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तलाक के बाद शादी : भाग 3

साधना जिस तरह देव के साथ सिमटी थी, उसे देख कर पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘‘आप पतिपत्नी को साथसाथ चलना चाहिए.’’

तभी 3 में से 1 मवाली ने कहा, ‘‘वही तो साब, अकेली औरत, सुनसान सड़क. हम ने सोचा कि…’’

इस से पहले कि उस की बात पूरी हो पाती, थानेदार ने एक थप्पड़ जड़ते हुए कहा, ‘‘कहां लिखा है कानून में कि अकेली औरत, सुनसान सड़क और रात में नहीं घूम सकती है. और घूमती दिखाई दे तो क्या तुम्हें जोरजबरदस्ती का अधिकार मिल जाता है.’’

थानेदार ने कहा, ‘‘आप लोग जाइए. ये हवालात की हवा खाएंगे.’’‘‘तुम यहां कैसे?’’ साधना ने पूछा.

‘‘प्रमोशन पर,’’ देव ने कहा.

‘‘और परिवार,’’ साधना ने पूछा.

‘‘अकेला हूं. तुम्हारा परिवार?’’

‘‘अकेली हूं. भाईभाभी के साथ रहती हूं.’’

‘‘शादी नहीं की?’’

‘‘हुई नहीं.’’

‘‘और तुम ने?’’

‘‘ऐसा ही मेरे साथ समझ लो.’’

‘‘औफिस में तो दिखे नहीं?’’

‘‘कल से जौइन करना है.’’

फिर थोड़ी चुप्पी छाई रही. देव ने बात आगे बढ़ाई, ‘‘खुश हो तलाक ले कर?’’ वह चुप रही और फिर उस ने पूछा, ‘‘और तुम?’’

‘‘दूर रहने पर ही अपनों की जरूरत का एहसास होता है. उन की कमी खलती है. याद आती है.’’

‘‘लेकिन तब तक देर हो चुकी होती है.’’

‘‘क्यों, क्या हम दोनों में से कोई मर गया है जो देर होचुकी है?’’

साधना ने देव के मुंह पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘मरें तुम्हारे दुश्मन.’’

न दोनों ने पास के एक शानदार  रैस्टोरैंट में खाना खाया. ‘‘घर चलोगी मेरे साथ? कंपनी का क्वार्टर है.’’

‘‘अब हम पतिपत्नी नहीं रहे कानून की दृष्टि में.’’

‘‘और दिल की नजर में? क्या कहता है तुम्हारा दिल.’’

‘‘शादी करोगे?’’

‘‘फिर से?’’

‘‘कानून, समाज के लिए.’’

‘‘शादी ही करनी थी तो छोड़ कर क्यों गई थी,’’ देव ने कहा.

‘‘औरत की यही कमजोरी है जहां स्नेह, प्यार मिलता है, खिंची चली जाती है. तुम्हारी बेरुखी और मां की प्रेमभरी बातों में चली गई थी.’’

‘‘कुछ मेरी भी गलती थी, मुझे तुम्हारा ध्यान रखना चाहिए था, लेकिन अब फिर कभी झगड़ा हुआ तो छोड़ कर तो नहीं चली जाओगी?’’ देव ने पूछा.

‘‘तोबातोबा, एक गलती एक बार. काफी सह लिया. बाहर वालों की सुनने से अच्छा है पतिपत्नी आपस में लड़ लें, सुन लें. एकदूसरे की.’’

अगले दिन औफिस के बाद वे दोनों एक वकील के पास बैठे थे. वकील दोस्त था देव का. वह अचरज में था,

‘‘यार, मैं ने कई शादियां करवाईं है और तलाक भी. लेकिन यह पहली शादी होगी जिस से तलाक हुआ उसी से फिर शादी. जल्दी हो तो आर्य समाज में शादी करवा देते हैं?’’

‘‘वैसे भी बहुत देर हो चुकी है, अब और देर क्या करनी. आर्य समाज से ही करवा दो.’’

‘‘कल ही करवा देता हूं,’’ वकील ने कहा.

शादी संपन्न हुई. इस बात की साधना ने अपनी मां को पहले खबर दी.

मां ने कहा, ‘‘हम लोग ध्यान नहीं रख रहे थे क्या?’’

साधना ने कहा, ‘‘मां, लड़की प्रेमविवाह करे या परिवार की मरजी से, पति का घर ही असली घर है स्त्री के लिए.’’

देव ने अपने पिता को सूचना दी. उन्होंने कहा, ‘‘शादी दिल तय करता है अन्यथा तलाक के बाद उसी लड़की से शादी कहां हो पाती है. सदा खुश रहो.’’ और इस तरह शादी, फिर तलाक और फिर शादी.

वक्त बदल रहा है : भाग 3

चपरासी के साथ शिवचरण को बाहर आता देख कर रामसेवक आश्चर्य- चकित हो उठा और तुरंत अपना मोबाइल निकाला और दोएक नंबरों पर बात की.

इस बीच, अंदर से घंटी बजी तो रामसेवक मोबाइल जेब में रख कर तुरंत उठ कर केबिन में आने के लिए तत्पर हुआ.

‘‘एस.पी. साहब से कहिए कि वह हम से जितनी जल्द हो सके संपर्क करें,’’ हरिनाक्षी ने कहा.

‘‘जी, मैडम,’’ रामसेवक ने तुरंत उत्तर दिया और बाहर आ कर एस.पी. शैलेश कुमार को फोन घुमाने लगा.

‘‘साहब, रामसेवक बोल रहा हूं. मैडम ने फौरन याद किया है.’’

‘‘ठीक है,’’ उधर से आवाज आई.

आधे घंटे बाद एस.पी. शैलेश कुमार हरिनाक्षी के सामने आ कर बैठे नजर आए.

‘‘शैलेशजी, क्या हम जिले के सभी पुलिस अधिकारियों की एक संयुक्त बैठक कल बुला सकते हैं?’’ हरिनाक्षी ने पूछा.

‘‘हां…हां…क्यों नहीं?’’ एस.पी. साहब ने तुरंत उत्तर दिया.

‘‘तो फिर कल ही सर्किट हाउस में यह बैठक रखें,’’ हरिनाक्षी ने आदेशात्मक स्वर में कहा.

‘‘जी, मैडम,’’ एस.पी. साहब ने हामी भरी.

कलक्टर हरिनाक्षी के आदेश के अनुसार संयुक्त बैठक का आयोजन हुआ. जिले के सभी पुलिस थानों के थानेदारों समेत सभी छोटेबडे़ पुलिस अधिकारी बैठक में शामिल हुए.

सभी उत्सुक थे कि प्रशासनिक सेवा में बडे़ ओहदे पर कार्यरत यह सुंदर दलित बाला कितनी कड़कदार बातें कह पाएगी.

हरिनाक्षी ने बोलना शुरू किया :

‘‘साथियो, जिले की कानून व्यवस्था को संतुलित बनाए रखना और आम जनता के संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करना 2 अलगअलग चीजें नहीं हैं. आप को यह वरदी आतंक फैलाने या दबंगता बढ़ाने के लिए नहीं दी गई बल्कि आम लोगों के इस विश्वास को जीतने के लिए दी गई है कि हम उन की हिफाजत के लिए हर वक्त तैयार रहें.

‘‘बड़े अफसोस की बात है कि हमारे पुलिस थानों में आम जनता के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता है. इसलिए आम जन पुलिस थाने में जाने से डरते हैं जबकि पैसे वाले और प्रभावशाली लोगों को तरजीह दी जाती है. मेरे पास कई ऐसी शिकायतें लिखित रूप में आई हैं जिन्हें पुलिस स्टेशन में दर्ज होना चाहिए था, लेकिन वहां उन की बात नहीं सुनी गई.

‘‘मेरा सभी पुलिस अधिकारियों से यह आग्रह है कि मेरे पास आए ऐसे सभी आवेदनपत्रों के आधार पर केस संख्या दर्ज की जाए और संबंधित व्यक्तियों को बताया जाए और उन्हें आश्वस्त किया जाए कि उन की शिकायतों पर उचित काररवाई की जाएगी.’’

मैं अहम हूं : भाग 3

सासससुर ने भी कहा, ‘बहू, बबलू को तो हम संभाल लेंगे. हमारा और है ही कौन. पर तुम्हारा शरीर भी तो दोनों भार को सहन कर सके तब न. जो भी करो, सोचसमझ कर करो.’’ पर उस के सिर पर तो जैसे जनून सवार था. 6-7 दिन तक तो स्कूल में बबलू की खूब याद आती थी, फिर ठीक लगने लगा. पर रोज स्कूल से लौट कर जब घर में कदम रखती तो घर की कुछ अव्यवस्थता मन को खटकती. एक दिन जब वह स्कूल से लौटी तो घर में कोई मेहमान आए हुए थे. कामवाली घर पर नहीं थी तो नीलू उन को पानी दे रही थी. नीलू को देखते ही उस का गुस्सा सातवें आसमान पर आ पहुंचा. बाल बिखरे हुए, फ्रौक की तुरपन उधड़ी हुई, हाथ में पेंटिंग कलर लगे हुए थे, अजीब हाल बना रखा था. नीलू को बगल से पकड़ कर खींचते हुए वह अंदर ले गई. उस का तमतमाता चेहरा देख कर वहां का वातावरण एकदम बोझिल हो गया. नीलू सुबकती हुई एक कोने में खड़ी हो गई. उस समय शशि को अपनी गलती का खयाल नहीं आया, बल्कि उसे सब पर गुस्सा आया कि सब उस से खार खाए बैठे हैं और जानबूझ कर उस का अपमान करना चाहते हैं. पर आज लगता है, वास्तव में उस ने अपनी नौकरी के आगे बाकी हर बात को गौण समझ लिया. पहले वह अजय के मोजे, रूमाल देख कर रख दिया करती थी, उस के कपड़ों पर प्रैस, बटन आदि का भी ध्यान रखती थी. दोपहर के समय बच्चों के पुराने कपड़ों को बड़ा करना, मरम्मत करना आदि काफी कुछ काम कर लेती थी. अब तो अजय अपने हाथ से बटन लगाना आदि छोटीमोटी मरम्मत कर लेता है, पर मुंह से कुछ नहीं बोलता. बबलू भी इन 2 ही महीनों में कुछ दुबला हो गया है. दादी दूध दे सकती हैं, खिला सकती हैं, प्यार भी बहुत करती हैं, पर मां की ममता व आरंभिक शिक्षा और कोई थोड़े ही दे सकता है.

