Constitution : भारत का संविधान 75 वर्षों से लोकतंत्र की नींव और स्वतंत्रता का सब से बड़ा रक्षक रहा है. यह मात्र एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक के अधिकारों, सम्मान और समानता का प्रतीक है. लेकिन संविधान पर बहस अकसर राजनीति और आरोपप्रत्यारोप के धुंधले परदों में गुम हो जाती है. संसद में हुई ताजा चर्चा भी इस से अलग नहीं थी. सवाल यह है कि क्या यह दस्तावेज अब भी आम लोगों के आत्मविश्वास का आधार बना हुआ है?

शीतकालीन सत्र में दिसंबर के तीसरे सप्ताह संसद में संविधान पर हुई बहस को दोटूक कहा जाए तो लगभग निरर्थक और बेमानी इन मानो में थी कि सत्ता और विपक्ष दोनों अपनीअपनी पार्टियों का एजेंडा आलापते नजर आए. दोनों ने ही अधिकतर वक्त व्यक्तिगत और दलगत आरोपप्रत्यारोपों में जानबू झ कर जाया किया ताकि मुद्दे की बातें न करनी पड़ें. संविधान कैसे आम लोगों के आत्मविश्वास और स्वाभिमान की सब से बड़ी वजह है, इस पर बोलने से सभी वक्ता कतराते नजर आए. कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी ने लोकसभा में बहस की शुरुआत जोरदार ढंग से की लेकिन बाद में वे भी सरकार को घेरने से चूक गए.

जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो शुरू से ही लड़खड़ाते नजर आए. लगा ऐसा मानो कि वे अभी भी लोकसभा चुनाव प्रचार कर रहे हों कि देश नेहरू और उन के परिवार के कारण पिछड़ा है. अब न तो यह राहुल गांधी ने पूछा या बताया और न ही किसी दूसरे कांग्रेसी ने कि अगर हम और हमारे पूर्वज नेहरू ने संविधान न बनाया होता और लागू भी न किया होता तो देश आज किन हाथों में होता और कहां खड़ा होता और खड़ा हो भी पाता या नहीं. इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि आधुनिक भारत की नींव रखने वाले नेहरू का आभार भाजपा दलगत राजनीति से परे हो कर क्यों नहीं मान पाती.

राहुल गांधी ने बहस को मनुस्मृति बनाम संविधान पर लाते भाजपा को घेरने में आंशिक तौर पर जरूर सफलता हासिल कर ली थी. उन्होंने महाभारत के प्रचलित प्रसंग गुरु द्रोणाचार्य द्वारा आदिवासी एकलव्य के अंगूठा काटे जाने को उठा कर भाजपा और हिंदूवादी संगठनों की दुखती और कमजोर नब्ज पर हाथ रखा. लेकिन तुरंत ही भाजपाइयों ने भी एकजुट हो कर आदतन हल्ला मचाते नेहरू और उन के परिवार को संविधान के दुरुपयोग की बाबत घेरा तो बहस पटरी से उतरती नजर आई.

पहले दिन जो दिलचस्पी आम लोगों की इस बहस में पैदा हुई थी वह दूसरे दिन ही फुस्स हो कर रह गई. दरअसल, लोग संविधान पर जिस स्तर की बहस की उम्मीद कर रहे थे उस में शामिल होना तो यह चाहिए था कि संविधान किसी को भी, यहां तक कि सरकार को भी, निरंकुश होने की छूट या इजाजत नहीं देता बल्कि उसे बाध्य करता है कि वह लोगों के अधिकारों की रक्षा करे. इस का हरेक अनुच्छेद सरकार के हाथ बांधते और मुश्कें कसता हुआ है जबकि आम धारणा यह है कि संविधान सरकार को कुछ भी करने की छूट देता है.

