चारों तैयार हो कर फिर घर से बाहर चले गए. पूरण को आने से मना कर दिया. लेकिन अगले दिन पूरण फिर 4 बजे ही हाजिर था.
‘‘सब्जीदाल बता दीजिए क्या बनानी है,’’ वह बोला. मैं उसे सबकुछ दे कर, चाय बनाने के लिए कह कर टीवी पर न्यूज सुनने लगी. पूरण ने दोनों को चाय ला कर दी. बरतन भी पूरण ही धोता था. चाय खत्म करते हुए मैं सोच रही थी कि आज तो इसे इत्मीनान से कुछ सिखा ही दूंगी. बच्चे भी नहीं हैं, पर जब तक किचन में आई, पूरण की सब्जी कट कर बन भी चुकी थी.
‘‘माताजी, देखिए, आज कितनी बढि़या तोरी की सब्जी बनाई है मैं ने,’’ पूरण उस हरीपानी वाली बिना टमाटर की तोरी की सब्जी में करछी चलाता हुआ बोला. उस भयानक सब्जी से भी अधिक मेरा ध्यान उस के बोलने पर चला गया, ‘माताजी.’ मैं माताजी सुन कर बुरी तरह चौंक गई. क्या मैं माताजी जैसी दिखने लगी हूं? सासूमां की याद आ गई. उन्हें जानपहचान वाले माताजी कह देते थे. पर मैं? अभी तक तो भारत में किसी ने मु झे माताजी कहने की हिमाकत नहीं की थी. महिलाएं तो आंटी बोलने से ही जलभुन जाती हैं और मु झे यहां दुबई में माताजी?
भाग कर शीशे में देखा, हर एंगल से खुद को. अभी तो ठीकठाक सी ही हूं. सीनियर सिटिजन भी नहीं हुई अभी. टिकट में कन्सैशन भी नहीं मिलता है मु झे अभी तो. और इस आदमी की ऐसी जुर्रत. दिल किया खड़ेखड़े निकाल दूं. किचन में वापस आई.
‘‘माताजी,’’ पूरण खीसें निपोरता दोबारा बोला.
‘‘हां बोलो, भाई,’’ कुढ़ कर, हथियार डालते मैं मन ही मन बोली, ‘तुम्हारा माताजी तो मैं पचा लूंगी, पर तुम्हें निकाल कर अपने बच्चों को कष्ट नहीं दे सकती, खुश रहो तुम.’
इसी बीच दीवाली आ गई. 15 लोगों की मित्रमंडली जमा हो रही थी घर पर. हमारे समय में तो इतनों के खाने का मतलब सुबह से तैयारी. पर बच्चे कितने मस्त थे. उन के पास तो इतने बरतन भी नहीं थे. कुछ थोड़ाबहुत घर में तैयारी की. बाकी खाना बाहर से और्डर हुआ. पेपर प्लेट, डिस्पोजेबल गिलास, चम्मच वगैरह कुछ कम थे. दोनों को ही लाने के लिए कह दिया और हो गई मजेदार हंगामे वाली पार्टी.
पार्टी शुरू हुई तो हम बैडरूम में बैठ गए पर बच्चों ने खींच लिया हमें भी. कुछ बच्चे सौफ्टडिं्रक ले रहे थे तो अधिकतर हार्डडिं्रक. इशिता और रिषभ डिं्रक नहीं करते, लेकिन मित्रमंडली के साथ पूरी मस्ती करते हैं बिना पिए ही. साथ में हंसतेखिलखिलाते, लोटपोट होते देख लगता ही नहीं है कि यह सब पी कर हो रहा है या बिन पिए. छोटीछोटी डै्रसेज पहनने वाली लड़कियां आज दीवाली पर स्टाइलिश साड़ी या दूसरे भारतीय परिधान पहने हुए थीं. इतनी मस्ती तो हम ने भारत में न की थी दीवाली पर.
क्या कूल जनरेशन है. जो समस्याएं हमारे जीवन में थीं, वे तो इन के लिए समस्याएं ही नहीं हैं. दुबई में मेरी स्कूल, कालेज की फ्रैंड सुरभि रहती है. एक दिन वह पूरा दिन मेरे पास बिता गई और एक दिन मु झे उस के पास जाना था, उस के साथ सारा प्रोग्राम फिक्स कर मैं ने डाइनिंग टेबल पर ऐलान कर दिया, ‘‘कल सुरभि के घर जा रही हूं. पूरा दिन बिताने.’’
‘‘किस के साथ?’’ पति महोदय आश्चर्य से बोले.
‘‘अरे ममा, कल क्यों बनाया प्रोग्राम. मैं छोड़ देता आप को किसी दिन. कल तो बहुत बिजी हूं,’’ रिषभ बोला.
‘‘तु झे परेशान होने ही जरूरत नहीं. मैं तो नीचे से टैक्सी ले लूंगी. दुबई तो कितना सेफ है. यहीं जेएलटी में ही तो रहती है वह,’’ मैं इत्मीनान से बोली.
‘‘हांहां, सब को अपने जैसा सम झा है न,’’ समर बड़बड़ाते हुए बोले, ‘‘तुम इतनी सीधीशरीफ हो, अक्ल तो है नहीं तुम में, कोई भी बेवकूफ बना देगा, यहां दुबई में भी.’’