फिर उस के कमाने से क्या फायदा हुआ, सिवा इस के कि घर का खर्चा पहले से बढ़ गया. सब कपड़े धोबी को जाने लगे और कपड़ों का नुकसान भी ज्यादा होने लगा. अब महरी को भी काम बढ़ जाने से ज्यादा पैसे देने पड़ते थे. आटो का खर्च अलग, इस प्रकार मासिक खर्च बढ़ ही गया. इस के अलावा घर और बच्चे अव्यवस्थित हो गए सो अलग. सास बेचारी दिनभर काम में पिसती रहती. और जब  नहीं कर पाती तो बड़बड़ाती रहती. इन्हीं 2 महीनों में घर की शांति भंग हो गई. जिस पर उस ने जो कल्पना की थी कि अपनी तनख्वाह से घर की सजावट के लिए कुछ खरीदेगी, उसे कार्यरूप से परिणत करना कितना मुश्किल है, यह उसे तुरंत पता लग गया. उसे कुछ कहने में ही झिझक हो रही थी. कहीं अजय यह न समझ ले कि उस ने सिर्फ इन दिखावे की चीजों के लिए ही नौकरी की है. अजय के मन में हीनभावना भी आ सकती है. पर यह सब उसे पहले क्यों नहीं सूझा? खैर, अब तो सुध आई. ‘बाज आई ऐसी नौकरी से,’ उस ने मन ही मन सोचा, ‘बच्चे जरा बड़े हो जाएं तो देखा जाएगा.’

अगले दिन उस ने अजय के चपरासी के हाथों एक महीने का नोटिस देते हुए अपना त्यागपत्र तथा एक दिन के आकस्मिक अवकाश की अरजी भेज दी. अजय ने यही समझा कि शायद तबीयत खराब होने से 1-2 दिन की छुट्टी ले रखी है. बादल उमड़घुमड़ रहे थे और बारिश की हलकीहलकी बूंदें भी पड़नी शुरू हो चुकी थीं. बहुत दिनों बाद उस रात को दोनों चहलकदमी को निकले. अजय ने पूछा, ‘‘क्यों, अचानक तुम्हारी तबीयत को क्या हो गया, तुम ने कितने दिन की छुट्टी ले ली है?’’

शशि बोली, ‘‘हमेशा के लिए.’’ अजय परेशान सा उस की ओर देखने लगा, ‘‘सच, शशि, सच, अब तुम नहीं जाओगी स्कूल? चलो, अब कमीजपैंट में बटन नहीं टांकने पड़ेंगे. धोबी को डांटने का काम भी अब तुम संभाल लोगी. हां, अब रात को थके होने का बहाना भी नहीं कर सकतीं. पर यह तो बताओ, नौकरी छोड़ क्यों दी?’’

शशि उस के उतावलेपन को देख कर हंसते हुए मजा ले रही थी. उसे पति पर दया भी आई, बोली, ‘‘हां, मुझे नौकरी नहीं छोड़नी चाहिए थी, जनाब दरजी तो बन ही जाते. अजीब आदमी हो, कम से कम एक बार तो मुंह से कहा होता कि शशि, तुम्हारे स्कूल जाने से मुझे कितनी परेशानी होती है.’’ डियर, हम तो शुरू से कहना चाहते थे, पर हमारी बात आप को तब जंचती थोडे़ ही. हम ने भी सोचा कर लेने दो थोड़े मन की, अपनेआप सब हाल सामने आएगा तो जान जाएगी. पर यह उम्मीद नहीं थी कि तुम इतनी जल्दी नौकरी छोड़ने को तैयार हो जाओगी. खैर, तुम ने अपनी परिस्थिति पहचान ली तो सब ठीक है,’’ फिर थोड़ा रुक कर बोले, ‘‘हां, शशि सद्गृहिणी बनना कितना कठिन है. तुम जब अपने इस दायित्व को अच्छे से निभाती हो तो मुझे कितना गर्व होता है, मालूम है? यह मत सोचो कि मैं तुम्हें घर से बांधने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी ओर से पूरी छूट है, तुम पढ़ोलिखो, कुछ नया सीखो, पर अपने दायित्व को समझ कर.’’

फिर कुछ दूर दोनों मौन चलते रहे. अजय को लग रहा था कि शशि कुछ पूछना चाह रही है, पर हिचक रही है. 2-3 बार उस ने शशि की ओर देखा, मानोे हिम्मत बंधा रहा हो. ‘‘इंदु को देख कर आप को यह नहीं लगता कि वह कितनी लायक औरत है, उस ने अपना घर कैसे सजा लिया है. तब आप को मुझ में कमी नहीं लगती?’’ आखिर शशि ने पूछ ही लिया. अजय इतना खुल कर हंसे कि राह के इक्कादुक्का लोग भी मुड़ कर उन की ओर देखने लगे. आखिर हंसने का यह कैसा और कौन सा मौका है, शशि समझ न पाई. जब उन की हंसी रुकी तो बोले, ‘‘तुम को क्या लगता है कि मनोज बहुत खुश है. वह क्या कह रहा था मालूम है? ‘यार, जबान का स्वाद ही चला गया. मनपसंद चीजें खाए अरसा हो गया. श्रीमतीजी दफ्तर से आ कर परांठे सेंक देती हैं, बस. इतवार के दिन वे छुट्टी के मूड में रहती हैं. देर से उठना, आराम से नहानाधोना, फिर होटल में खाना, पिक्चर, बस. यार, तू बड़ा सुखी है. यहां तो हर महीने मांबाप को रुपए भेजने पर टोका जाता है. आखिर मांबाप के प्रति कुछ फर्ज भी तो है कि नहीं?

‘‘और सुनोगी? उस दिन हमारे बच्चों को देख कर बोला, ‘यार, तुम्हारे बच्चे कितने सलीके से रहते हैं. इच्छा तो होती है कि इंदु को बताऊं कि देखो, इन बच्चों को शिष्टचार की कोई सीख कौन्वैंट या पब्लिक स्कूल से नहीं, बल्कि मां के सिखाने से मिली है.’

‘‘मैं ने यह सुन कर कैसा अनुभव किया होगा, तुम अनुमान लगा सकती हो, यही तुम्हारी जीत थी, और तुम्हारी जीत यानी मेरी जीत. इंदु की आधी तनख्वाह तो अपनी साडि़यों, मेकअप, होटल और सैरसपाटे में खर्च हो जाती है. बेटे को छात्रावास में रखने का खर्च अलग. उस में अहं की भावना है, और ‘मेरे’ की भावना से ग्रस्त वह यही समझती है कि उस के नौकरी करने से ही घर में इतनी चीजें आई हैं. जहां यह ‘मेरे’ की भावना आई, घर की सुखशांति नष्ट समझो.’’ कुछ रुक कर अजय बोले, ‘‘चलो, शशि, अब घर चलें, काफी दूर निकल आए हैं,’’ फिर धीरे से बोले, ‘‘आज के बाद रात को थकान का बहाना न चलेगा.’’

शशि को गुदगुदी सी हुई और बहुत दिनों बाद उस के मन में बसी बेचैनी दूर जाती लगी.

गुड्डन : भाग 3

निशा ने उस की ओर आंखें तरेर कर देखा और फोन पर अपनी आदत के अनुसार रानी के घर की चटपटी खबर को इधर से उधर कर के अपने मनपसंद काम में जुट गईं.

लगभग महीने पहले उन की सासूमां का इंतकाल उन के देवर के घर में हो गया था. निशा चालाक थी, उन्होंने सासूमां के जेवर दबा कर रख लिए थे और अब वे उसे किसी के साथ बांटना नहीं चाह रही थीं…

पूरा का पूरा वे अकेले ही हजम करना चाह रही थीं. उन के देवर सतीश और ननद संध्या उन पर बंटवारा करने का दबाव बनाए हुए थे. लेकिन उन्होंने साफसाफ कह दिया था कि उन के पास कोई जेवर नहीं हैक्योंकि उन की नियत खराब थी.

पर पति रवि बंटवारा करने के लिए उन पर दबाव डाल रहे थे. उसी सिलसिले में वे लोग कई बार आ चुके थे और हर बार गरमगरम बहस के बाद कोई न कोई बहाना बना कर वे उन्हें अपने घर से जाने पर मजबूर कर देती थीं.

भाभीआप मेरे हिस्से का जेवर मुझे दे दीजिएमुझे ईशा की शादी करनी है. सोना इस समय इतना मंहगा है… आप को तो मेरी हैसियत के बारे में अच्छी तरह से पता है…’’

संध्या भी हिम्मत कर के बोली,”भैयाआप ने अम्मां का सारा जेवर दाब लिया… यह गलत बात है कि नहींघरमकान में तो हिस्सा नहीं मांग रहे हैं. जेवर का तो बंटवारा कर ही दो.”

गुड्डन काम करती सारी बातें ध्यानपूर्वक सुन रही थी तभी जैसे ही निशा को याद आया कि गुड्डन सारी बातें सुन रही होगी तो उन्होंने तेजी से आ कर उस से बरतन हाथ से छुड़वा कर कहा कि इस समय जाओशाम को आना.

पर होशियार गुड्डन को तो मसाला मिल गया था कि निशा आंटी कितनी शातिर हैं. उन्होंने सब का हिस्सा दबा कर रख लिया है.

सतीश और संध्या अकसर आतेआपस में बातचीतकहासुनी और बहसबाजी होती पर अंतिम निर्णय कुछ भी नहीं हो पाता क्योंकि निशा की नियत खराब थीवह किसी को कुछ देना ही नहीं चाहती थीं. वे गुड्डन के सामने रोरो कर नाटक करतीं कि ये लोग उन्हें परेशान कर रहे हैं…

एक दिन गुड्डन उन से बोली,”आंटीअम्मां कथा सुन कर आईं तो बता रही थीं कि हमारे धरम में बताया गया है कि भाईबहन का हिस्सा हजम करना बहुत बड़ा पाप होता है.”

निशा को तत्काल कोई जवाब नहीं सूझा था. वे खिसिया कर बोलीं,”चल बड़ी धरमकरम वाली बनी है.”

एक दिन गुड्डन सुबहसुबह बड़ी घबराई हुई सी आई थी,”आंटीजीआंटीजी…”

क्या हुआक्यों चिल्ला रही हो?”

आप को किसी ने खबर नहीं दीगेट पर पुलिस की गाड़ी खड़ी है. कई सारे पुलिस वाले श्याम अंकल को अपने साथ ले कर जा रहे थे. उन्हें कुछ पूछताछ करनी है. गार्ड लोग आपस में बात कर रहे थे कि श्याम अंकल ने ₹10 करोड़ का घोटाला किया है. उसी की जांच चल रही थी. घर में छापा पड़ा है. बहुत सारे अफसर उन के घर में घुस कर छानबीन कर रहे हैं.

आंटीजी 10 करोड़ में बहुत सारा रुपया होता होगा न?’’

निशा नीर से हमेशा से चिढ़ती थीउस की तरफ देख कर बोली,”हां…हां… बहुत सारा होता है…”

वे बड़बड़ाने के अंदाज में बोलीं,”बड़ी अकड़ कर रहती थीं मिसेज श्याम. आज स्विट्जरलैंड तो कल पैरिस… यह हार तो श्यामजी ने मेरे बर्थडे पर गिफ्ट किया था…अब आज क्या इज्जत रह गई…?”