मनुवाद बनाम संविधान

इस के बाद भी इस बहस से जो तुक की बातें निचोड़ के तौर पर सामने आईं उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता, मसलन यह कि इस में कोई शक नहीं कि हिंदूवादी संगठन ऐसा संविधान नहीं चाहते थे जैसा कि यह है और इस का दोषी वे जवाहरलाल नेहरू को ठहराते हैं जिन्होंने, दरअसल, संविधान बनाया था. लेकिन इस का पूरा श्रेय उन्होंने डाक्टर भीमराव अंबेडकर के खाते में जाने दिया.

मुमकिन है नेहरू राजनीतिक वजहों के चलते हिंदूवादियों से सीधे न उल झना चाह रहे हों, दूसरे, मनुस्मृति आधारित देश की परिकल्पना को वे संविधान के जरिए ध्वस्त करने की अपनी मंशा पूरी कर चुके थे. बाद में हिंदू कोड बिल ने रहीसही कसर पूरी कर दी थी.

अंबेडकर घोषिततौर पर मनुवाद के घोर विरोधी थे लेकिन चूंकि दलित थे इसलिए 50 के दशक की तरह अब भाजपा और हिंदूवादी संगठनों की हिम्मत उन्हें कोसने की नहीं पड़ती क्योंकि दलित समुदाय समाज और राजनीति में अहम होते और ताकत बनते जाने के अलावा जागरूक होता जा रहा है.

2014 और 2019 के आम चुनाव में दलित वोटों के दम पर ही भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई थी. लेकिन 2024 के चुनाव में दलितों ने उसे अंगूठा दिखा दिया था, नतीजतन उसे बैसाखियों का सहारा ले कर सरकार बनानी पड़ी.

इस चुनाव में इकलौता मुद्दा संविधान ही था जिस के बारे में कांग्रेस लोगों को यह बताने में कामयाब रही थी कि अगर तीसरी बार मोदी सरकार सत्ता में आई तो अपने मंदिर मोह के चलते वह या तो संविधान को खत्म ही कर देगी या फिर इतना बेदम कर देगी कि दलितों, आदिवासियों, मुसलमानों और औरतों को पहले की तरह ऊंची जाति वालों की गुलामी ढोने को मजबूर होना पड़ेगा. यह बात असर कर गई जिस से 400 पार का ख्वाब देख रही भाजपा महज 240 सीटों पर सिमट कर रह गई.

लोग नरेंद्र मोदी के 2 मई को दिए एक पब्लिक मीटिंग में उस भाषण से भी डर गए थे जिस में उन्होंने संविधान की तुलना धर्मग्रंथों से कर दी थी.

संविधान की 75वीं वर्षगांठ पर संसद में हुई संविधान पर बहस के मद्देनजर सोचना स्वाभाविक है कि अगर संविधान पूरी तरह अंबेडकर की परिकल्पना था तो भाजपाई और हिंदूवादी संगठन बजाय उन्हें दोष देने के नेहरू को ही क्यों संविधान की बाबत कोसते रहते हैं और उलटे हैरतअंगेज तरीके से भीमराव अंबेडकर का पूजापाठ वे हिंदू देवीदेवताओं की तरह क्यों करने लगे हैं. जाहिर है, नेहरू और उन के वंशजों को कोसना आसान काम है बनिस्बत अंबेडकर को कोस कर दलितों से सीधा पंगा लेने के, जो खुद को सामूहिक गर्व से अंबेडकर की संतान कहते हैं.

कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह गलत नहीं कहा कि आरएसएस ने जम कर संविधान का विरोध किया था क्योंकि यह मनुस्मृति पर आधारित नहीं था.

संविधान जब बना उस वक्त इन लोगों ने संविधान जलाया, रामलीला मैदान में नेहरू, बाबासाहेब और महात्मा गांधी  के पुतले जलाए. खड़गे ने आरएसएस मुखपत्र ‘और्गेनाइजर’ की तत्कालीन संपादकीय का हवाला देते कहा कि इन्होंने न तो संविधान को स्वीकार किया और न ही तिरंगे  झंडे को माना.

