Constitution : भारत का संविधान 75 वर्षों से लोकतंत्र की नींव और स्वतंत्रता का सब से बड़ा रक्षक रहा है. यह मात्र एक कानूनी दस्तावेज नहीं, बल्कि देश के हर नागरिक के अधिकारों, सम्मान और समानता का प्रतीक है. लेकिन संविधान पर बहस अकसर राजनीति और आरोपप्रत्यारोप के धुंधले परदों में गुम हो जाती है. संसद में हुई ताजा चर्चा भी इस से अलग नहीं थी. सवाल यह है कि क्या यह दस्तावेज अब भी आम लोगों के आत्मविश्वास का आधार बना हुआ है?

शीतकालीन सत्र में दिसंबर के तीसरे सप्ताह संसद में संविधान पर हुई बहस को दोटूक कहा जाए तो लगभग निरर्थक और बेमानी इन मानो में थी कि सत्ता और विपक्ष दोनों अपनीअपनी पार्टियों का एजेंडा आलापते नजर आए. दोनों ने ही अधिकतर वक्त व्यक्तिगत और दलगत आरोपप्रत्यारोपों में जानबू झ कर जाया किया ताकि मुद्दे की बातें न करनी पड़ें. संविधान कैसे आम लोगों के आत्मविश्वास और स्वाभिमान की सब से बड़ी वजह है, इस पर बोलने से सभी वक्ता कतराते नजर आए. कांग्रेस की तरफ से राहुल गांधी ने लोकसभा में बहस की शुरुआत जोरदार ढंग से की लेकिन बाद में वे भी सरकार को घेरने से चूक गए.

जबकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो शुरू से ही लड़खड़ाते नजर आए. लगा ऐसा मानो कि वे अभी भी लोकसभा चुनाव प्रचार कर रहे हों कि देश नेहरू और उन के परिवार के कारण पिछड़ा है. अब न तो यह राहुल गांधी ने पूछा या बताया और न ही किसी दूसरे कांग्रेसी ने कि अगर हम और हमारे पूर्वज नेहरू ने संविधान न बनाया होता और लागू भी न किया होता तो देश आज किन हाथों में होता और कहां खड़ा होता और खड़ा हो भी पाता या नहीं. इस से भी ज्यादा अहम बात यह कि आधुनिक भारत की नींव रखने वाले नेहरू का आभार भाजपा दलगत राजनीति से परे हो कर क्यों नहीं मान पाती.

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