आंटीजी आप लोग हम लोगन को बेकार में भलाबुरा कह के बदनाम करती रहती हैं… कम से कम हम लोग भाईबहन का हिस्सा तो नहीं मार कर रख लेते… हम लोग बैंक की रकम तो नाहीं मार लेते. हम लोग खोली में चाहे कितना लड़झगड़ लें लेकिन यदि कोई पर मुसीबत आ जाए तो तुरंत सब उस के दरवाजे पर मदद करने के लिए इकट्ठा होय जात हैं…

आज श्याम अंकल का मुंह उतरा हुआ था. उन के आसपास दूरदूर तक कोई नहीं खड़ा हुआ था… नीरा दीदी फूटफूट कर रो रही थीं… उन का फोन भी उन से ले लिया… सब लोग बताय रहे थे. हम तो सुबह से गार्ड के पास ही खड़े होय कर सब तमाशा देख रहे थे… बेचारी नीरा दीदी…”

गुड्डन को आंसू बहाते देख निशा उस की भावुकता देखसमझ नहीं पा रही थीं कि क्या करें और इस से क्या कहें… वे उस के लिए गिलास में पानी ले कर आईं,“लो पानी पी लो और चुप हो जाओ. उन के वकील उन्हें छुड़ा कर बाहर लाने के लिए कोशिश कर रहे होंगे और वह जल्दी ही छूट कर आ जाएंगे.”

लेकिन मन ही मन में निशा सोच रही थीं कि गुड्डन भला इस केस की पेचीदगी को क्या समझेगी? पर आज गुड्डन की भावुकता को देख कर पता नहीं क्यों नीरा की बेबसी के बारे में सोच कर वह भी उदास हो उठी थीं.

एक स्त्री की बेचारगी के बारे में सोच कर उन की आंखें भी भीग उठीं.

गुड्डन के हाथ काम कर रहे थे लेकिन वह निरंतर बड़बड़ा रही थी,”सब देखने के बड़े आदमी बनते हैं… कोई किसी के दुख में नाहीं खड़ा होता… बड़े आदमी खालीपीली दिखावा करना जानत हैं…”

गुड्डन लगातार रोए जा रही थी और उस के निश्छल आंसुओं के कारण उन का भी दिल भर आया था और वे भी उदास हो उठी थीं.

छठी इंद्रिय : भाग 3

एक दिन उस ने थिरकतेथिरकते मदहोश हो कर उन्हें अपनी बांहों में भर कर किस कर लिया. यद्यपि वे संकोचवश शरमा कर उस से अलग हो गईं, पर सच तो यह था कि शायद इन पलों का वे कब से इंतजार कर रही थी.

काश, वह हमेशा के लिए उन की नजरों के सामने रहता. वे हर क्षण षोडशी की भांति उस की कल्पना में खोई रहतीं. इन क्षणों को अपनी मुट्ठी में, स्मृति में कैद कर लेना चाहती थीं.

एक दिन उन के लंबे बालों से खेलते हुए उस ने छोटे बालों के लिए अपनी पसंद जाहिर की.

वे पार्लर गईं और अपने लंबे बालों पर कैंची चलवा दी. नए हेयर कट में स्वयं को आईने में देख शरमा उठीं. जाने क्यों प्रत्यूष के प्रति उन के मन में दीवानापन बढ़ता ही जा रहा था.

गीत सहमी सी रहतीं कि कहीं प्रत्यूष उन्हें छोड़ कर दूसरी हमउम्र लड़की के साथ अपने प्यार की पींगें न बढ़ाने लगे.

उस दिन नीचे खड़ी लिफ्ट का इंतजार कर रही थीं, तभी वहां प्रत्यूष भी आफिस से लौट कर आ गया. उन के चेहरे पर उस की निगाह पड़ी तो मुंह खुला का खुला रह गया.

खुशी के मारे आज सब के सामने उस ने उन्हें अपनी बांहों के घेरे में जकड़ लिया.

गीत ने अपेन को छुड़ाते हुए प्यार भरे स्वर में कहा, ‘‘सब देख रहे हैं.’’

‘‘नाइस हेयर स्टाइल… लुकिंग सो स्वीट ऐंड यंग.’’

उस की आंखों में प्यारभरी खुशी का भाव दिखाई दे रहा था. उस की आंखों में उन के प्रति दीवानगी साफ दिखाई दे रही थी. शायद यही तो वे कब से चाह रही थीं.

‘‘आज शाम को क्या कर रही हो? फ्री हो तो शौपिंग पर चलते हैं.’’

गीत प्रत्यूष के साथ मौल गईं. अभी तक वे इंडियन ड्रैसेज ही पहनती थीं, लेकिन आज उस के आग्रह को नहीं टाल पाईं. ढेरों वैस्टर्न ड्रैसेज पसंद कर लीं. जब उन ड्रैसेज को ट्रायलरूम में पहन कर उसे दिखातीं तो उस की आंखें खुशी से चमक उठतीं.

वहीं कैफेटेरिया में दोनों कौफी का और्डर दे कर एकदूसरे की आंखों में आंखें डाले बैठे थे.

‘‘गीत, तुम ने तो मुझे अपना दीवाना बना लिया है,’’ वह बोला.

गीत उस के चेहरे से अपनी नजरें नहीं हटा पा रही थीं. मुसकरा पड़ी थीं. लेकिन मन ही मन सोच रही थीं कि वह 38 साल की प्रौढ़ा और यह 28 साल का खूबसूरत स्मार्ट युवक जाने कब उन्हें छोड़ कर अकेला कर दे, इसलिए उन्हें अपने पर कंट्रोल करना होगा. गलत रास्ते पर कदम बढ़ाती चली जा रही हैं. उन्हें उस से दूरी बना कर अपनी पुरानी दुनिया में लौटना होगा.

मगर उसे देखते ही उन के इरादे रेत के महल की तरह ढह जाते और वे उस के प्यार में डूब जातीं. उस के साथ कभी पिक्चर, थिएटर, कभी ड्रामा, कभी डिनर तो कभी मौल… समय को पंख लग गए थे. इन मधुर पलों को वे अपनी स्मृतियों में संजो लेना चाहती थीं.

जब भी वह उन का हाथ पकड़ता, वे सिहर उठतीं, एक दिन फ्रिज से बीयर की बोतल निकाल कर बोला, ‘‘आज सैलिब्रेशन हो जाए.’’

‘‘किस बात की?’’

‘‘मेरीतुम्हारी दोस्ती के लिए.’’

मंदमंद संगीत, हलका सुरूर… वे मुसकरा उठी थीं. थिरकतेथिरकते वे उस की बांहों में खो गईं.

आज दोनों के बीच के सारे बंधन टूट गए. दोनों एकदूसरे में समा गए. वे गहरी निद्रा के आगोश में चली गईं.

जब आंख खुली, तो अपनी अस्तव्यस्त दशा देख एक क्षण को उन्हें झटका सा लगा कि उफ, उन्होंने यह क्या कर डाला. प्रत्यूष उन के बारे में क्या सोचेगा? शायद शरीर की चाहत के कारण वे बहक गई थीं.

वे तेजी से दूसरे कमरे में गई तो देखा प्रत्यूष आराम से सो रहा है. उन के अंदर उस से नजरें मिलाने का भी साहस नहीं हो रहा था.

रात्रि का खुमार नहीं उतरा था, चेहरे पर तृप्ति और संतुष्टि की मुसकान थी तो मन ही मन प्रत्यूष के रिएक्शन के प्रति डर और घबराहट भी थी. उन की निगाहें आकाश में उगते सूर्य के गोले को देख रही थीं. उगता सूर्य कितनों के जीवन में खुशियों का उजाला लाता है, तो कितनों को गम देता है. आज चिडि़यों का चहचहाना उन के कानों में मधुर संगीत का आभास दे रहा था. रोज की तरह उन्होंने उन के लिए दाना डाला.

प्रत्यूष की आहट से वे संकुचित हो उठी. वे उस का सामना करने से हिचक रही थीं. उस के हाथों में ग्रीन टी का कप था.

‘‘हैलो…’’ उस ने कप को मेज पर रखा और फिर घुटनों के बल उन का हाथ पकड़ कर बोला, ‘‘मैं भी अकेला, तुम भी अकेलीं विल यू मैरी मी?’’

ये वे लफ्ज थे, जिन का गीत को बरसों से इंतजार था. आज पहली बार उन्होंने स्वयं उसे अपनी बांहों में भर लिया.

गीत खुशियों के झूले में झूल रही थीं. शादी कर के अपने रिश्ते को एक नाम देना चाहती थीं, वे अपने भाईबहन और करीबियों को बुला कर अपनी खुशी में शामिल करना चाहती थीं.

सब से पहले प्रत्यूष की मां से मिलने चलने का आग्रह उन्होंने उस से किया तो वह नाराज हो उठा. वह आर्यसमाज मंदिर में गुपचुप तरीके से शादी करने के पक्ष में था और वे कोर्ट के द्वारा रजिस्टर्ड मैरिज करना चाहती थीं. इसी विषय में दोनों के बीच थोड़ा तनाव भी हो गया. वह उन के लिए एक डायमंड की अंगूठी ले आया था, लेकिन उन की पारखी निगाहें पलभर में पहचान गईं कि यह नकली है.

कुछ दिन बाद ही उस ने बताया कि शांतनु उसे धोखा दे कर उस के पैसेकपड़े सबकुछ ले कर न जाने कहां चला गया. कमरे को भी छोड़ दिया है. उस के प्यार में पागल वे उस की बातों में आ गईं और दोनो लिवइन में रहने लगे. गीत ने उस पर विश्वास कर के हमदर्दी दिखाते हुए अपना एटीएम कार्ड दे दिया.

प्रत्यूष उन के पैसों पर ऐश करने लगा. कभी शौपिंग तो कभी पार्टी के बिल के मैसेज उन के फोन पर उन्हें मिलते रहते. जब एक दिन उन्होंने पूछा कि किस के संग पार्टी थी तो वह अकड़ कर बोला, ‘‘मेरी सैलरी आने वाली है… सारे पैसे चुका दूंगा.’’

उस के कहने का लहजा उन्हें अच्छा नहीं लगा. उन्होंने गौर किया कि जब भी कोई फोन आता तो वह उन के सामने बात नहीं करता. दूसरे रूम में भी नहीं वरन घर से बाहर जा कर घंटों लंबी बातें करता. उन्होंने उस का फोन या लैपटौप चैक करने की कोशिश की पर वह हरदम लौक लगा कर रखता और अपना पासवर्ड भी नहीं बताता.

उस की यह सब बातें उन्हें खटकने लगीं. उन्हें महसूस हुआ कि जरूर कहीं दाल में काला है. अचानक उन की छठी इंद्रिय जाग्रत हो उठी. उन्होंने चुपचाप से कई जगह स्पाई कैमरे लगवा दिए. फिर वे उस की असलियत पता लगाने में जुट गईं.