कोर्ट के आदेश पर इन्हें 26 जनवरी 2002 को मजबूरी में संघ मुख्यालय पर तिरंगा फहराना पड़ा. बाबासाहेब यानी भीमराव अंबेडकर को इन लोगों ने भगवा  झंडा दिखाया था. खड़गे यहीं नहीं रुके, उन्होंने सरकार को यह कहते भी घेरा कि उस ने 11 साल संविधान को मजबूत करने का क्या काम किया, वह बताए.

जिस तरह संसद में संविधान पर हुई बहस बेमानी और निष्कर्षहीन है उसी तरह इस बहस में किस ने क्या कहा, यह भी बेमानी ही होगा क्योंकि संविधान वह किताब है जो आम लोगों को उन के अधिकारों के प्रति न केवल आश्वस्त करती है बल्कि उन्हें स्वाभिमान से जीने की गारंटी भी देती है.

यह धर्मग्रंथों की तरह लोगों को पापपुण्य, स्वर्गनरक और अगले जन्म की योनि का डर नहीं दिखाती. जाहिर है संविधान वेद, पुराणों, स्मृतियों, उपनिषदों, संहिताओं, रामायणों और श्रीमद् भगवदगीता जैसे धर्मग्रंथों से कहीं ज्यादा प्रभावी और उपयोगी है.

भाजपा और कांग्रेस दोनों ही इस की रक्षा और सम्मान करने की कसमें सड़क से ले कर संसद तक में खाने लगे हैं तो इस से संविधान की अहमियत ही उजागर होती है. लेकिन संसद में हुई बहस जो सोशल मीडिया के जरिए लोगों तक पहुंची उस से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कट्टर हिंदूवादियों और जातिगत श्रेष्ठता से ग्रस्त सवर्णों के मन में संविधान को ले कर एक कसक और टीस तो है कि यह ऐसा क्यों है जैसा कि है, यह वैसा क्यों नहीं है जैसा कि विनायक सावरकर हेडगेवार, गोलवलकर और करपात्री महाराज जैसे उन के अगुआ कट्टर हिंदूवादी नेता चाहते थे. इसलिए अधिकतर सवर्ण इस मसले पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शान में कसीदे नहीं गढ़ पाए. वजह यह स्पष्ट हो जाना है कि अब इस संविधान को वे भी खत्म नहीं कर सकते. और तो और, मनमाफिक और मनमरजी के संशोधन भी वे नहीं कर सकते.

मिला वोटिंग का हक

संविधान के लागू होते वक्त इस पर हायहाय करते कट्टरवादियों के मुकाबले खासतौर से दलित आदिवासी, मुसलमान और औरतें रोमांचित और खुश थे क्योंकि उन्हें वोट देने का हक पहली बार मिला था, जिस के इस्तेमाल से वे अपनी पसंद की सरकार चुन सकते थे.

यह अधिकार उन के लिए अकल्पनीय था क्योंकि तत्कालीन समाज में उन की हैसियत गुलामों और मवेशियों सरीखी सी ही थी. इस से छुटकारा चूंकि कांग्रेस, नेहरू और अंबेडकर का बनाया संविधान दिला रहा था इसलिए लंबे वक्त तक वे कांग्रेस को ही चुनते हुए उस के प्रति आभार व्यक्त करते रहे और शायद आगे भी करते रहते यदि इंदिरा गांधी ने संविधान का मनमाना इस्तेमाल करते 1975 में इमरजैंसी न थोपी होती.

आम लोग संविधान से मिले अपने मौलिक अधिकारों के प्रति कितने संजीदा और सजग थे (और अभी भी हैं), इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि संविधान में किया गया 42वां संशोधन उन्हें रास नहीं आया था जोकि आपातकाल लागू करने के लिए किया गया था.

