विधानसभा चुनाव में 35 प्रतिशत वोट पाने वाली पार्टी बहुमत से सरकार बनाने में सफल होती है. पिछले कुछ सालों में बसपा का बेस वोट बिखरने लगा. 2007 के बाद इसकी गति थोड़ी और भी तेज हो गई. दलित वोट में बिखराव तो बसपा-भाजपा गठबंधन की सरकारों के समय से ही शुरू हो गया था, उसमें असल तेजी तब आई जब 2007 से बसपा की बहुमत से सरकार बनने के बाद दलित संगठनों को दरकिनार किया गया. उस दौर में बसपा दलित-ब्राहमण गठजोड़ की सोशल इंजीनियरिंग के सहारे अपना भला देख रही थी. बसपा ने दलित जातियों और उसके छोटे बड़े नेताओं और संगठनों को दरकिनार करना शुरू कर दिया था. सत्ता के करीब दिख रही बसपा सोशल इंजीनियरिंग धरातल पर कहीं नहीं थी. जमीनी स्तर पर दलित और अगडी जातियों के बीच दूरी बनी हुई थी.
दलितों में अलग अलग जातियों के नेता उभर चुके थे. जिनके पास बड़ा आधार भले न रहा हो पर वह कुछ सीटों पर प्रभावी थे. बसपा नेता मायावती ने ऐसे नेताओं को कभी महत्व नहीं दिया. ऐसे में यह नेता अपने साथ अपनी जाति के वोट लेकर बसपा से कट गये. 2007 के विधानसभा चुनाव में सुरक्षित सीटों पर सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाली बसपा 2009 के लोकसभा चुनाव इन सीटों पर हार गई. इसके बाद भी बसपा यह मानने को तैयार नहीं थी कि उसका बेस वोट खिसक चुका है. यही गलती मायावती को भारी पड़ी और 2012 के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में पहली बार बहुमत की सरकार बनाने में सफल रही.
बसपा को अपनी हार का पता तो था पर मायावती की जिद दूसरे दलित नेताओं को महत्व देने को तैयार नहीं थी. नतीजा एक बार फिर बसपा के खिलाफ आया जब लोकसभा चुनाव में उसे पूरे प्रदेश में एक भी सीट नहीं मिली. मायावती और उनके रणनीतिकार यह मान कर चल रहे थे कि दलित वोट उनके अलावा कहीं वोट नहीं देगा. बसपा की इसी चूक का लाभ भाजपा ने उठाया और उसने लोकसभा चुनाव में अलग अलग दलों के दलित नेताओं को अपने साथ जोड़ा. कई दलित नेता सांसद बन गये. 2017 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर से मायावती ने दलित नेताओं को पार्टी से न जोड़ने की गलती की है.
2017 चुनाव में मायावती को दलितों से अधिक मुसलिम वोट पर भरोसा है. बसपा दलित-मुसलिम गठजोड़ के सहारे है. सपा की कमजोर हालत से उसकी उम्मीद बढ़ गई थी. कांग्रेस-सपा गठजोड़ से मायावती की उम्मीद को झटका लगा है. अब मुसलिम भाजपा विरोध की रणनीति पर वोट करेगा. जिसका लाभ केवल बसपा को नहीं होगा. मायावती को मात देने के लिये भाजपा ने एक बार फिर प्रदेश के दूसरे दलित नेताओं को अपने साथ लिया है. जिसका लाभ दलित वोट के विभाजन के रूप में सामने आयेगा. 2007 के पहले यह माना जाता था कि दलित केवल बसपा के चुनाव चिन्ह को देखकर वोट देता है. अब अलग अलग दलित जातियां अपने अपने नेताओं के साथ खड़ी हो रही हैं. जिससे बसपा का जनाधार पहले जैसा मजबूत नहीं रहा.
सुरक्षित सीटों पर भी अगडे और मुसलिम की पावर बैलेंस बन कर उभर रहे हैं. इस वजह से ही भाजपा अपने पार्टी के अंदर के विरोध को झेल कर दलित नेताओं को अपने टिकट पर चुनाव लड़ाने को विवश है पर बसपा दूसरे दलित नेताओं को महत्व नहीं देना चाहती. दलित जातियों में अपने नेता और जाति के नाम पर एकजुट होना बसपा के लिये खतरे की निशानी है. अगर बहुमत की सरकार में बसपा ने दलित जातियों के सामाजिक सम्मान के लिये ठोस कदम उठाये होते तो उसका जनाधार इस तरह न खिसकता.