सोसायटी के वाचमैन और प्राइवेट डिटैक्टिव की सहायता से चंद दिनों में ही उन की आंखों के समक्ष उस के कुकर्मों की कुंडली खुल गई. वह स्वयं अपनी मृगमरीचिका में छले जाने से बच गईं  थीं.

प्रत्यूष इंजीनियर नहीं था वरन, एक गैंग का सदस्य था, जो अलगअलग शहरों में प्यार का जाल बिछा कर लड़कियों को फंसा कर उन की अस्मत से खेलता था और लौकर में रखी रकम लूटता था. इस में उस का भोलाभाला सुंदर चेहरा और धारा प्रवाह इंग्लिश बोलना बहुत काम आता था.

इस बार गीत को लूटने का जाल रचा था. उन के लौकर को मास्टर चाभी से खोलने की कोशिश करने की संदिग्ध हरकतें कैमरे में कैद थीं. वह उन का डायमंड सैट और कैश ले कर नौ दो ग्यारह होने की कोशिश में था.

पुलिस ने कैमरे के सुबूत के आधार पर उस के हाथों में हथकड़ी लगा दी.

गीत का प्यार का खुमार उतर चुका था. उसे इस हालत में देख उन की आंखें डबडबा उठीं थीं. जीवनसाथी की तलाश में वे अपने ही बुने जाल से मुक्त हो कर बहुत खुश थीं. वे अपने अनुभव को शब्दों के माध्यम से सब के सामने ला कर अपनी छठी इंद्रिय को बारबार धन्यवाद दे रही थीं.

गुलजा़र बालकनियां : भाग 3

चलिएमैं आप को मूलचंद ले चलती हूं.’‘क्यों?’‘क्या आप ने वहां के परांठे खाए हैं?’‘नहीं तो.’‘तो आज मैं आप को खिलाती हूं.जल्दी घर आ जाने वाले नाथू जी उस दिन मंत्रमुग्ध घूमते रहे. ढाबे के परांठे खाएपंडारा रोड पर चाय पी. रात 9 बजे साची ने उन्हें घर छोड़ दिया. साची हवा के झोंके की तरह उन के मन में घुसती जा रही थी.

एक दिन उन के फोन पर लगातार घंटी बज रही थी. देखातो किसी अजनबी का नंबर था. इसलिए उठाना उचित नहीं समझा. कई बार फोन आया तो झुंझला कर उठा लिया. उधर से आवाज़ आई, ‘क्या नाथू जी से मेरी बात हो रही है?’

जी हांमैं नाथू ही बोल रहा हूं.’‘साची जी की तबीयत खराब है. वे अस्पताल में हैं. मैं प्रकाश हौस्पिटल से बोल रहा हूं.’‘क्या हुआ उन्हें?’‘कुछ ज्यादा नहीं.’ ‘अच्छाकोई बात नहींमैं आता हूं. बसदो मिनट में पहुंचा.हौस्पिटल जा कर पता चला कि गैस की बीमारी के कारण रात में उन की हालत खराब हो गई थी. नाथू को देखते ही मुसकराने की कोशिश करते हुए सची ने कहा, ‘परेशान कर दिया न आप को. इसीलिएसिर्फ इसीलिए मैं बेटियों के पास जाना चाहती थी वरना कौन अपना देश छोड़ता है.

अब कैसा महसूस हो रहा है?’‘काफी बेहतर.तभी दरवाज़ा खुला और एक युवती कमरे में दाखिल हुई जिस की शक्ल हूबहू साची जैसी थीइसलिए यह अंदाजा़ लगा पाना मुश्किल न था कि वह उन की बेटी ही होगी. आते ही मां से उन का हालचाल पूछने के बाद उस ने अजनबी की तरफ देखा ही था कि साची ने कहा, ‘ये नाथू जी हैं. मेरे बहुत अच्छे दोस्त. इंश्योरैंस का सारा काम यही देख रहे हैं.

कब तक ममा का काम हो जाएगाअंकल,’‘बसजल्दी ही पूरा हो जाएगा. मैं कोशिश करता हूं.’‘ममामेरे पास बस 2 दिनों का समय है. मैं किसी काम से जरमनी आई थीइसलिए ख़बर मिलते ही 8-10 घंटे में पहुंच गई. इस बार मैं आप को यहां अकेला नहीं छोड़ने वाली. बस.’‘कहां मैं अकेली हूं. देखोसतीश अंकल ने मदद की और अस्पताल पहुंचा दिया और नाथू जी भी सूचना मिलते ही भागे चले आए.

सारा ने नाथू जी की तरफ देखा तो नाथू जी को लगा जैसे उन की चोरी पकड़ी गई हो. उन्होंने निगाह नीची कर ली. सारा ने कहा, ‘पर एक न एक दिन चलना ही हैतो अभी क्यों नहींमैं ने दीदी को प्रौमिस कर दिया हैइसलिए इस बार मैं आप की एक न सुनूंगी.

मांबेटी को बातों में मसरूफ देख नाथू जी ने कहा, ‘अच्छामुझे अब इजाज़त दीजिए. सारा बेटी तो आ ही गई है. कोई परेशानी हो तो बेटामुझे फोन कर देना.

जीअंकल,’दूसरे दिन सारा का फोन आया, ‘अंकलमैं ममा को ले कर कल अमेरिका जा रही हूं. आप प्लीज ममा का जितना काम हो सकेकरवा दीजिए. हांममा को ले कर मैं औफिस आ रही हूं जहां भी साइन करवाना होकरवा लीजिएगा.’‘पर उन की तबीयत?’

अब ठीक हैं.इस बार जब साची औफिस आई तब चेहरे पर न वह चपलता थी न मुसकराहट.नाथू जी ने पूछा, ‘क्या आप अमेरिका अपनी मरजी से जा रही हैं?’‘इस के सिवा और कोई चारा भी तो नहीं है. बच्चे मान नहीं रहे. कल शाम की फ्लाइट है. यदि आप व्यस्त न हों तो चलिए हमारे साथ एयरपोर्ट.

सोच कर बताता हूं.नाथू जी को न खाना अच्छा लग रहा था न सोना. उन्हें कारण पता था पर परिस्थितियों पर उन का वश नहीं था. आखिरकार वह घड़ी भी आ गई जिस से वे डर रहे थे. दूसरे दिन शाम 5 बजते ही फोन आया, ‘नाथू जीतैयार हो जाइएहम लोग पहुंच रहे हैं.’‘इतनी जल्दी!

अरे जल्दी कहांऔर फिर थोड़ा समय साथ बिताएंगे. जल्दी तैयार हो जाइए.पूरे रास्ते कार में चुप्पी छाई रही. एयरपोर्ट पहुंच कर उतरतेउतरते साची ने सारा से कहा, ‘क्या चलना जरूरी है?’‘मतलबआप का टिकट हो गया हैममा. और अब?’

हांदिल छोटा हो रहा है. न जाने क्यों रोने को मन कर रहा है.’‘पर अकेली कैसे रहेंगी आप?’‘मैं हूं न,’ अचानक नाथू जी बोल पड़ेफिर खुद ही झेंप गए.सारा ने झटके से अपना सामान उतारा और गुस्सा दिखाती हुई अंदर जाने लगी. साची ने कहा, ‘रुक बेटागले तो मिल ले.’‘क्या जरूरत है आप को हमारी! अब तो आप का खयाल करने वाले दोस्त मिलने लगे हैं.

सारा चली गई. साची अपनी आंखों में भर आए आंसुओं को रोकने का भरपूर प्रयास करने के लिए इधरउधर देखने की कोशिश कर रही थी. नाथू जी का मन किया कि हाथ पकड़ कर कह दें कि रो लेजितना रोना चाहती है  पर दोनों के बीच खामोशी छाई रही. नाथू जी ने टैक्सी बुक की और दोनों वापस चल पड़े. रास्ते में नाथू जी ने कहा, ‘सारा से बात कर लीजिए.

जवाब में साची ने पूछा, ‘क्या आप मुझ से शादी करेंगे?’‘क्या…’ जो नाथू जी कहना चाहते थेवही बात साची से सुन कर उन का पूरा शरीर कांप गया. थोड़ा हकलाते हुए कहा, ‘जीजी आप अभी दुखी हैंकल बात करते हैं.’‘दुखी तो हूं पर पूरे होशोहवास में हूं और आप की मरजी जानना चाहती हूं.’‘आप के बच्चेमेरे बच्चे और यह समाज क्या कहेगा?’‘जब मेरे पति नहीं रहे तब मैं ने बच्चों को कैसे पालाक्या समाज ने जानने की कोशिश की?’

शायद मेरे और आप के बच्चों को ठीक नहीं लगेगा.’‘वह बाद का मसला है. हमारे संबंध के बारे में मैं आप की राय जानना चाहती हूं.नाथू जी कुछ नहीं बोल पाए. पूरे रास्ते खामोशी छाई रही. घर पहुंच कर साची उतर गई तो नाथू जी को लगावे कुछ कहेगी पर ऐसा कुछ नहीं हुआ.

पूरी रात यह सोचते रहे कि बेटों से कैसे बात की जाएबहुए हैंआगे नातीपोते हैं. सारी दुनिया हंसेगी. नहींयह ठीक नहीं हो रहा है… कब आंख लग गई. पता ही नहीं चला. फोन की घंटी से नींद खुली. सूरज का फोन था. उस ने कहा, ‘पापाआरती के चाचाजी की शादी में मैं परिवार समेत 2 दिनों बाद भारत आ रहा हूं.

चाचाजी की शादीइस उम्र में?’‘क्योंक्या शादी सिर्फ जवान लोग ही करते हैंबुढ़ापे में तो साथ की सब से ज्यादा जरूरत होती हैपापा. किसी को आप के आने का इंतजार हैयही सोच जीने की ललक पैदा कर देती है. आप कैसे इतने बड़े घर में अकेले रह लेते हैंआरती हमेशा कहती हैपापा को शादी कर लेनी चाहिए. आप सुन रहे हैं नपापा.

हांहांसब सुन रहा हूं. अच्छाकितने बजे की फ्लाइट है.’‘सुबह 7 बजे की. 9 बजतेबजते हम घर पहुंच जाएंगे.बच्चों के साथ वे सबकुछ भूल गए. एक पल के लिए साची याद नहीं आई. एक शाम आरती ने आ कर कहा, ‘पापाकिसी साची का फोन है आप के लिए.’ वे घबरा गए जैसे किसी ने उन की चोरी पकड़ ली हो. फोन ले कर कहा, ‘हैलो.’‘लगता हैघर में बच्चे आए हैं.’‘जीबड़ी रौनक आ गई है इन के आने से.

क्या सोचा आप ने हमारे संबंध के बारे में?’‘मुझे ठीक नहीं लगता. हम दोस्त हैं नसारी जिंदगी दोस्त रह कर भी तो साथ दे सकते हैं.’‘दुनिया बड़ी जालिम है. यह हमारी दोस्ती पर भी उंगली उठाएगीअच्छा खैर छोड़िएमैं कुछ दिनों के लिए अमेरिका जा कर देखना चाहती हूं कि वहां कैसा लगता हैअच्छा लगा तो ठीक हैवरना वापस आ जाऊंगी.’ वे कुछ कह नहीं पाए.किस का फोन थापापा?’ पापा को परेशान देख कर आरती ने पूछा.