आज की तरह लोग तब भी धर्मस्थलों से ज्यादा कानून और अदालतों पर आंख बंद कर भरोसा करते थे जिसे इंदिरा गांधी ने तोड़ा तो 1977 के आम चुनाव में वोटरों ने उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने में देर नहीं की थी. अपनी आजादी और दूसरे मौलिक अधिकारों की हिफाजत लोगों ने की तो उसी वोट की ताकत से की जो कांग्रेस ने ही उन्हें संविधान के जरिए दी थी.

यूनिवर्सल सफ्रिज का अधिकार

नागरिक शास्त्र में मामूली दिलचस्पी रखने वाला व्यक्ति भी बेहतर जानता है कि जिस देश में जितने ज्यादा लोगों को मतदान का अधिकार मिला होता है वह देश उतना ही जनतांत्रिक होता है.

इस लिहाज से भारत सब से बड़ा जनतांत्रिक है क्योंकि दुनिया में सब से ज्यादा वोटर यहीं हैं. संविधान का अनुच्छेद 326 एक सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार को निर्वाचित सरकार के सभी स्तरों के चुनावों के आधार के रूप में पारिभाषित करता है. इस यूनिवर्सल सफ्रिज या  सर्वजनित मताधिकार का सीधा सा मतलब यह होता है कि सभी वे नागरिक जो 18 साल या उस से ज्यादा की उम्र के हैं उन की जाति, लिंग, शिक्षा, रंग, धर्म, प्रजाति और आर्थिक परिस्थितियों के बावजूद उन्हें वोट देने की आजादी है.

इस आजादी ने लोगों को तमाम तरह के जातिगत व धार्मिक मतभेद भुलाते एक लाइन में लगने को मजबूर कर दिया. यह वंचित और शोषित कहे जाने वाले वर्ग की पहली जीत या उपलब्धि थी जिस ने उन्हें अपने वजूद का एहसास कराया वरना तो ज्यादा नहीं, 40 के दशक में हालात यही थे कि दलित का सामने पड़ जाना भी ऊंची जाति वालों को पाप कुंड में ढकेलने वाला माना जाता था. दलितों को सार्वजनिक स्थलों पर जाने की कहींकहीं अघोषित और ज्यादातर जगहों पर घोषिततौर पर मनाही थी. वे कुओं और नदी के घाटों से पानी भी नहीं भर सकते थे. उन के कुएं अलग होते थे, नदियों पर घाट अलग होते थे, उन की बस्तियां अलग होती थीं, महल्ले अलग होते थे. और तो और, उन के श्मशान घाट तक अलग होते थे.

अस्पृश्यता बना अपराध

आज के डिजिटल दौर में भी यह रोग आंशिक रूप से ही सही, कायम है. लेकिन अब कोई भी खुलेआम छुआछूत नहीं फैला सकता क्योंकि ऐसा करना कानूनन दंडनीय अपराध है. सड़क से ले कर संसद तक में भाजपा और उस के पूर्वज दलों हिंदू महासभा, रामराज्य परिषद और जनसंघ सहित आरएसएस को मनुवादी करार देना कांग्रेस के लिए जितना आसान काम है उस से कहीं ज्यादा दुष्कर उन्हें आम आदमी को यह बताना है कि कैसे यह मनुवादी व्यवस्था उन के पूर्वजों ने कानून बनाने के बाद संविधान में वोट देने का हक दे कर दरकाई जिस ने लोगों में आत्मसम्मान, आत्मविश्वास और स्वाभिमान का जज्बा पैदा किया.

संविधान का अनुच्छेद 17 दोटूक कहता है कि अस्पृश्यता का अंत किया जाता है और उस का किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध किया जाता है. ‘अस्पृश्यता’ से उपजी किसी निर्योग्यता को लागू करना अपराध होगा जो विधि के अनुसार दंडनीय होगा.

इस कानून के लागू होने के बाद यह जिम्मेदारी सरकार के कंधों पर आ गई कि वह छुआछूत फैलाने वालों को सजा दिलवाए. यह और बात है कि ऐसा पूरी तरह संभव हो नहीं पाया क्योंकि दबंग सवर्ण अपना धार्मिक और जातिगत पूर्वाग्रह नहीं छोड़ पा रहे.

