाहते थे. लेकिन तालिबान के आने के बाद यह कर पाना असंभव हो जाएगा. हम कट्‌टरपंथियों की सोच को कभी भी बदल नहीं सकते हैं.

भारत में घुसेंगे अफगानी

ज़ाहिर है कि तालिबान की कट्टरपंथी सोच और जुल्म से बचने के लिए अब बड़ी संख्या में अफगानी जनता वहां से पलायन करेगी. जो लोग आधुनिक सोच रखते हैं और अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा देना चाहते हैं, वे भला अफगानिस्तान में तालिबान की पाबंदियों में कैसे रह पाएंगे? वे परिवार सहित अन्य देशों का रुख करेंगे. अफगानिस्तान के सीमावर्ती देशो के साथ बड़ी संख्या में अफगानी भारत में भी घुसने की कोशिश करेंगे. ऐसे में भारत अतिथि देवो भवः का पालन करते हुए उनका स्वागत करेगा या उनको लौटा कर अपने छोटे दिल का परिचय देगा? जबकि बांग्लादेशी नागरिकों की समस्या से देश पहले ही उलझ रहा है. म्यांमार में तख्ता पलट के बाद वहां सेना की गोलियों से डर कर भारत में घुस आने वाले लोगों की संख्या का अनुमान अभी सरकार लगा नहीं पा रही है. ऐसे में अफगानिस्तान से आने वाले जनसैलाब का सामना भारत कैसे करेगा, यह बड़ा सवाल है.

भारत में बढ़ेगा आतंकवाद

तालिबानी लड़ाकों और दहशतगर्दों को नियंत्रित करने और उनका दमन करने वाली अंतर्राष्ट्रीय सेनाओं के अफगानिस्तान से हटते ही वहां आतंवादी संगठनों का जमावड़ा फिर से शुरू हो जाएगा. तालिबान इन्ही आतंकवादी गुटों के दम पर फूलता है. यही उसकी ताकत है जो उसकी सरपरस्ती में इस्लामिक कट्टरवाद को दुनिया पर थोपने की कोशिश में अन्य देशों में दहशतगर्दी फैलाते हैं. अमेरिकी सेना के हटने के बाद इस दहशतगर्दी से पाकिस्तान और भारत दोनों ही दो चार होंगे. अफगानी नागरिकों के भारतीय सीमा में घुसने के साथ चरमपंथी भी घुसेंगे और कश्मीर एक बार फिर उनका निशाना होगा. पाकिस्तान जो तालिबान से हमेशा दबता और डरता आया है, वह कश्मीर के मुद्दे पर उसका साथ भी देता है और कश्मीर को हथियाने के लिए अपनी जमीन पर उन्हें पोषित भी करता है. लिहाज़ा अब भारत को अपनी उत्तरी सीमाओं की चौकसी चार गुना बढ़ानी होगी, जिसका बोझ निश्चित ही आम जनता की जेब पर पड़ेगा.

अफगानिस्तान में भारत की भूमिका और भय 

अंतर्राष्ट्रीय समूह अफगानिस्तान में स्थिरता चाहता है. इसके लिए भारत सहित तमाम देश अफगान राष्ट्रपति अशरफ गनी को सहयोग कर रहे हैं. तालिबान के साथ शान्ति प्रक्रिया भी लगातार जारी है. तालिबान पर अलकायदा से संपर्क ख़त्म करने का दबाव भी है तो वहीँ भारत ने आतंकवाद, संगठित अपराध, स्वापक औषधियों के अवैध व्यापार और धन-शोधन के संकट के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए अफगान राष्ट्रीय रक्षा और सुरक्षा सेवाओं के लिए और अधिक सहायता प्रदान करने पर सहमति दी है. भारत अब तक अफगानिस्तान में 3 बिलियन डॉलर से ज्यादा का निवेश कर चुका है. ये निवेश ज्यादातर इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में हैं. लेकिन अफगानिस्तान की राजनीति में भारत का प्रभाव न के बराबर है.

दूसरी दिक्कत यह है कि वर्तमान भारत जहाँ ‘हिन्दू और हिंदुत्व’ का शोर ज़्यादा है, वह चारों ओर से ‘अहिन्दू’ राष्ट्रों से घिरा हुआ है. यही नहीं भारत का अपने किसी भी पड़ोसी मुल्क से दोस्ताना नहीं है. ऐसे में अगर अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना के जाने के बाद वहां तालिबान मजबूत होता है और उसकी सरपरस्ती में पल रहे आतंकी संगठन भारत में दहशतगर्दी फैलाते हैं, तो उस हालत में भारत की मदद के लिए किसी पड़ोसी देश के हाथ आगे नहीं बढ़ेंगे.

गौरतलब है कि पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश मुस्लिम राष्ट्र हैं. श्रीलंका हिंदू तमिलों के विभाजन की मांग के कारण हिंदू विरोधी है. वहीँ म्यांमार, भूटान बौद्ध धर्म को मानने वाले हैं और चीनी के नागरिक या तो बौद्ध धर्म में विश्वास रखते हैं या नास्तिक हैं. इसलिए ‘हिन्दू और हिंदुत्व’ का राग अलापने वाली भारत सरकार को इन देशों से तो अपनापन मिलेगा नहीं. भारत की विदेश नीति पहले ही लड़खड़ाई हुई है. अमेरिका भी कोई लंबा चौड़ा प्रेम भारत के साथ नहीं दर्शा रहा है. डोनाल्ड ट्रम्प के साथ भारतीय प्रधानमंत्री मोदी का याराना जो बाइडेन को शूल की तरह गड़ता होगा, भले वह इस बात को कभी जुबान पर ना लाएं. वहां की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की जड़ें भले ही भारत से जुड़ी हैं मगर कमला हिन्दू नहीं बल्कि ईसाई है. ऐसे में सब धर्मों को साथ लेकर आगे बढ़ने की बजाय सिर्फ हिन्दू राष्ट्र का सपना देखने वाली भाजपा सरकार को आने वाले समय में अफगानिस्तान की ओर से मिलने वाली चुनौतियां खासी मंहगी पड़ सकती हैं.

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