मेरी एक दोस्त का.’‘मिलवाइए उन से.’‘वे अमेरिका जा रही हैं अपनी बेटियों के पास.’‘क्यों?’‘अकेली हैंपति को गुज़रे 8 वर्ष हो गए.’‘बेचारी बेटियां.’‘क्या मतलबबेटियां बेचारी क्यों?’‘ये तो जिम्मदारी बन गईं उन की.’‘बुढ़ापे में बच्चे ही मांबाप का सहारा बनते हैंबोझ नहीं समझते.

तभी सहर्ष खेलता हुआ आया और दादाजी से बोला, ‘दादूआप भी शादी कर लीजिए ताकि जब हम घर पर आएं तो दादी भी मिल जाएं. सही समय देख नाथू जी ने हकलाते हुए कहा, ‘मैं भी सोच रहा हूं.’ आरती का हाथ काम करतेकरते रुक गया. सूरज घंटों से लैपटौप में घुसा थाअचानक लैपटौप को थोड़ा झुका कर पापा की तरफ देखने लगा. आरती ने ही पहल की, ‘कौन है पापाजिस से आप शादी करना चाहते हैं?’ नाथू जी को चुप देख कर उस ने फिर पूछा, ‘कहीं उन्हीं का फोन तो नहीं आया था?’ नाथू जी ने हां में सिर तो हिला दिया पर आंख उठा कर बच्चों से नज़रें नहीं मिला पाए.

यह तो बहुत अच्छी बात हैपापा. मैं सुगंध से बात करता हूं. वह भी खुश हो जाएगा. हम दोनों को हमेशा यही चिंता रहती है कि आप को बहुत अकेलापन लगता होगा. दादी भी नहीं रहीं. जब तक दादी थीं तब तक बड़ी निश्चिंतता थी पर अब चिंता रहती थी.’‘तो तुम लोगों को कोई फर्क तो नहीं पड़ेगा?’

यह तो अच्छी बात हैपापा. आप को इस समय सब से ज़्यादा एक सच्चे और अच्छे दोस्त की जरूरत है और पत्नी से अच्छा कोई दोस्त हो ही नहीं सकता.नाथू जी की बांछें खिल उठीं. मन उत्साह से भरा जा रहा था. सोचातुरंत फोन कर के साची को बता दें पर उतावलापन अच्छा नहींबाद में फोन करेंगेयह सोच कर सोने चले गए.

दूसरे दिन साची को फोन किया पर कोई उत्तर न पा कर सोचाकहीं व्यस्त होगी. फोन के इंतजा़र में एक पल भी काटना भारी लग रहा था. कहीं नाराज़ तो नहीं हो गईयह सोच कर फिर फोन किया. उधर से आवाज़ आई, ‘अरे सौरीसौरीउस समय मैं एजेंट के पास बैठी थीइसलिए फोन नहीं उठा पाई.

एजेंट के पास?’‘हांआप को बताया तो थाअमेरिका जाना है न.थोड़ी देर तक खामोशी छाई रहीफिर साची ने ही पहल की, ‘क्या हो गयाचुप क्यों हैंक्यों फोन किया था?’‘वह…वह…’‘वह क्याजल्दी बताइएबहुत काम करना है.’‘मेरे बच्चे हमारी शादी के लिए तैयार हैं’‘क्याक्या कहादोबारा कहिए.

मेरे बच्चे चाहते हैं हम विवाह कर लें.’‘पर अचानककैसे हुआ?’‘मिलूंगा तब बताऊंगा. अभी आप अपना टिकट मत करवाइए. कल खाने पर मिलते हैं.’‘कल नहीं3 दिनों बाद क्योंकि तब तक मेरी बेटियां भी आ सकती हैं.दोनों परिवार मिले. नाथू के बेटे इस बात से खुश थे कि सालों बाद पापा का अकेलापन दूर हो जाएगा तो साची की बेटियां इस बात से खुश थीं कि ममा को जीने की वज़ह मिल गई. नाथू जी ने कहा कि कल हम सादगी के साथ कोर्ट में शादी करेंगे.

बिलकुल नहींबिलकुल नहीं,’ दोनों बहुओं के साथसाथ साची की बेटियों ने भी एकसाथ कहा. अरे भईहमारे पापामम्मी लोगों के लिए मिसाल हैंइसलिए कुछ कमाल और धमाल तो होना ही चाहिए. शादी पूरे धूमधाम से होगी. शायद इसी शोरशराबे और जश्न ने उन दोनों को लोगों का दुश्मन बना दिया. हर गलीहर चौराहे पर नए दंपती की चर्चा हो रही थी. इसी चर्चा ने सुनसान बालकनियों को गुलजा़र कर दिया.

आहत : भाग 3

शालिनी अकसर खाना भी बाहर खा कर आती थी. कुक सौरभ का खाना बना कर चला जाता था. जब वह घर लौटती उस के बेतरतीब कपड़े, बिगड़ा मेकअप भी खामोश जबान से उस की चुगली करते थे. मगर सौरभ ने तो जैसे अपनी आंखें मूंद ली थी. उसे तो यही लगता था कि वह शालिनी को समय नहीं दे पा रहा. इसीलिए वह उस से दूर हो रही. एक दिन शालिनी ने उसे बताया विमल और रमा घूमने आगरा जा रहे हैं और उन से भी साथ चलने को कह रहे हैं. सौरभ को इस बार भी छुट्टी मिलने में परेशानी हो रही थी. उस के कई बार समझाने पर शालिनी विमल और रमा के साथ चली गई. सब कुछ शालिनी के मनमुताबिक ही हो रहा था, फिर भी उस ने अपनी बातों से सौरभ को अपराधबोध से भर दिया था.

गाड़ी में आगे की सीट पर विमल की बगल में बैठी शालिनी सौरभ की बेवकूफी पर काफी देर तक ठहाका लगाती रही थी. ‘‘अब बस भी करो शालिनी डार्लिंग… बेचारा सौरभ… हाहाहा’’

‘‘चलो छोड़ दिया. तुम यह बताओ तुम्हें गाड़ी से जाने की क्या सूझी?’’ ‘‘दिल्ली और आगरा के बीच की दूरी है ही कितनी और वैसे भी लौंग ड्राइव में रोमांस का अपना मजा है मेरी जान,’’ और फिर दोनों एकसाथ हंस पड़े थे.

रमा पीछे की सीट पर बैठी उन की इस बेहयाई की मूक दर्शक बनी रही. सौरभ को छुट्टी अगले दिन ही मिल गई थी, परंतु वह शालिनी को सरप्राइज देना चाहता था. इसलिए शालिनी को बिन बताए ही आगरा पहुंच गया.

लंबेलंबे डग भरता वह होटल में शालिनी के कमरे की तरफ बढ़ा. खूबसूरत फूलों का गुलदस्ता उस के हाथों में था. दिल में शालिनी को खुश करने की चाहत लिए उस ने कमरे पर दस्तक देने के लिए हाथ उठाया ही था कि अंदर से आती शालिनी और किसी पुरुष की सम्मिलित हंसी ने उसे चौंका दिया. बदहवास सा सौरभ दरवाजा पीटने लगा. अंदर से आई एक आवाज ने उसे स्तब्ध कर दिया था. ‘‘कौन है बे… डू नौट डिस्टर्ब का बोर्ड नहीं देख रहे हो क्या? जाओ अभी हम अपनी जानेमन के साथ बिजी हैं.’’

परंतु सौरभ ने दरवाजा पीटना बंद नहीं किया. दरवाजा खुलते ही अंदर का नजारा देख कर सौरभ को चक्कर आ गया. बिस्तर पर पड़ी उस की अर्धनग्न पत्नी उसे अपरिचित निगाहों से घूर रही थी. जमीन पर बिखरे उस के कपड़े सौरभ की खिल्ली उड़ा रहे थे. कहीं किसी कोने में विवाह का बंधन मृत पड़ा था. उस का अटल विश्वास उस की इस दशा पर सिसकियां भर रहा था और प्रेम वह तो पिछले दरवाजे से कब का बाहर जा चुका था.

‘‘शालिनी….’’ सौरभ चीखा था.

परंतु शालिनी न चौंकी न ही असहज हुई, बस उस ने विमल को कमरे से बाहर जाने का इशारा कर दिया और स्वयं करवट ले कर छत की तरफ देखते हुए सिगरेट पीने लगी.

‘‘शालिनी… मैं तुम से बात कर रहा हूं. तुम मेरे साथ ऐसा कैसे कर सकती हो?’’ सौरभ दोबारा चीखा. इस बार उस से भी तेज चीखी शालिनी, ‘‘क्यों… क्यों नहीं कर सकती मैं तुम्हारे साथ ऐसा? ऐसा है क्या तुम्हारे अंदर जो मुझे बांध पाता?’’

‘‘तुम… विमल से प…प… प्यार करती हो?’’ ‘‘प्यार… हांहां… तुम इतने बेवकूफ हो सौरभ इसलिए तुम्हारी तरक्की इतनी स्लो है… यह लेनदेन की दुनिया है. विमल ने अगर मुझे कुछ दिया है तो बदले में बहुत कुछ लिया भी है. कल अगर कोई इस से भी अच्छा औप्शन मिला तो इसे भी छोड़ दूंगी. वैसे एक बात बोलूं बिस्तर में भी वह तुम से अच्छा है.’’

‘‘कितनी घटिया औरत हो तुम, उस के साथ भी धोखा…’’ ‘‘अरे बेवकूफ विमल जैसे रईस शादीशुदा मर्दों के संबंध ज्यादा दिनों तक टिकते नहीं. वह खुद मुझ से बेहतर औप्शन की तलाश में होगा. जब तक साथ है है.’’

‘‘तुम्हें शर्म नहीं आ रही?’’ ‘‘शर्म कैसी पतिजी… व्यापार है यह… शुद्घ व्यापार.’’ ‘‘शालिनी…’’

‘‘आवाज नीची करो सौरभ. बिस्तर में चूहा मर्द आज शेर बनने की ऐक्टिंग कर रहा है.’’ सौरभ रोते हुए बोला ‘‘शालिनी मत करो मेरे साथ ऐसा. मैं तुम से बहुत प्यार करता हूं.’’

‘‘सौरभ तुम मेरा काफी वक्त बरबाद कर चुके हो. अब चुपचाप लौट जाओ… बाकी बातें घर पर होंगी.’’ ‘‘हां… हां… देखेंगे… वैसे मेरा काम आसान करने के लिए धन्यवाद,’’ कह बाहर निकलते सौरभ रमा से टकरा गया.

‘‘आप सब कुछ जानती थीं न’’ उस ने पूछा. ‘‘हां, मैं वह परदा हूं, जिस का इस्तेमाल वे दोनों अपने रिश्ते को ढकने के लिए कर रहे थे.’’

