आज आम जीवन में रिश्तों के बीच एक सन्नाटा सा पसरता जा रहा है. लोग अपनों से दिल की बात छिपाते हैं. वे कछुए की तरह अपने कवच में घुसे रहते हैं. ऐसे में दूरियां बढ़नी तो लाजिमी हैं. आप को 1952 की फिल्म ‘पैगाम’ का वह डायलौग याद है जिस में बुलंद आवाज में दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘जिस धन के लिए आप दुनिया से धोखा कर रहे हैं, अपने अजीजों, अपने दोस्तों से धोखा कर रहे हैं, अपने साथियों से धोखा कर रहे हैं, उसी धन के हाथों आप खुद भी धोखा खाएंगे.’’ या 1960 में आई फिल्म ‘मुगल ए आजम’ का वह डायलौग जब दिलीप कुमार कहते हैं, ‘‘तकदीरें बदल जाती हैं, जमाना बदल जाता है, मुल्कों की तारीख बदल जाती है, शहंशाह बदल जाते हैं मगर इस बदलती हुई दुनिया में मोहब्बत जिस इंसान का दामन थाम लेती है वह इंसान नहीं बदलता.’’ 50 और 60 के दशक में दिलीप कुमार कैसे रंगीन परदे पर लंबेलंबे डायलौग बोलते थे.

फिल्म ‘नया दौर’ में उन के डायलौग कैसे लाऊड थे. चरित्र में एक खुलापन, खिलंदड़पन, उन्मुक्तता, निश्चछलता ?ालकती थी. जैसे कुछ भी भीतर छिपा हुआ न हो, सबकुछ उजागर हो. पूरा व्यक्तित्व शीशे की तरह साफ. अशोक कुमार, देवानंद, राजकपूर, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेताओं से फिल्म निर्देशकों ने स्क्रीन पर खूब लंबेलंबे डायलौग बुलवाए. मगर 80 और 90 का दशक आतेआते डायलौग्स की लंबाई कम होती चली गई. ‘सरकार’ फिल्म में अमिताभ बच्चन के पास जैसे बोलने को शब्द ही न थे. छोटेछोटे वाक्य डायलौग के रूप में उन के मुंह से निकलते थे. आज तापसी पन्नू की फिल्में देख लें, पन्नू के मुंह से कैसे चंद शब्द ही बतौर डायलौग बाहर आते हैं. जैसे डायलौग राइटर को सम?ा ही न आता हो कि बात कहने के लिए क्या लिखे. यही वजह है कि बात कहने के लिए ऐक्टर को भावभंगिमा से ज्यादा काम लेना पड़ता है, बजाय मुंह से बोलने के.

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