‘‘हां ममा, टैक्सी से तो मैं भी आप को अकेले नहीं जाने दे सकता,’’ रिषभ भी फैसला सुनाता हुआ बोला.
पर पति की बात ने तो भूचाल ला दिया था दिमाग में. शब्द तारीफ में नहीं कहे गए थे. अंदर की लेखिका ने कई पन्ने रंग डाले महिला सशक्तीकरण के पक्ष में. मैं ने सब पर अपनी निगाहें घुमाईं. तीनों मेरे बारे में फैसला कर आराम से खाना खा रहे थे.
‘‘हां, यह तो है कि बीवियों को 25 में भी, अक्ल नहीं होती और 50 में भी पर पता नहीं पतियों को कैसे 25 में भी अक्ल आ जाती है और 50 में तो होती ही है.’’ बुदबुदाते हुए मैं लंबी सांस खींच कर, रोटी का टुकड़ा मुंह में डाल, गुस्से में जोरजोर से चबाने लगी. तीनों अचानक चौंक कर मेरी तरफ देखने लगे. पति भी अपनी भावुक मिजाज की हरदम प्रसन्नचित्त बीवी का ऐसा करारा जवाब सुन कर हतप्रभ थे और दोनों बच्चे अब तक सबकुछ सम झ कर हंसहंस कर बेहाल हुए जा रहे थे. न चाहते हुए भी समर को भी उन की हंसी में शामिल होना पड़ा और उन सब को हंसता देख मैं भी मुसकराने लगी.
‘‘डोंट वरी ममा. कल जल्दी तैयार हो जाना. मैं छोड़ दूंगा आप को,’’ रिषभ हंसता हुआ बोला.
‘‘हां, कल चली जाओ, तुम,’’ समर भी खाना खत्म कर उठते हुए बोले.
‘‘कोई जरूरत नहीं. बात तो गई मेरी सुरभि से. वह मु झे लेने आएगी 11 बजे.’’
‘‘तो आप हमारा इम्तिहान ले रही थीं,’’ इशिता भी मासूमियत से कुनमुनाई.
‘‘और क्या,’’ मैं ठहाका मारते हुए बोली, ‘‘देखना चाहती थी कि मेरे बंदीगृह की दीवारें और कितनी मजबूत हुई हैं, कितने पहरेदार पैदा हो गए हैं मेरे.’’
‘‘अरे नहीं, ममा,’’ रिषभ लाड़ से मु झ से लिपटता हुआ बोला, ‘‘बहुत प्यार करते हैं आप से, इसलिए फिक्र करते हैं आप की. आप को पता नहीं, कितने इंपौर्टेंट हो आप हमारे लिए. कल लेने मैं आ जाऊंगा आप को. जब आने का मन हो, तब फोन कर देना. तभी निकलूंगा औफिस से.’’
‘‘मु झे मालूम है, बेटा,’’ मैं स्नेह से उस की बांह व चेहरा सहलाते हुए बोली.
ऐसे ही हंसतेहंसाते एक महीना कब गुजर गया, पता ही नहीं चला. दुबई का वीजा या तो एक महीने का बनता है या 3 महीने का. यदि एक महीने से एक हफ्ता भी ऊपर रहना है तो फिर वीजा
3 महीने का ही बनाना पड़ता है. आने का समय हो गया. कितना कुछ भर दिया था इशिता और रिषभ ने. अटैचियां निर्धारित वजन से ज्यादा हो रही थीं. उस पर भी अच्छाखासा हंगामा हो रहा था कि क्या रखें और क्या छोड़ें. दुबई के एयरपोर्ट पर साथ में आया कोई भी, सामान के चैकइन काउंटर तक छोड़ने जा सकता है. रिषभ ने सामान चैकइन करवा दिया. अब हमें अंदर सिक्योरिटी को पार करना था. बच्चों को यहीं पर अलविदा कहना था.
दिल तो भावनाओं के ज्वर से उमड़घुमड़ रहा था. पर अपने आंसू सरलता से दिखाने की आदत नहीं है मेरी. इसलिए हंसतेमुसकराते बच्चों से विदा ले रहे थे हम. बच्चे अपनी जगह पर खड़े हाथ हिला रहे थे. और मैं पीछे मुड़मुड़ कर उन की भुवनमोहिनी जोड़ी को मन ही मन अनंत शुभकामनाएं दे रही थी. लेकिन अंदर जाते ही आंखें बरसने लगीं.
मन उदास हो रहा था. पर सोच रही थी बच्चों ने इतने दिन याद न रहने दिया अपनी उम्र को. अपने रंग में रंग दिया हमें. इस युवा पीढ़ी के साथ जिस ने कदमताल कर दिया, उस ने इन का सुख पा लिया. वरना यदि अपने अडि़यल रवैए और अडि़यल विचारों पर अड़ी रहेगी पुरानी पीढ़ी तो यह पीढ़ी इतनी तेज दौड़ रही है कि फासला बढ़ते देर नहीं लगेगी. यह पीढ़ी उन्हीं के लिए कदम धीरे करेगी, जो इन के साथ दौड़ने की कोशिश करेंगे.
यही सब सोचतेसोचते समर और मैं सिक्योरिटी पार कर डिपार्चर लाउंज की तरफ चल दिए.