‘‘आप इतनी शांत कैसे हैं?’’ ‘‘आप को क्या लगता है शालिनी मेरे पति के जीवन में आई पहली औरत है? न वह पहली है और न ही आखिरी होगी.’’

‘‘आप कुछ करती क्यों नहीं? इस अन्याय को चुपचाप सह क्यों रही हैं?’’ ‘‘आप ने क्या कर लिया? सुधार लिया शालिनी को?’’

‘‘मैं उसे तलाक दे रहा हूं…’’ ‘‘जी… परंतु मैं वह नहीं कर सकती.’’

‘‘क्यों, क्या मैं जान सकता हूं?’’ ‘‘क्योंकि मैं यह भूल चुकी हूं कि मैं एक औरत हूं, किसी की पत्नी हूं. बस इतना याद है कि मैं 2 छोटी बच्चियों की मां हूं. वैसे भी यह दुनिया भेडि़यों से भरी हुई है और मुझ में इतनी ताकत नहीं है कि मैं स्वयं को और अपनी बेटियों को उन से बचा सकूं.’’

‘‘माफ कीजिएगा रमाजी अपनी कायरता को अपनी मजबूरी का नाम मत दीजिए. जिन बेटियों के लिए आप ये सब सह रही हैं उन के लिए ही आप से प्रार्थना करता हूं, उन के सामने एक गलत उदाहरण मत रखिए. यह सब सह कर आप 2 नई रमा तैयार कर रही हैं.’’ औरत के इन दोनों ही रूपों से सौरभ को वितृष्णा हो गई थी. एक अन्याय करना अपना अधिकार समझती थी तो दूसरी अन्याय सहने को अपना कर्तव्य.

दिल्ली छोड़ कर सौरभ इतनी दूर अंडमान आ गया था. कोर्ट में उस का केस चल रहा था. हर तारीख पर सौरभ को दिल्ली जाना पड़ता था. शालिनी ने उस पर सैक्स सुख न दे पाने का इलजाम लगाया था. सौरभ अपने जीवन में आई इस त्रासदी से ठगा सा रह गया था, परंतु शालिनी जिंदगी में नित नए विकल्प तलाश कर के लगातार तरक्की की नई सीढि़यां चढ़ रही थी.

आज सुबह प्रज्ञा, जो सौरभ की वकील थी का फोन आया था. कोर्ट ने तलाक को मंजूरी दे दी थी, परंतु इस के बदले काफी अच्छी कीमत वसूली थी शालिनी ने. आर्थिक चोट तो फिर भी जल्दी भरी जा सकती हैं पर मानसिक और भावनात्मक चोटों को भरने में वक्त तो लगता ही है. सौरभ अपनी जिंदगी के टुकड़े समेटते हुए सागर के किनारे बैठा रेत पर ये पंक्तियां लिख रहा था: ‘‘मुरझा रहा जो पौधा उसे बरखा की आस है,

अमृत की नहीं हमें पानी की प्यास है, मंजिल की नहीं हमें रास्तों की तलाश है.’’

अपने पैर कुल्हाड़ी : भाग 3

दोनों के बीच 2 दिनों तक अबोला पसरा रहा था. 2 दिन बाद क्रोध शांत होने पर परेश ने बताया था कि दो दिन पहले के मोहिनी के व्यवहार से मां बहुत नाराज हैं. वे नहीं चाहतीं कि नौकरचाकरों के समक्ष इस तरह का बेतुका व्यवहार किया जाए. वे घर की बहू से शालीनतापूर्ण व्यवहार की अपेक्षा करती हैं.’’

‘‘और क्या आशा करती हैं वे घर की बहू से?’’ मोहिनी ने व्यंग्य किया था.

‘‘भाभी हैं घर में, कितने बड़े घर की बेटी हैं, पर आज तक किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया. उन से कुछ सीखो मोहिनी.’’

‘‘सबकुछ मुझे ही सीखना होगा? मां निम्मी से पूछने की जगह मुझ से बात कर सकती थीं, पर उन्हें घर की बहू से अधिक नौकरों पर विश्वास है,’’ मोहिनी की आंखें डबडबा आई थीं.

‘‘दोष तुम्हारा नहीं, मेरा है. मां ने पहले ही कहा था कि तुम्हारे और हमारे जीवन मूल्यों में जमीनआसमान का अंतर है. पर, मैं ही मूर्ख था कि भीतरी गुणों को छोड़ कर बाहरी सौंदर्य पर रीझ गया था.’’

‘‘तो भूलसुधार क्यों नहीं कर लेते? अब भी कुछ नहीं बिगड़ा,’’ दोनों की कहासुनी धीरेधीरे झगड़े का रूप लेती जा रही थी.

‘‘खबरदार, जो ऐसी बात पुन: मुंह से निकाली. हम किसी का हाथ थामते हैं तो जीवनभर निभाते हैं. मैं ने कहा था ना कि हम दोनों के जीवन मूल्यों में बहुत अंतर है,’’ परेश इतनी जोर से चीखा था कि आंनदी देवी दौड़ी आई थीं.

‘‘क्या हुआ…? मुझे तुम से यह आशा नहीं थी मोहिनी? सुबह का थकाहारा पति घर आया है और आते ही महाभारत शुरू. ये नौकरचाकर क्या सोचते होंगे? कुछ तो शर्म करो,’’ वे आते ही मोहिनी पर बरस पड़ी थीं.

‘‘सारा दोष मेरा ही है, मैं ने ही परेश का जीवन नर्क बना रखा है. मैं आप के हाथ जोड़ती हूं, मुझे कुछ दिनों के लिए मातापिता के यहां जाने दें,’’ मोहिनी ने सचमुच हाथ जोड़ दिए थे.

‘‘होश की बात करो बेटी. इस तरह बारबार रूठ कर मायके भाग जाने वाली लड़की का ना मां के यहां सम्मान होता है और ना ही ससुराल में,’’ आनंदी ने बात को वहीं समाप्त करने का प्रयत्न किया था.

तभी निम्मी चाय की ट्रे थामे आ खड़ी हुई थी.

‘‘तुम दोनों चाय पी लो, मेरा तो पूजा का समय हो रहा है,’’ कहती हुई आनंदी कक्ष से बाहर निकल गई थीं.

पर बात इतनी सरलता से कहां समाप्त होने वाली थी. मोहिनी के दिमाग में जो कीड़ा कुलबुला रहा था, वह किसी को भी चैन से रहने देने को तैयार नहीं था.

दूसरे दिन जब सब अपने कार्य में व्यस्त थे, मोहिनी ने अपने सूटकेस में कुछ कपड़े डाले और दरवाजे पर खड़े चौकीदार और अन्य सेवकों की नजरें बचा कर घर से बाहर निकल गई थी.

जब अचानक ही मोहिनी को अपने घर के दरवाजे पर आ खड़े देखा, तो उस के मातापिता के पैरों तले से जमीन ही खिसक गई थी.

“इस तरह अचानक बिना किसी सूचना के…? परेश बाबू कहां हैं?” मां मालिनी देवी ने पूछा था.

‘‘शायद मेरा आना अच्छा नहीं लगा आप लोगों को, मैं परेश और उस के घर को सदा के लिए छोड़ आई हूं,’’ मोहिनी ने घोषणा की, तो मालिनी देवी जहां खड़ी थीं, वहीं धम से बैठ गईं.

‘‘लो सुन लो, मैं ने तो अपनी सारी जमापूंजी लुटा दी इस के विवाह पर और यह फिर से यहां आ कर बैठ गई,’’ उस के पिता द्वारका बाबू होशहवास खो कर चीख उठे थे.

‘‘देखा. कैसा स्वागत हो रहा है बेटी का अपने ही घर में? चिंता मत करिए, मैं शीघ्र ही कहीं नौकरी कर के अपना ठिकाना ढूंढ़ लूंगी, आप पर बोझ नहीं बनूंगी.’’

‘‘सुना? बुद्धि भ्रष्ट हो गई है इस की, विनाश काले विपरीत बुद्धि, इतना संपन्न घराना, ऐसा अच्छा अ‘छा वर छोड़ कर अब यह महिला आवास में जा कर रहेगी,’’ द्वारका बाबू का गला भर आया था.

‘‘लो आ गई आप की लाड़ली बेटी? अभी तो शादी को हुए तीन माह भी नहीं हुए,’’ भाई नितिन पूरी रामकहानी सुन कर हैरानपरेशान स्वर में बोला था.

‘‘तुम भी जले पर नमक छिड़क रहे हो. तुम लोग मेरे पीछे ही क्यों पड़े रहते हो,’’ मोहिनी का दयनीय स्वर सुन कर नितिन हक्काबक्का रह गया था.

‘‘दीदी, भाई हूं तुम्हारा. तुम्हें खुश देखना चाहता हूं, क्या यही मेरा दोष है? तुम कहो कि उन्होंने दुर्व्यवहार किया, दुख दिया तो मैं उन्हें छोड़ूंगा नहीं, पर तुम ने तो अपने पावों पर आप कुल्हाड़ी मार ली.’’

‘‘जरा सोच बेटी, आज तू परेश बाबू के साथ आई होती तो घर में आनंद की लहर दौड़ जाती. नितिन तुम दोनों के स्वागत में पलक पांवड़े बिछा देता,” मां मालिनी देवी ने दीर्घ निश्वास ली थी.

‘‘सब सोच लिया, समझ लिया मां, आगे क्या करना है, वह भी सोच लिया,’’ मोहिनी धीमे स्वर में बोल कर चुप हो गई थी.

दूसरे दिन से ही अपनी डिगरियों का लिफाफा हाथ में धामे मोहिनी नौकरी की तलाश में भटकने लगी थी. पर बात कहीं नहीं बनी थी. थकहार कर वह अपने पुराने कालेज जा पहुंची थी. विभागाध्यक्ष को अपनी रामकहानी सुनाते हुए रो पड़ी थी मोहिनी.

‘‘देखो बेटी, एक सहायक का पद खाली है, इस से अधिक तो कोई सहायता नहीं कर सकता मैं,’’ विभागाध्यक्ष महोदय ने आश्वासन दिया था.

मोहिनी ने तुरंत हां कह दिया था. दूसरे दिन ही वह कालेज के छात्रावास में रहने चली गई थी. मालिनी देवी रोकती रह गई थीं, पर मोहिनी ने एक नहीं सुनी थी.

प्रतिदिन मोहिनी प्रतीक्षा करती कि शायद परेश का कोई फोन आ जाए या कोई उस की खोजखबर लेने का प्रयत्न करे, पर कहीं कुछ नहीं हुआ था.

इस बीच कोविड की दूसरी लहर आ गर्ई और सब अपने कमरों में बंद हो गए. क्लासें औनलाइन चलने लगीं. दूसरी लहर के बाद भी माहौल सहमासहमा सा था.

उस दिन भी सारी क्लासें ले कर वह खाने के लिए कैंटीन की ओर जा रही थी कि सामने से आती शिप्रा को देख कर चौंक गई थी.

