इन दिनों बाजार में गाय के घी का बुखार बेवजह नहीं चढ़ा है, बल्कि यह एक प्रायोजित षड्यंत्र है जिस के तहत गाय के घी का गुणगान अमृत की तरह किया जा रहा है. गाय को ले कर राजनीति तो और ज्यादा गरमा ही रही है, साथ ही, मौब लिंचिंग भी आम हो चली है यानी हर स्तर पर गाय की ब्रैंडिंग जारी है, भले ही वह वादविवाद और हिंसा की शक्ल में हो, लेकिन है.

हिंदू धर्म में बखान किया गया है कि गाय पूजनीय है, माता है. उस में सभी देवीदेवताओं का वास है, इसलिए वह पवित्र है. उसे मारा जाना और गौमांस खाना अक्षम्य अपराध है. जो ये बातें सीधेसीधे नहीं मानेगा उसे सड़क पर पीटपीट कर मारने का माद्दा हिंदू रखते हैं.

हालांकि ये सब धार्मिक और सियासी बातें व टोटके हैं लेकिन सच यह भी है कि गाय 70 के दशक तक अर्थव्यवस्था की रीढ़ नहीं तो छोटीमोटी हड्डी जरूर हुआ करती थी. गाय अकेली ऐसे जानवरों में से है जो मरने के बाद भी आदमी के काम आती है. इस की हड्डियों से खाद बनाई जाती है और खाल यानी चमड़े से जूते बनाए जाते हैं. जिस से करोड़ों लोगों को रोजगार मिलता है.

नया शिगूफा गाय का घी

धीरेधीरे लोगों को समझ आया कि गाय पालना घाटे का सौदा है, लेकिन इस से गाय का धार्मिक महत्त्व खत्म नहीं हो गया. गौदान का चलन आज भी बरकरार है. फर्क इतना है कि असली गाय दान करने के बजाय यजमानों से उस का नकद मूल्य लिया जाने लगा है.

गाय पूरी तरह परिदृश्य से लुप्त न हो जाए, इसलिए हैरतअंगेज तरीके से गाय के घी की ब्रैंडिंग 5 सालों से कुछ इस तरह हो रही है कि हर किसी को लगने लगा है कि उसे एक बार गाय का घी आजमा कर देखना ही चाहिए.

घी बनाने वाली तमाम कंपनियां इफरात से गाय का घी बना कर बेच रही हैं, जो आमतौर पर सामान्य घी से कहीं ज्यादा महंगा है. गाय के घी का भाव 500-600 रुपए प्रतिकिलो है.

लोगों को गाय का ही घी खरीदने के लिए जिन तरीकों से उकसाया जा रहा है वे चमत्कारी टोनेटोटके ज्यादा हैं. उस की गुणवत्ता और उपयोगिता विज्ञापनों में गिनाई जाती है. उस के मुताबिक, गाय का घी अमृत है, सेहत के लिए फायदेमंद है और कई रोगों से नजात दिलाता है.

आम उपभोक्ता हर उस विज्ञापन व प्रचार से प्रभावित होता है जो बड़े पैमाने पर किया जाता है. इसलिए लोग गाय का महंगा घी खरीदने को प्रमुखता देने लगे हैं. बारीकी से देखें तो यह विज्ञापनों का प्रभाव कम, बखान किए जा रहे तथाकथित चमत्कारों का सम्मोहन ज्यादा है.

कैसेकैसे दावे

कुछ बातें जो विज्ञापनों में नहीं बताई और दिखाई जा सकतीं उन्हें सोशल मीडिया के जरिए प्रचारित कर गाय के घी की महत्ता बताई जा रही है. मकसद घी बेचना भर है, क्योंकि उस की मांग महज दैनिक प्रयोग के लिए बड़े पैमाने पर पैदा नहीं की जा सकती.

इस में कोई शक नहीं कि घी कई गुणों की खान होता है लेकिन इस में शक है कि गाय का घी चमत्कारी होता है. गौरतलब है कि कोई भी घी कोई दवा नहीं है, यह एक डेयरी उत्पादभर है. लेकिन उसे बेचने के लिए जो हथकंडे अपनाए जा रहे हैं वे खुद साबित करते हैं कि गाय का घी लोग अपनी मरजी से नहीं अपना रहे हैं.