इस में उन्हें हेठी लगती है लेकिन कानून के आगे उन की एक नहीं चलती जबकि इस से पहले वे जब चाहे, जैसे चाहे, जहां चाहे शूद्रों को लतियाते रहते थे, लेकिन मतदान के सर्वजनित अधिकार ने उन्हें दलितों के बराबर खड़े रहने को मजबूर कर दिया क्योंकि यह मंदिरों के दर्शन वाली लाइन नहीं थी और न है, जिस पर दलितों के लिए नो एंट्री की सनातनी तख्ती सदियों से लटकी है.

संविधान पर हुई बहस में लोकसभा और राज्यसभा दोनों में एक बात जो प्रमुखता से नहीं कही गई वह थी वोट का अधिकार. जहां जनता के पास, भारतीय जनता के पास पैदा होने, खानेपीने, उपजाने, खर्च करने, काम करने, पीटने, पिटने, शादी करने, संपत्ति जमा करने, बच्चों को बांटने, दूसरों के लूटने, मारने, मरने के अवसर प्राकृतिक मिले थे, हक नहीं. वोट कर के अपने हाकिम को चुनने का अवसर नहीं ‘हक’ पहली बार इस संविधान ने दिया था.

1946 में जो अस्थाई सरकार बनी थी वह अंगरेजों के अधीन देश में (रियासतों में नहीं) चुनावों से चुन कर आए लोगों से बनी थी पर इस चुनाव में वोट देने का हक मुश्किल से 13 प्रतिशत लोगों को था. 1950 में लागू हुए विभाजित भारत के हर नागरिक, जो 25 साल से ज्यादा की उम्र का था, को यह हक मिला था.

यह हक बहुत बड़ा था क्योंकि कानूनी तौर पर यह ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, शूद्रों को तो था ही, यह अछूतों को भी मिला था जो 1952 के हुए चुनावों में वोट देने के हकदार बने थे. संविधान के इस हक की महिमा यह है कि आज ऊंची जातियों के लोगों को न केवल शूद्रों को ऊंची जातियों में शामिल करना पड़ रहा है, उन्हें औरतों और अछूतों को पुचकारने के लिए उन के घरों में जाना पड़ रहा है, उन को ‘मुफ्त’ खाना (यह टैक्स के पैसे का है, अडानीअंबानी के चंदे का नहीं) देना पड़ रहा है और अब औरतों, जिन में दलित यानी अछूत औरतें शामिल हैं, को नकद पैसा उन के खाते में डालना पड़ रहा है.

वोटिंग राइट से मिला समानता का हक

जो भी सुधार सरकारों ने पिछले 75 सालों में किए थे उन के पीछे इस वोट के अधिकार का डर था. किसानों का वोट लेने के लिए हिंदू जमींदारी समाप्त की गई, औरतों को हक देने के लिए पुरुषों से बहुविवाह का हक 1955 में छीन लिया गया, पंडों को धता बताते हुए बिना पंडितों के विवाह का प्रावधान स्पैशल मैरिज एक्ट में किया गया. स्कूल खोले गए. अस्पताल खुले. सड़कें बननी शुरू हुईं, अकाल से निबटने के लिए राशन व्यवस्था शुरू हुई जिस में हरेक को बराबर अन्न मिला. एक जना, एक वोट का अधिकार न मिलता तो यह संभव नहीं था.

हर व्यक्ति को वोट का हक स्वंतत्रता संग्राम की मांगों का बड़ा हिस्सा कभी नहीं था. महात्मा गांधी और सरदार वल्लभभाईर् पटेल इस पर चुप ही रहे थे. व्हाट्सऐप के आर्टिफिशियल इंटैलिजैंस टूल से इस सवाल पर पूछो तो साफ कहता है कि उन के स्पष्ट विचार कहीं इस बारे में कहीं नहीं हैं. सरदार पटेल की बड़ी मूर्ति इस बात की निशानी है कि इस को बनवाने वालों की यूनिवर्सल एडल्ट फ्रैंचाइज पर कोई दिलचस्पी नहीं है. मोतीलाल नेहरू और भीमराव अंबेडकर ने बहुत पहले से इस की मांग करनी शुरू कर दी थी जब स्वतंत्र भारत की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.