‘‘अरे शिप्रा. तुम यहां…?’’

‘‘यह प्रश्न तो मुझे करना चाहिए, मैं तो अपनी डिगरी लेने आई हूं. बड़े दिनों से कालेज बंद था, पर तुम यहां? और कितनी बदल गई हो पहले की मोहिनी की छाया मात्र,’’ शिप्रा के स्वर में हैरानी थी.

‘‘तुम भी कुछ कम नहीं बदली, कितनी मोटी हो गई हो,’’ मोहिनी का उत्तर था.

‘‘चुप, ऐसा नहीं कहते, मैं मां बनने वाली हूं,’’ शिप्रा फुसफुसाई थी.

‘‘ओह, तभी…’’

‘‘तभी क्या?’’

‘‘अनोखी चमक है तुम्हारे चेहरे पर.’’

‘‘चमक तो आनंद की है मोहिनी. सच में मैं बहुत खुश हूं. तुम सुनाओ, कैसी कट रही है जिंदगी.’’

‘‘चलो, कैंटीन चलते हैं. बैठ कर बातें करेंगे,’’ मोहिनी ने प्रस्ताव किया था.

‘‘मैं जरा जल्दी में हूं मोहिनी.’’

‘‘मेरे लिए इतना भी समय नहीं निकाल सकती शिप्रा?’’

‘‘ठीक है, चलो कुछ देर के लिए चलते हैं,’’ शिप्रा ने स्वीकृति दे दी थी.

मोहिनी की रामकहानी सुन कर शिप्रा सन्न रह गई थी. उस के मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला था.

‘‘कुछ तो कहो शिप्रा?’’ मौन मोहिनी ने ही तोड़ा था.

‘‘कहने को क्या छोड़ा है तुम ने मोहिनी? एक बात पूछ लूं? तुम स्वयं को समाज और परिवार से ऊपर क्यों समझती हो? समाज के कुछ नियमकायदे हैं. हमें उन सब का पालन करना पड़ता है. और क्या तुम ही संसार की सब से सुंदर स्त्री हो.’’

‘‘शिप्रा, तुम्हारे किसी प्रश्न का उत्तर नहीं है मेरे पास. ठीक ही कहा तुम ने, मैं आवेश में कोई भी निर्णय ले लेती हूं. आगेपीछा सोचे बिना.’’

‘‘मोहिनी, तुम वापस लौट जाओ.’’

‘‘अब क्या मुंह ले कर जाऊंगी वहां.’’

‘‘तो परेश को फोन करो, वे आ कर ले जाएं.’’

‘‘इतना साहस नहीं है शिप्रा,’’ मोहिनी ने आंखें झुका ली थीं.

‘‘ला, परेश का नंबर दे मुझे. मैं फोन करती हूं,’’ शिप्रा ने अपना मोबाइल निकाला था.

मोहिनी ने नंबर मिलाया और परेश का स्वर सुनते ही शिप्रा को थमा दिया था.

‘‘नमस्ते जीजाजी, मैं शिप्रा, मोहिनी की सहेली.”

‘‘नमस्ते, शिप्रा शायद तुम नहीं जानती कि मोहिनी अब यहां नहीं रहती.’’

‘‘कैसे रहेगी, आप तो हमारी सहेली को भूल ही गए.’’

‘‘तुम भी मुझे ही दोष दे रही हो?’’

‘‘नहीं, मैं तो केवल यह कह रही हूं कि यदि पतिपत्नी में से एक नासमझ हो तो दूसरे को संभाल लेना चाहिए, नहीं तो इस बंधन का अर्थ ही क्या है?’’

‘‘शायद, तुम ठीक कह रही हो, पर मोहिनी है कहां?’’

‘‘यहीं, मेरे सामने बैठी है. लीजिए, बात कीजिए.’’

मोहिनी बड़ी कठिनाई से कुछ शब्द बोल पाई थी.

‘‘तुम अपने मातापिता के घर जाओ. मैं आ रहा हूं लेने मोहिनी,’’ परेश ने कहा था.

मोहिनी अचानक सिसक उठी थी. लंबे समय से दबा दुख मानो आंखों की राह बह जाना चाहता था.

मेरी आंखों के पास साइन औफ ऐजिंग आने लगे हैं, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

मैं केवल 35 साल की हूं और अभी से मेरी आंखों के पास साइन औफ ऐजिंग दिखने लगे हैं, बताएं मैं इससे छुटकारा कैसे पाऊं ?

जवाब

हमें आंखों के पास लाइन औफ ऐजिंग दिखने से पहले ही अपनी स्किन की देखभाल शुरू कर देनी चाहिए और अंडर आई क्रीम का इस्तेमाल करना चाहिए.

आंखों के नीचे मसाज हमेशा रिंग फिंगर से चारों और करनी चाहिए, क्योंकि इस से स्किन पर बहुत कम प्रैशर लगता है. अंडर आई क्रीम के अंदर आंखों को आराम व पोषण पहुंचाने वाले तत्त्व होते हैं. मार्केट में आई क्रीम उपलब्ध है जैसे जैल बेस्ड क्रीम.

यह त्वचा में जल्दी औब्जर्व हो जाती है और स्किन को हाईड्रेट करती है. इस के अलावा जैल का एहसास आंखों को ठंडक भी पहुंचाता है. जैल क्रीम का इस्तेमाल रात और दिन दोनों वक्त कर सकती हैं.

सीरम- इस में त्वचा को रिपेयर करने वाले तत्त्व कौन्संट्रेटेड फौर्म में होते हैं जिस कारण यह बहुत कम मात्रा में लगता है और ज्यादा असरदार होता है. जबकि क्रीम माइल्ड होती है. इसी कारण सीरम क्रीम से ज्यादा बेहतर होता है.

कैप्सूल्स- सीरम की तरह कैप्सूल्स में भी इन्ग्रीडिएंट्स कौन्संट्रेटेड वर्जन में होते हैं. इन कैप्सूल्य को फोड़ कर इन का लिक्विड निकाल कर लगाने से काफी फायदा होता है.

डॉ. प्रिया आईएएस : भाग 3

उस दिन मैं खूब रोई थी. मैं समझ नहीं पाई थी कि लाइन में लगने से किसी पिता को कैसे

झुकना पड़ता है? इस में सूसाइड करने वाली क्या बात है? वे मेरे पिता कैसे हो सकते हैं जो बातबात पर सूसाइड की धमकी देते हैं. मन हुआ था, मैं अभी उठ कर घर चली जाऊं. पर बीमार थी, इसलिए जा नहीं पाई.

डाक्टर ने चैक किया, सब ठीक था. कहा, ‘सब ठीक है. इसे खूब खेलने और खाने को दो. खूब

बातें करे. यह डिप्रैशन का शिकार है. ये कुछ दवाइयां हैं, खाती रहे. इस से भूख लगेगी और नींद आएगी.’

उस दिन से मैं खेल न सकी, खाने को मिला लेकिन कई बातों के साथ. खुद बना कर खाना पड़ता था. मन के भीतर पिता को ले कर आज भी जबरदस्त आक्रोश है. क्या सच में पिता ऐसे होते हैं? यह प्रश्न उस समय भी पीड़ा देता था और आज भी पीड़ा देता है. यह सब सोचतेसोचते जाने कब आंख लग गई.

नींद खुली तो इंटरकौम की घंटी बज रही थी. मैं ने हैलो कहा. उधर से आवाज आई, “हैलो, डा. प्रिया, गुडमौर्निंग. मैं नागौर की जिलाधीश, डा. रजनी शेखावत बोल रही हूं. नागौर की डीएम

पोस्ट पर आप का स्वागत है और बधाई.’’

“गुडमौर्निंग मैम, थैंक्स मैम.’’

‘‘मैं ने आप को इसलिए फोन किया है कि पूछूं, आप ठीक से सैटल हो गईं? रैस्ट हाउस में कमरा

ठीक मिला? सब तरह की सुविधाएं हैं? कोई तकलीफ तो नहीं?”

“बिल्कुल सैटल हो गई हूं, मैम. हर तरह की सुविधा है. 2 इंस्पैक्टर चौबीस घंटे मेरा ध्यान

रखने के लिए डिटेल हैं.”

‘‘ठीक है, अपना ध्यान रखना. इंस्पैक्टर को बताए बिना कहीं नहीं जाना है, ओके. सोमवार को

मिलते हैं, बाय.’’

“बाय मैम.’’

मन खुश हो गया था. एक महिला जिलाधीश के अंडर में काम करने का मौका मिलेगा. बहुतकुछ सीखने को मिलेगा.

मन किया कि चाय पिऊं. मैं ने मैस में और्डर किया. दस मिनट में शानदार चाय आई. चाय पी कर मैं फिर लेट गई. मैं फिर अपने में खोने लगी. एक बार मेरे लिए नवलग से रिश्ता आया था. लड़के का खुद का कपड़े का व्यापार था. नानानानी बोले थे, ‘कर दो शादी.

बहुत पैसा है. पढ़ाई में कहां सिर फोड़ेगी?’

मन गुस्से से भर उठा था. कैसी घटिया सोच है? लड़की को घर से बाहर धकेल दो. चाहे बाहर नर्क हो या गहरा कुआं? इन लागों को कोई फर्क नहीं पड़ने वाला. सदियों से चली आ रही इस सोच में अकसर सभी लड़कियां बह जाती हैं. उन को जीवन में कोई थाह नहीं मिलती है. जीवनभर वे नर्कों में जीती हैं. दोष कर्मों को दिया जाता है. सच में यह क्या कर्मविधान है? बचपन से हमें यही सिखाया जाता है.

एक बजने वाला था. एक से तीन बजे लंच करने का टाइम था. मैं धीरेधीरे तैयार हुई और लिफ्ट की ओर बढ़ी. लिफ्ट के आगे बने हौल में बहुत से सोफे लगे थे. उस पर बैठी इंस्पैक्टर संगीता तुरंत मेरे साथ हो ली, कहा, ‘‘मैडम, जब आप कमरे से बाहर निकलने लगें, हमें जरूर बताएं.’’

“पर इतने बंधन क्यों? ये कुछ ज्यादा ही बंधन नहीं हैं?”

‘‘मैडम, ऐसे ही आदेश हैं. हमें इन आदेशों का पालन करते रहना है. कृपया सहयोग करें.’’

मैं कुछ नहीं बोली थी. मैस के डाइनिंग हौल में जब मैं बैठ गई तो इंस्पैक्टर संगीता ने कहा,

‘‘मैडम, मैं बाहर बैठी हूं.’’

खाना खा कर मैं बाहर आई तो इंस्पैक्टर संगीता फिर मेरे साथ हो ली. खाना बहुत टैस्टी और

शानदार था. लिफ्ट में मैं ने बताया, ‘‘इंस्पैक्टर संगीता, मैं शाम को 5 बजे सुपरमार्केट जाना

चाहूंगी.’’

