उस दिन मैं खूब रोई थी. मैं समझ नहीं पाई थी कि लाइन में लगने से किसी पिता को कैसे
झुकना पड़ता है? इस में सूसाइड करने वाली क्या बात है? वे मेरे पिता कैसे हो सकते हैं जो बातबात पर सूसाइड की धमकी देते हैं. मन हुआ था, मैं अभी उठ कर घर चली जाऊं. पर बीमार थी, इसलिए जा नहीं पाई.
डाक्टर ने चैक किया, सब ठीक था. कहा, ‘सब ठीक है. इसे खूब खेलने और खाने को दो. खूब
बातें करे. यह डिप्रैशन का शिकार है. ये कुछ दवाइयां हैं, खाती रहे. इस से भूख लगेगी और नींद आएगी.’
उस दिन से मैं खेल न सकी, खाने को मिला लेकिन कई बातों के साथ. खुद बना कर खाना पड़ता था. मन के भीतर पिता को ले कर आज भी जबरदस्त आक्रोश है. क्या सच में पिता ऐसे होते हैं? यह प्रश्न उस समय भी पीड़ा देता था और आज भी पीड़ा देता है. यह सब सोचतेसोचते जाने कब आंख लग गई.
नींद खुली तो इंटरकौम की घंटी बज रही थी. मैं ने हैलो कहा. उधर से आवाज आई, “हैलो, डा. प्रिया, गुडमौर्निंग. मैं नागौर की जिलाधीश, डा. रजनी शेखावत बोल रही हूं. नागौर की डीएम
पोस्ट पर आप का स्वागत है और बधाई.’’
“गुडमौर्निंग मैम, थैंक्स मैम.’’
‘‘मैं ने आप को इसलिए फोन किया है कि पूछूं, आप ठीक से सैटल हो गईं? रैस्ट हाउस में कमरा
ठीक मिला? सब तरह की सुविधाएं हैं? कोई तकलीफ तो नहीं?”
“बिल्कुल सैटल हो गई हूं, मैम. हर तरह की सुविधा है. 2 इंस्पैक्टर चौबीस घंटे मेरा ध्यान
रखने के लिए डिटेल हैं.”
‘‘ठीक है, अपना ध्यान रखना. इंस्पैक्टर को बताए बिना कहीं नहीं जाना है, ओके. सोमवार को
मिलते हैं, बाय.’’
“बाय मैम.’’
मन खुश हो गया था. एक महिला जिलाधीश के अंडर में काम करने का मौका मिलेगा. बहुतकुछ सीखने को मिलेगा.
मन किया कि चाय पिऊं. मैं ने मैस में और्डर किया. दस मिनट में शानदार चाय आई. चाय पी कर मैं फिर लेट गई. मैं फिर अपने में खोने लगी. एक बार मेरे लिए नवलग से रिश्ता आया था. लड़के का खुद का कपड़े का व्यापार था. नानानानी बोले थे, ‘कर दो शादी.
बहुत पैसा है. पढ़ाई में कहां सिर फोड़ेगी?’
मन गुस्से से भर उठा था. कैसी घटिया सोच है? लड़की को घर से बाहर धकेल दो. चाहे बाहर नर्क हो या गहरा कुआं? इन लागों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. सदियों से चली आ रही इस सोच में अकसर सभी लड़कियां बह जाती हैं. उन को जीवन में कोई थाह नहीं मिलती है. जीवनभर वे नर्कों में जीती हैं. दोष कर्मों को दिया जाता है. सच में यह क्या कर्मविधान है? बचपन से हमें यही सिखाया जाता है.
एक बजने वाला था. एक से तीन बजे लंच करने का टाइम था. मैं धीरेधीरे तैयार हुई और लिफ्ट की ओर बढ़ी. लिफ्ट के आगे बने हौल में बहुत से सोफे लगे थे. उस पर बैठी इंस्पैक्टर संगीता तुरंत मेरे साथ हो ली, कहा, ‘‘मैडम, जब आप कमरे से बाहर निकलने लगें, हमें जरूर बताएं.’’