‘वन नेशन वन इलैक्शन’ का असली अर्थ संविधान के मौलिक से भी ज्यादा मौलिक अधिकार वोट के अधिकार का ‘वन नेशन का इलैक्शन’ में बदलना है. नरेंद्र मोदी जो अकेले अपने बलबूते 2014 के चुनाव जीतते रहे हैं, बारबार के चुनावों से थक गए हैं. वे इस बो झ को समाप्त करना चाहते हैं.

2004 में सुप्रीम कोर्ट के जज जी एस सिंघवी ने कहा था कि डैमोक्रेसी संविधान के मूलभूत ढांचे का अभिन्न अंग है और समयसमय पर चुनाव होना जरूरी है ताकि लोग उन्हीं लोगों को फिर से चुनें या हराएं या नयों को चुनें. चुनाव फ्री होने चाहिए. चुनावों में किसी तरह का मैनीपुलेशन न हो, चुनावों में खड़े उम्मीदवारों के एजेंट कुछ गलत तरीके से इस्तेमाल न करें.

यही शब्द 1975 में एच आर खन्ना ने इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण के मुकदमे मेंआपातकाल के दौरान दिए गए एक निर्णय में कहे थे.

विंस्टन चर्चिल, जो इंगलैंड के युद्ध के समय प्रधानमंत्री और इंगलैंड में लोकतंत्र के पक्ष में थे पर कालोनियों को आजादी नहीं देना चाहते थे, ने कहा था, ‘‘लोकतंत्र को दिए गए सभी धन्यवादों के मूल में वह छोटा (अनजाना सा) आदमी है जो एक छोटे से बूथ में, एक छोटी सी पैंसिल के साथ, एक कागज पर क्रौस बनाता चलता है. कोई भी बयान, कोई भी भारीभरकम बहस, इस छोटे से काम से ज्यादा महत्त्व नहीं रखती.’’

चुनावों का अधिकार इस संविधान का सब से बड़ा अधिकार है. शूद्रों, जिन्हें आज पिछड़ा कहा जा रहा है, सवर्णों की औरतों, दलितों को इस संविधान ने जो सब से बड़ा कामयाब हथियार व हक दिया है, वह वोट देने का हक है. उसे छीनने के हर प्रयास पर जनता को खड़ा होना होगा क्योंकि इस में कोई भी दरार सरकारी तांडव के जहरीले समुद्र के पानी से लोकतंत्र के खुशनुमा बाग को नष्ट कर देगी और कांटेदार पेड़ों की छांव में जनता को रहने को मजबूर कर देगी.

सरकार हुई बाध्य

बात अकेले इस तरह के मूल अधिकारों (समानता का अधिकार अनुच्छेद 14 से 18, स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 19 से 22, शोषण के विरुद्ध अधिकार अनुच्छेद 23 व 24, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार अनुच्छेद 25 से 28, सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार अनुच्छेद 29 व 30 और अनुच्छेद 32 में वर्णित संवैधानिक उपचारों का अधिकार) की नहीं है जिन्हें 75 साल बाद अधिकतर लोग जाननेसम झने लगे हैं बल्कि इस से भी आगे बहुतकुछ है जो सरकार को बाध्य करता है कि वह मौलिक अधिकारों के साथसाथ नागरिकों के दीगर हितों की हिफाजत करे, मसलन –

अनुच्छेद 20 ( 1 ) : कोई व्यक्ति किसी भी अपराध के लिए तब तक सिद्ध दोषी नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि उस ने ऐसा कोई कार्य करने के समय, जो अपराध के रूप में आरोपित है, किसी प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण नहीं किया है या उस से अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा जो उस अपराध के किए जाने के समय प्रवृत्त विधि के अधीन अधिरोपित की जा सकती थी.