‘‘ठीक है, मैडम. इंस्पैक्टर रवीना आप को एस्कोर्ट करेगी. 5 वजे वह आप को रिपोर्ट करेगी.

मेरी डयूटी 5 बजे तक ही है.’’

मैं अपने कमरे में लौट आई. 5 बजे इंस्पैक्टर रवीना आई और मैं उस के साथ सुपरमार्केट

जा कर सामान ले आई. रात को डिनर किया और सो गई.

दूसरे रोज संडे था. नाश्ते के बाद मेरे लिए कोई काम नहीं था. मैं पलंग पर लेटी और फिर नींद की आगोश में चली गई. लंच के समय मैस में गई. लंच किया और सो गई. नींद पूरी ही नहीं हो रही थी.

शाम को 5 बजे उठी. मन हुआ, स्कूल के सर को फोन करूं. थोड़ी देर में यह विचार भी त्याग दिया. सोचा, सरकारी विजिट पर जाऊंगी तो मिलूंगी. इंस्पैक्टर रवीना से पूछा कि पास में कोई पार्क है जहां घूमा जा सके?

‘‘है, मैडम. आप तैयार हो जाएं. मैं आप को ले चलती हूं.’’

पार्क मैं खूब घूमती रही. लौटी तो काफी थक गई थी. डिनर किया और सो गई.

सुबह बेड टी ली, नाश्ता किया और औफिस के लिए तैयार हो गई. पहले दिन जब मैं औफिस की कुरसी पर बैठी तो यकीन नहीं हुआ कि मैं आईएएस हूं और जिला नागौर की डीएम हूं. मेरी शानदार टेबल पर डा. प्रिया, आईएएस, का छोटा बोर्ड रखा गया.

मैं फिर विचारों में खो गई. मुझे शोध के लिए यानी पीएचडी के लिए नागौर पीजी में आना था.

घर में तूफान मचा हुआ था. मां, पिता, भाई और रिश्तेदार सभी यही कह रहे थे कि पीजी में जाओगी तो घर से सारे रिश्ते तोड़ कर जाओगी.

मेरा पारा भी हाई था. मैं सब को छोड़ कर चली आई थी. उस के बाद मैं जिंदा हूं या मर गई हूं. मैं ने सब कैसे मैनेज किया होगा, घर वालों को इस से कोई मतलब नहीं था. उन के लिए मैं जीतेजी मर गई थी. इस बात को 5 साल बीत गए हैं.

भीतर तक मैं कड़वाहट से भर गई थी.

मैं ने अपने मन और मस्तिष्क से सब को निकाल दिया था. 10 बजे मेरे लिए चाय आई और सरकारी डाक ले कर इंचार्ज हाजिर हुआ.

‘‘मैडम, हर मंगलवार आप को जिले की विजिट

करनी होती है. इस का कार्यक्रम जिलाधीश औफिस से आता है. लेकिन मैडम ने पहला प्रोग्राम आप से पूछने के लिए कहा है कि आप सब से पहले कहां विजिट करना चाहेंगी?’’

‘‘मैं डीडवाना तहसील के जायल कसबे की विजिट करना चाहूंगी.’’

उसी के अनुसार कार्यक्रम बन गया. जायल की पंचायत को बता दिया गया था. उन्हीं के साथ मेरा लंच था. मुझे बता दिया गया था कि मुझे क्याक्या चैक करना है, क्याक्या प्रोग्रैस देखनी है.

मेरे पिता उस कसबे के सरपंच थे. शायद आज भी हों. मेरे घर वालों को यकीन ही नहीं होगा कि मैं डीएम बन गई हूं और सरकारी विजिट पर आऊंगी. मन के भीतर मोह यह था कि मैं उन के चेहरे के भाव देखूं. केवल दादी मेरी पढ़ाई से खुश होती थी, ‘मैडम, बैग ले कर औफिस जाया करेगी.’

मैं मैडम बनी लेकिन इतनी बड़ी मैडम बनूंगी, शायद किसी को भी यकीन नहीं होगा.

उन्होंने तो मुझे कब का मार दिया था. मन कसैला हो गया था. मैं ने सोमवार शाम को ही जाने की सारी तैयारियां कर ली थीं. मुझे सहयोग करने वाला सारा अमला आज

दोपहर को ही वहां पहुंच गया था.

मंगलवार को सुबह मैं ने नाश्ता किया और शानदार रेशमी साड़ी पहनी. अपने को शीशे में देखा तो यकीन नहीं हुआ कि मैं इतनी सुंदर हूं. जीवन में कभी मैं ने अपना ख़याल नहीं रखा था. जो मिला, पहन लिया. जो मिला, खा लिया. साड़ी पहनने के मूल में विचार यह था कि देखने वालों को लगना चाहिए कि मैं डीएम हूं. मन के भीतर कहीं आक्रोश रूप में यह मोह भी था कि अपने मांबाप को बताऊं कि मैं वही प्रिया हूं. कुछ भी हो, मैं चाहे जितना मरजी इनकार करूं, मन में चाहे कितना भी विरोध और आक्रोश हो, संतान तो मैं उन्हीं की हूं. जा तो मैं अपने पैतृक कसबे में ही रही हूं न. अपनी मिट्टी से घुलमिल जाने का अवसर है जिस में रह कर मैं बड़ी हुई हूं. मैं जब तैयार हो कर गाड़ी में बैठी तो दोनों इंस्पैक्टरों ने मुझे सैल्यूट किया. तेजी से जायल

की ओर बढ़े. मैं ने आंखों पर काला चश्मा लगा लिया था इसलिए कि आंखों से मेरे मन के भाव कोई न समझ सके. डीएम औफिस के इंचार्ज पंचायत को मेरे रास्ते की अपडेट दे रहे थे.

जायल पंचायत घर पहुंचतेपहुंचते दोपहर हो गई थी. मेरे स्वागत में पंचों के साथ मेरे पिता भी

हार ले कर खड़े थे. मैं कार से उतरी तो सभी ने मुझे हार भेंट किए. मेरे पिता ने मुझे कभी इस रूप में देखा नहीं था, इसलिए वे जल्दी मुझे पहचान नहीं पाए. जब पहचाना तो आंखें फटी की फटी रह गईं. मुंह से एक शब्द न निकला. कहते भी क्या. कहने लायक थे ही नहीं.

मैं मन से सख्त हो गई थी. सख्ती से इंस्पैक्शन भी किया. कमियां तुरंत पूरी करने के लिए कहा. मैं नागौर लौटने लगी तो पिता मेरे सामने हाथ बांध कर खड़े हो गए. सिर झुका हुआ था, कहा, ‘‘मैडम जी.’’ वे मुझे मेरे बचपन के नाम से पुकार नहीं पाए. ‘‘मानता हूं, मैं इस लायक भी नहीं हूं कि आप को अपनी बेटी कह सकूं. आप के साथ मैं ने ही नहीं, सारे परिवार और

रिश्तेदारों ने बहुत बुरा किया है. जो हुआ, सदियों से चले आ रहे विचारों और संस्कारों के कारण हुआ.

बच्चियों के लिए आज भी यही सोच है. आज भी बच्चियां पढ़ नहीं पाती हैं, जल्दी ब्याह दी जाती हैं. सारी जिंदगी नर्क भोगती हैं. इन से कब उबरेंगे, पता नहीं.

“मैं, मैडम जी, यह प्रार्थना ले कर हाजिर हुआ हूं कि मेरी पत्नी बहुत बीमार है.’’ वे यह नहीं

कह सके कि मेरी मां बीमार है. ‘‘यदि आप घर चल कर उन को देख लेतीं तो बड़ी मेहरबानी होगी.’’

मैं भीतर से पिघलने लगी थी. मैं अपने पिता को इस तरह गिड़गिड़ाते हुए तो देखना नहीं चाहती थी. वे मेरे पिता हैं. मेरी मां ने मुझे जन्म दिया है और बड़ा किया है. मैं तो केवल उन के चेहरे के भावों को देखना चाहती थी. इन्होंने मेरे साथ वही किया जो उस दौर की सभी बच्चियों के साथ होता था. आंखों के कोर गीले हो गए थे. चश्मा पहने होने के कारण दिखाई नहीं दिए.

मैं पंचायत औफिस में वापस आ कर बैठ गई, इंचार्ज से बोला, ‘‘यहां की डिस्पैन्सरी की डाक्टर से मेरी बात करवाएं.

फोन मिलाया गया. उधर से हैलो कहने पर मैं ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘‘क्या आप अभी मेरे साथ चल कर एक सीरियस पेशेंट को देख सकती हैं? मैं गाड़ी भेजूं? मैं जायल के पंचायत घर में बैठी हूं.’’

‘‘मैं अभी हाजिर होती हूं,’’ डा. प्रोमिला ने कहा.

मैं डाक्टर को ले कर घर पहुंची तो मां बिस्तर पर लेटी हुई थी. शरीर से कमजोर हो गई थी.

मैं ने डाक्टर प्रोमिला से कहा, ‘‘डाक्टर साहिबा, यह मेरी मां है और मेरे पिता इस कसबे के सरपंच हैं.

“मैं इसी कसबे की मिट्टी में पल कर बड़ी हुई हूं. आप चैक करें और इन्हें ठीक कर दें.’’

मेरी आवाज सुन कर मां ने एक बार आंखें खोलीं. कुछ बोलना चाहा, लेकिन कमजोरी के कारण बोल न पाईं.

‘‘ओह, अच्छा. अच्छा हुआ आप ने मुझे बता दिया. मैं चैक कर के बताती हूं.’’

चैक करने के बाद डाक्टर ने कहा, ‘‘कमजोरी है. लेकिन कमजोरी से अधिक इन्हें मानसिक संताप है. मैं अभी से ताकत के इंजैक्शन दे रही हूं. कुछ दवाइयां हैं जो डिस्पैन्सरी से मिल जाएंगी.’’

डाक्टर ने परची मेरे पिता की ओर बढ़ा दी

और कहा, ‘‘कोई पैसा नहीं देना है. मैं ने कंपाउंडर को फोन कर दिया है.’’

पिता ने भाई को परची दे कर भेज दिया.

‘‘अगर आप कहें तो मैं इन्हें नागौर ले जा सकती हूं,’’ मैं ने डाक्टर से कहा.

‘‘नहीं, जरूरत नहीं है. मैं यहां हूं. रोज आप को अपडेट देती रहूंगी. आप को अपने औफिस से इन का डिपैंडैंट लैटर भेज देना है.’’

मैं मां के पास भीतर गई. सिर पर हाथ रखा.

एक बार आंखें खोल कर मां ने मुझे देखा. आंखों से अश्रुधारा बह निकली. मैं ने आंसू पोंछे और जल्दी से आ कर गाड़ी में बैठ गई. मुझे मां का संताप मिटाने के लिए इस से अच्छा रास्ता कोई नहीं सूझा.

घर के सारे लोग और आसपास के लोग भी मुझे देखने और विदा करने को आ कर खड़े हो गए थे.

मेरी कार तेजी से नागौर की ओर भाग रही थी.

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