“पर इतने बंधन क्यों? ये कुछ ज्यादा ही बंधन नहीं हैं?”
‘‘मैडम, ऐसे ही आदेश हैं. हमें इन आदेशों का पालन करते रहना है. कृपया सहयोग करें.’’
मैं कुछ नहीं बोली थी. मैस के डाइनिंग हौल में जब मैं बैठ गई तो इंस्पैक्टर संगीता ने कहा,
‘‘मैडम, मैं बाहर बैठी हूं.’’
खाना खा कर मैं बाहर आई तो इंस्पैक्टर संगीता फिर मेरे साथ हो ली. खाना बहुत टैस्टी और
शानदार था. लिफ्ट में मैं ने बताया, ‘‘इंस्पैक्टर संगीता, मैं शाम को 5 बजे सुपरमार्केट जाना
चाहूंगी.’’
‘‘ठीक है, मैडम. इंस्पैक्टर रवीना आप को एस्कोर्ट करेगी. 5 वजे वह आप को रिपोर्ट करेगी.
मेरी डयूटी 5 बजे तक ही है.’’
मैं अपने कमरे में लौट आई. 5 बजे इंस्पैक्टर रवीना आई और मैं उस के साथ सुपरमार्केट
जा कर सामान ले आई. रात को डिनर किया और सो गई.
दूसरे रोज संडे था. नाश्ते के बाद मेरे लिए कोई काम नहीं था. मैं पलंग पर लेटी और फिर नींद की आगोश में चली गई. लंच के समय मैस में गई. लंच किया और सो गई. नींद पूरी ही नहीं हो रही थी.
शाम को 5 बजे उठी. मन हुआ, स्कूल के सर को फोन करूं. थोड़ी देर में यह विचार भी त्याग दिया. सोचा, सरकारी विजिट पर जाऊंगी तो मिलूंगी. इंस्पैक्टर रवीना से पूछा कि पास में कोई पार्क है जहां घूमा जा सके?
‘‘है, मैडम. आप तैयार हो जाएं. मैं आप को ले चलती हूं.’’
पार्क मैं खूब घूमती रही. लौटी तो काफी थक गई थी. डिनर किया और सो गई.
सुबह बेड टी ली, नाश्ता किया और औफिस के लिए तैयार हो गई. पहले दिन जब मैं औफिस की कुरसी पर बैठी तो यकीन नहीं हुआ कि मैं आईएएस हूं और जिला नागौर की डीएम हूं. मेरी शानदार टेबल पर डा. प्रिया, आईएएस, का छोटा बोर्ड रखा गया.
मैं फिर विचारों में खो गई. मुझे शोध के लिए यानी पीएचडी के लिए नागौर पीजी में आना था.
घर में तूफान मचा हुआ था. मां, पिता, भाई और रिश्तेदार सभी यही कह रहे थे कि पीजी में जाओगी तो घर से सारे रिश्ते तोड़ कर जाओगी.
मेरा पारा भी हाई था. मैं सब को छोड़ कर चली आई थी. उस के बाद मैं जिंदा हूं या मर गई हूं. मैं ने सब कैसे मैनेज किया होगा, घर वालों को इस से कोई मतलब नहीं था. उन के लिए मैं जीतेजी मर गई थी. इस बात को 5 साल बीत गए हैं.
भीतर तक मैं कड़वाहट से भर गई थी.
मैं ने अपने मन और मस्तिष्क से सब को निकाल दिया था. 10 बजे मेरे लिए चाय आई और सरकारी डाक ले कर इंचार्ज हाजिर हुआ.
‘‘मैडम, हर मंगलवार आप को जिले की विजिट
करनी होती है. इस का कार्यक्रम जिलाधीश औफिस से आता है. लेकिन मैडम ने पहला प्रोग्राम आप से पूछने के लिए कहा है कि आप सब से पहले कहां विजिट करना चाहेंगी?’’
‘‘मैं डीडवाना तहसील के जायल कसबे की विजिट करना चाहूंगी.’’