संविधान की यह भाषा बेहद क्लिष्ट है जिस से आम लोग इसे पढ़ने और सम झने में हिचकते हैं, इसलिए बहस तो इस के सरलीकरण पर भी होनी जरूरी है. अस्तु उक्त अनुच्छेद का अभिप्राय यह है कि किसी भी व्यक्ति को ऐसे कार्य के लिए सजा नहीं दी जा सकती जो उस समय अपराध नहीं था.

अनुच्छेद 301 : व्यापार, वाणिज्य और समागम की स्वतंत्रता – इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए भारत के राज्य क्षेत्र में सर्वत्र व्यापार, वाणिज्य और समागम अबाध होगा.

जाहिर है, यह अनुच्छेद यह सुनिश्चित करता है कि पूरे देश में व्यापार, वाणिज्य और संभोग आजादी से किए जा सकते हैं. यदि तमिलनाडु का कोई व्यक्ति दिल्ली जा कर व्यापार करना चाहता है तो उसे रोकने का हक किसी को नहीं है. इसी तरह दिल्ली का कोई व्यापारी चेन्नई जा कर व्यापारव्यवसाय करना चाहे तो उसे भी रोका नहीं जा सकता. न ही राज्य सरकार ऐसा कोई कानून बना सकती है और न ही स्थानीय निकाय और न ही पुलिस रोक सकती है. इस अनुच्छेद में

2 वयस्कों को देश के किसी भी हिस्से में जा कर संभोग तक करने की स्वतंत्रता दी गई है यानी भोपाल का कोई कपल मुंबई जा कर सैक्स करे तो वह अपराध नहीं होगा जैसे कि भोपाल में भी नहीं था.

सैक्शन 39 ए – राज्य के नीतिनिर्देशक तत्त्व के तहत – राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि विधिक तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और वह विशिष्टतया यह सुनिश्चित करने के लिए कि आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाए, उपयुक्त विधान या स्कीम द्वारा किसी अन्य रीति से निशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करेगा.

गरीबों और कमजोर लोगों के लिए मुफ्त न्याय की धारणा बिलाशक सराहनीय है लेकिन इस की चर्चा किसी संसद या विधानसभा में नहीं होती और इस पर विपक्ष भी सरकार को नहीं घेरता तो यह उस की असफलता और उदासीनता ही कही जाएगी.

एनसीआरबी के आंकड़े आएदिन यह हकीकत उजागर करते रहते हैं कि लाखों बेगुनाह (2021 में इन की तादाद 4,27,165 थी) जेलों में सिर्फ इसलिए सड़ रहे हैं क्योंकि उन के पास जमानत या मुकदमा लड़ने के पैसे नहीं हैं.

आंकड़ों के मुताबिक भारतीय जेलों में 77 फीसदी कैदी विचाराधीन कैदी हैं. ये ऐसे आरोपी हैं जिन्हें किसी अदालत द्वारा दोषी करार नहीं दिया गया है. फिर ये लंबे समय तक जेलों में क्यों ठूंस कर रखे जाते हैं, इस पर हरकोई खामोश रहता है.

अनुच्छेद 300 क –  किसी व्यक्ति को उस की संपत्ति से विधि के प्राधिकार से ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं.

यह एक दिलचस्प अनुच्छेद है जो पहले मौलिक अधिकारों में शामिल था. 1978 के संशोधन के तहत इसे संवैधानिक अधिकारों में शामिल कर दिया गया था. यह एक समाजवादी किस्म की ही सोच है कि सरकार किसी व्यक्ति को राजशाही की तरह उस की निजी संपत्ति से उचित प्रक्रिया अपनाए या जबरिया बिना किसी कानूनी प्रावधान के छीन नहीं सकती. यानी, सरकार के हाथ यहां भी बंधे हुए हैं. यह सोचना बेमानी है कि सरकार जब चाहे, जैसे चाहे किसी भी नागरिक की जमीनजायदाद राजा, महाराजा, नवाबों की तरह छीन सकती है.