आयुर्वेद में गाय के घी का अकल्पनीय बखान किया गया है. तब मंशा यह थी कि लोग गाय पालें और दान करें. अब मंशा यह है कि गाय लोग भले ही न पाल पाएं लेकिन उस का घी जरूर खरीदें. कहने को हवाला सेहत का दिया जाता है पर असल बात कुछ और है.

प्रचार यह किया जा रहा है कि गाय का घी हर रोग को ठीक करता है. मामूली सर्दीजुकाम से ले कर बांझपन और कैंसर तक इस से ठीक हो जाते हैं. इंटरनैट पर ऐसी सामग्री भरी पड़ी है जिस में बताया गया है कि गाय के घी की दोचार बूंदें नाक में डालने से सर्दीजुकाम ठीक हो जाता है. कान के परदे खराब नहीं होते. और तो और, इस के सेवन से पागल तक ठीक हो जाते हैं.

काली देशी गाय का घी खाया जाए तो आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता, जैसी बातें भी लोगों को गाय का घी खरीदने को उकसाती हैं. इस प्रचार का सीधा मतलब यह है कि काले रंग की गाय का घी खाने से सैक्स पावर बढ़ती है.

गाय का घी रामबाण है. इसे पैरों के तलवों में लगाओ तो जलन ठीक हो जाती है. रोज खाओ तो कब्ज और एसिडिटी नहीं होती. नाक में डालो तो गंजों के भी बाल उगने लगते हैं, जैसी बातें और दावे भी चमत्कार के दायरे में ही आते हैं. इन टोनेटोटकों की मानें तो ऐसी कोई बीमारी नहीं है जो गाय के दूध से ठीक नहीं होती हो.

अगर ऐसा होता है तो

अगर वाकई गाय के घी में इतना दम है जितना कि बताया जा रहा है तो न तो एलोपैथी डाक्टरों की जरूरत है और न ही मनोचिकित्सकों की. जरूरत है तो बस, गाय के घी की जो थोड़ा महंगा है और इसे कुछ खास किस्म के ही लोग बना रहे हैं और इस का प्रचार कर रहे हैं.

हर एक उत्पाद की तरह घी में भी कुछ तत्त्व हैं जो शरीर और सेहत के लिए जरूरी हैं, लेकिन गाय के घी में ऐसा कोई तत्त्व नहीं है जो सिर्फ उसी में पाया जाता हो, मसलन प्रोटीन, वसा और दूसरे पोषक तत्त्व.

घी चूंकि प्राचीनकाल से ही चलन में रहा है, इसलिए मान लिया गया है कि उस में पाए जाने वाले तत्त्व आसानी से दूसरे पदार्थ में नहीं मिलते. उलट इस धारणा के, घी के रासायनिक संगठन को देखें तो साफ लगता है कि भैंस के घी में गाय के घी से कहीं ज्यादा पोषक तत्त्व पाए जाते हैं (देखें बौक्स).

फिर हल्ला गाय के घी पर ही क्यों हो? इस सवाल का जवाब साफ है, क्योंकि इस का कनैक्शन धर्म से है. पहले हर तीजत्योहार पर घी के पकवान बनाए जाते थे, लेकिन धीरेधीरे इस के विकल्प आने लगे और किफायती होने के चलते सस्ते पड़ने लगे तो घी की जरूरत और मात्रा कम होने लगी.

घी कभी रईसों का आइटम था जो अब मध्यवर्गियों का भी होने लगा है. दिल के बढ़ते मरीजों और बढ़ते कौलेस्ट्रौल को देख डाक्टर घी से बचने की सलाह देने लगे तो अब यह प्रचार किया जा रहा है कि गाय के घी से कौलेस्ट्रौल नहीं बढ़ता और हार्टअटैक होना तो दूर की बात है. उलटे, यह हार्टअटैक से बचाव करता है. एलोपैथी के डाक्टर हार्टअटैक और दूसरी बीमारियों का डर दिखा कर घी के  चलन को जो खत्म कर रहे हैं वह दरअसल हमारे धर्म व संस्कृति को खत्म करने की साजिश है.