उसी के अनुसार कार्यक्रम बन गया. जायल की पंचायत को बता दिया गया था. उन्हीं के साथ मेरा लंच था. मुझे बता दिया गया था कि मुझे क्याक्या चैक करना है, क्याक्या प्रोग्रैस देखनी है.
मेरे पिता उस कसबे के सरपंच थे. शायद आज भी हों. मेरे घर वालों को यकीन ही नहीं होगा कि मैं डीएम बन गई हूं और सरकारी विजिट पर आऊंगी. मन के भीतर मोह यह था कि मैं उन के चेहरे के भाव देखूं. केवल दादी मेरी पढ़ाई से खुश होती थी, ‘मैडम, बैग ले कर औफिस जाया करेगी.’
मैं मैडम बनी लेकिन इतनी बड़ी मैडम बनूंगी, शायद किसी को भी यकीन नहीं होगा.
उन्होंने तो मुझे कब का मार दिया था. मन कसैला हो गया था. मैं ने सोमवार शाम को ही जाने की सारी तैयारियां कर ली थीं. मुझे सहयोग करने वाला सारा अमला आज
दोपहर को ही वहां पहुंच गया था.
मंगलवार को सुबह मैं ने नाश्ता किया और शानदार रेशमी साड़ी पहनी. अपने को शीशे में देखा तो यकीन नहीं हुआ कि मैं इतनी सुंदर हूं. जीवन में कभी मैं ने अपना ख़याल नहीं रखा था. जो मिला, पहन लिया. जो मिला, खा लिया. साड़ी पहनने के मूल में विचार यह था कि देखने वालों को लगना चाहिए कि मैं डीएम हूं. मन के भीतर कहीं आक्रोश रूप में यह मोह भी था कि अपने मांबाप को बताऊं कि मैं वही प्रिया हूं. कुछ भी हो, मैं चाहे जितना मरजी इनकार करूं, मन में चाहे कितना भी विरोध और आक्रोश हो, संतान तो मैं उन्हीं की हूं. जा तो मैं अपने पैतृक कसबे में ही रही हूं न. अपनी मिट्टी से घुलमिल जाने का अवसर है जिस में रह कर मैं बड़ी हुई हूं. मैं जब तैयार हो कर गाड़ी में बैठी तो दोनों इंस्पैक्टरों ने मुझे सैल्यूट किया. तेजी से जायल
की ओर बढ़े. मैं ने आंखों पर काला चश्मा लगा लिया था इसलिए कि आंखों से मेरे मन के भाव कोई न समझ सके. डीएम औफिस के इंचार्ज पंचायत को मेरे रास्ते की अपडेट दे रहे थे.
जायल पंचायत घर पहुंचतेपहुंचते दोपहर हो गई थी. मेरे स्वागत में पंचों के साथ मेरे पिता भी
हार ले कर खड़े थे. मैं कार से उतरी तो सभी ने मुझे हार भेंट किए. मेरे पिता ने मुझे कभी इस रूप में देखा नहीं था, इसलिए वे जल्दी मुझे पहचान नहीं पाए. जब पहचाना तो आंखें फटी की फटी रह गईं. मुंह से एक शब्द न निकला. कहते भी क्या. कहने लायक थे ही नहीं.
मैं मन से सख्त हो गई थी. सख्ती से इंस्पैक्शन भी किया. कमियां तुरंत पूरी करने के लिए कहा. मैं नागौर लौटने लगी तो पिता मेरे सामने हाथ बांध कर खड़े हो गए. सिर झुका हुआ था, कहा, ‘‘मैडम जी.’’ वे मुझे मेरे बचपन के नाम से पुकार नहीं पाए. ‘‘मानता हूं, मैं इस लायक भी नहीं हूं कि आप को अपनी बेटी कह सकूं. आप के साथ मैं ने ही नहीं, सारे परिवार और
रिश्तेदारों ने बहुत बुरा किया है. जो हुआ, सदियों से चले आ रहे विचारों और संस्कारों के कारण हुआ.