कहां मात खा रहा विपक्ष

दर्जनों प्रावधान संविधान में हैं जो सरकार के हाथ बांधते हैं. संसद में हुई बहस में इन का कहीं जिक्र न होना विपक्ष के भी लापरवाह होने का सुबूत है. देश का यह वह दौर है जिस में मंदिरों का जनून सिर चढ़ कर बोल रहा है. धार्मिक बैर और उन्माद किसी सुबूत का मुहताज नहीं. इस संवेदनशील मुद्दे पर विपक्ष का आक्रामक होना अपनी जगह ठीक है लेकिन धर्म से इतर भी संविधान में काफीकुछ है जिसे आम लोगों तक पहुंचाने की जिम्मेदारी समूचे विपक्ष और उस में भी खासतौर से कांग्रेस को उठानी चाहिए तभी वह अपने पूर्वजों के बनाए संविधान की सार्थकता साबित कर पाएगी.

लेकिन इस के लिए वह क्या करे, इस का जवाब या उपाय बेहद सरल है कि जिस तरह भाजपा ने गलीमहल्लों तक के मंदिरों और मड़ीयाओं (बहुत छोटे मंदिर) को अपने प्रचार का जरिया बना रखा है उसी तर्ज पर वह महल्ला वार्ड और गांव स्तर पर संविधान जागरूकता केंद्र खोल कर संविधान के बारे में सत्यनारायण की कथाओं की तर्ज पर बताए कि इस में क्याक्या लिखा गया है और उस में से क्याक्या सरकार नहीं कर रही है.  विपक्षी दल अपने वकीलों के माध्यम से संवैधानिक अधिकार आम आदमी को दिला सकते हैं.

संवैधानिक अधिकार हर वह अधिकार है जो संविधान के अंतर्गत बने कानून और प्रशासन व्यवस्था के अनुसार प्रशासन की जिम्मेदारी है. इस में थाने की धौंस, न्याय में देरी, अस्पताल में इलाज, गरीब बच्चों की पढ़ाई, लड़कियों को सुरक्षा, टैक्स इंस्पैक्टरों की मनमानी, कच्ची सड़कें सब शामिल हैं.

हर मामले को आवेदन दे कर अदालत, नगर परिषद, विधानसभा, लोकसभा, प्रशासनिक अधिकारी को खटखटाया जा सकता है. यह बहुत महंगा काम भी नहीं है जिस में एक संविधान जागरूकता केंद्र पर 3-4 हजार रुपए महीने से ज्यादा खर्च नहीं आना चाहिए. लेकिन उस से फायदा लाखोंकरोड़ों को होगा, नहीं तो संसद की बहसों का अंजाम क्या होता है, यह भी हरकोई जानता है कि वे चंद दिनों बाद ही भुला दी जाती हैं जिस से आम वोटर उन से कनैक्ट होने के पहले ही डिस्कनैक्ट हो जाता है.

संविधान ने 75 साल में जो रोशनी दी है उसे घरघर, गलीगली पहुंचाने के लिए बिजली के खंभों की तरह संविधान जागरूकता केंद्र तो विपक्ष को खोलने ही पड़ेंगे और यह अब रोशनी की तरह देश की जरूरत भी हो चली है.

संविधान घरघर, गलीगली पहुंचे, यह जरूरी है. संविधान अमीरों की बपौती नहीं है, यह सब से निचले, दबे, कुचले निवासी का कवच है जिसे सरकार भेद नहीं सकती. इसे पहनाया जाए, यह राजनीति का फर्ज है, सिर्फ लोकसभा व राज्यसभा में बहस से काम नहीं चलेगा.

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