लोगों ने इस पर भी ज्यादा भरोसा नहीं किया तो अब देशी गाय के घी की बात की जाने लगी और उस में भी काले व भूरे रंग जोड़े जाने लगे कि सफेद देशी गाय के घी में ये गुण होते हैं और काली देशी गाय के घी से मर्दाना ताकत बढ़ती है वगैरहवगैरह.

व्यावहारिक तौर पर ये बातें मूर्खतापूर्ण और मनगढ़ंत हैं जिन का मकसद सिर्फ गाय का घी बेचना है. गाय के घी को उत्पाद की तरह नहीं, बल्कि चमत्कार की तरह बना कर बेचा जाना ठगी नहीं तो और क्या है. आयुर्वेदाचार्य और गाय का घी बनाने वाले भले ही गाय के घी का प्रचार करते रहें लेकिन एलोपैथी के डाक्टर अफवाहस्वरूप ही घी न खाने की सलाह देते हैं और यह तो कतई नहीं कहते कि गाय का घी मत खाओ.

गाय का घी और ज्यादा बिके, इस बाबत अब यह प्रचार किया जा रहा है कि गाय के घी से हवन करने से पर्यावरण शुद्धि होती है. प्रचार से एक तीर से दो निशाने साधे जा रहे हैं. पहला लोगों को कर्मकांड में उलझाए रखना और दूसरा जैसे भी हो गाय का घी बिके. इस से समझ आता है कि चूंकि लोग यज्ञ, हवन, पूजापाठ के लिए ही अरबों रुपयों का घी खरीदते हैं, सो अब उन्हें गाय के घी से हवन करने की सलाह दी जाती है.

लोगों की धार्मिक भावनाओं और चमत्कारी मानसिकता को भुनाने के लिए गाय के घी का कारोबार शबाब पर है. लोग जिज्ञासावश इसे खरीद तो रहे हैं लेकिन इस के वे फायदे नहीं हो रहे जो बताए जा रहे हैं. यह तय है कि यह खेल आज नहीं तो कल, खत्म हो जाएगा. लेकिन जब तक गाय के घी के कारोबारी तगड़ी चांदी काट चुके होंगे.

वैज्ञानिक कसौटी पर घी

गाय के घी के अपने अलग गुण हैं और इस से ज्यादा प्रचलित व सस्ती भैंस के दूध के अलग गुण हैं. भैंस के घी में पोषक तत्त्वों की मात्रा ज्यादा होती है. यह तुलना सिर्फ इसलिए पेश की जा रही है कि उपभोक्ताओं को हकीकत समझ आए और वे महज भ्रामक प्रचार या चमत्कार या शिगूफे के आधार पर गाय का घी न खरीदें.

भैस के घी में फैट यानी वसा की मात्रा गाय के घी से कहीं ज्यादा होती है, इसलिए गाय का घी हलका होता है. चूंकि फैट को पचाने में मेहनत ज्यादा करनी पड़ती है, इसलिए बच्चों और बूढ़ों को गाय का दूध पीने की सलाह दी जाती है. क्या यह कोई चमत्कार है. जाहिर है, नहीं. सीधा सा फंडा यह है कि अपनी क्षमता के मुताबिक ही घी और दूसरे खाद्य उत्पादों का सेवन करना चाहिए. भैंस के घी में प्रोटीन गाय के घी से ज्यादा होता है.

हैरानी वाला तथ्य यह है कि भैंस के घी में गाय के घी से कम कौलेस्ट्रौल होता है, इसलिए किडनी, डायबिटीज और हाइपरटैंशन से ग्रस्त लोगों को भैंस का घी खाने की सलाह दी जाती है. इस का यह मतलब नहीं कि महज इसी वजह से भैंस का घी चमत्कारी या अमृत हो गया. अलावा इस के, भैंस के घी में मिनरल्स भी गाय के घी से ज्यादा होते हैं.

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