बच्चियों के लिए आज भी यही सोच है. आज भी बच्चियां पढ़ नहीं पाती हैं, जल्दी ब्याह दी जाती हैं. सारी जिंदगी नर्क भोगती हैं. इन से कब उबरेंगे, पता नहीं.
“मैं, मैडम जी, यह प्रार्थना ले कर हाजिर हुआ हूं कि मेरी पत्नी बहुत बीमार है.’’ वे यह नहीं
कह सके कि मेरी मां बीमार है. ‘‘यदि आप घर चल कर उन को देख लेतीं तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’
मैं भीतर से पिघलने लगी थी. मैं अपने पिता को इस तरह गिड़गिड़ाते हुए तो देखना नहीं चाहती थी. वे मेरे पिता हैं. मेरी मां ने मुझे जन्म दिया है और बड़ा किया है. मैं तो केवल उन के चेहरे के भावों को देखना चाहती थी. इन्होंने मेरे साथ वही किया जो उस दौर की सभी बच्चियों के साथ होता था. आंखों के कोर गीले हो गए थे. चश्मा पहने होने के कारण दिखाई नहीं दिए.
मैं पंचायत औफिस में वापस आ कर बैठ गई, इंचार्ज से बोला, ‘‘यहां की डिस्पैन्सरी की डाक्टर से मेरी बात करवाएं.
फोन मिलाया गया. उधर से हैलो कहने पर मैं ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘क्या आप अभी मेरे साथ चल कर एक सीरियस पेशेंट को देख सकती हैं? मैं गाड़ी भेजूं? मैं जायल के पंचायत घर में बैठी हूं.’’
‘‘मैं अभी हाजिर होती हूं,’’ डा. प्रोमिला ने कहा.
मैं डाक्टर को ले कर घर पहुंची तो मां बिस्तर पर लेटी हुई थी. शरीर से कमजोर हो गई थी.
मैं ने डाक्टर प्रोमिला से कहा, ‘‘डाक्टर साहिबा, यह मेरी मां है और मेरे पिता इस कसबे के सरपंच हैं.
“मैं इसी कसबे की मिट्टी में पल कर बड़ी हुई हूं. आप चैक करें और इन्हें ठीक कर दें.’’
मेरी आवाज सुन कर मां ने एक बार आंखें खोलीं. कुछ बोलना चाहा, लेकिन कमजोरी के कारण बोल न पाईं.
‘‘ओह, अच्छा. अच्छा हुआ आप ने मुझे बता दिया. मैं चैक कर के बताती हूं.’’
चैक करने के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘कमजोरी है. लेकिन कमजोरी से अधिक इन्हें मानसिक संताप है. मैं अभी से ताकत के इंजैक्शन दे रही हूं. कुछ दवाइयां हैं जो डिस्पैन्सरी से मिल जाएंगी.’’
डाक्टर ने परची मेरे पिता की ओर बढ़ा दी
और कहा, ‘‘कोई पैसा नहीं देना है. मैं ने कंपाउंडर को फोन कर दिया है.’’
पिता ने भाई को परची दे कर भेज दिया.
‘‘अगर आप कहें तो मैं इन्हें नागौर ले जा सकती हूं,’’ मैं ने डाक्टर से कहा.
‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. मैं यहां हूं. रोज आप को अपडेट देती रहूंगी. आप को अपने औफिस से इन का डिपैंडैंट लैटर भेज देना है.’’
मैं मां के पास भीतर गई. सिर पर हाथ रखा.
एक बार आंखें खोल कर मां ने मुझे देखा. आंखों से अश्रुधारा बह निकली. मैं ने आंसू पोंछे और जल्दी से आ कर गाड़ी में बैठ गई. मुझे मां का संताप मिटाने के लिए इस से अच्छा रास्ता कोई नहीं सूझा.
घर के सारे लोग और आसपास के लोग भी मुझे देखने और विदा करने को आ कर खड़े हो गए थे.
मेरी कार तेजी से नागौर की ओर भाग रही थी.