भारतीय संस्कृति में विवाह एक विशेष उत्सव माना जाता है, इसलिए इसे बड़े उत्साह और धूमधाम से किया जाता है. वैसे विवाह 7 वचन और अग्नि के 7 फेरों के साथ जीवन भर साथ निभाने की रस्म मात्र है. लेकिन कुछ मिनटों में हो सकने वाली इन रस्मों के लिए यदि आस्ट्रेलिया से फूलों का जहाज आए और पूरा नगर बिजली की रोशनी से जगमगाए या एक नकली विशाल महल ही खड़ा कर दिया जाए तो उस पर इतना खर्च हो जाता है जिस से हजारों की रोटी जीवन भर चल सकती है.

पर यह बात तो हुई उन संपन्न लोगों की शादी की जिस के लिए न तो उन्हें किसी से उधार लेना पड़ता है, न ही कर्ज और न ही घर या जमीन बेचना पड़ता है. हां, इस चकाचौंध का असर मध्यवर्ग पर जरूर पड़ता है, जो यह सोचता है कि यदि पूरा नगर सजाया गया है तो मैं क्या अपना घर भी नहीं सजा सकता? और इस के लिए वह अपनी जमापूंजी तो खर्च करता ही है, कर्जदार भी बन जाता है.

मध्यवर्ग से अधिक मुश्किल उच्च मध्यवर्ग की है जिसे समाज में अपनी रईसी का झंडा गाड़े रखना है. रवींद्र के यहां दावत में विदेशी फल थे, चाट के 5 स्टौल थे और खाने के 10 तो सुशील कैसे पीछे रहते. उन्होंने पार्टी की तो बड़ेबड़े बैलून से सारा पंडाल सजाया और 15 स्टौल आइसक्रीम, चुसकी आदि के ही रखवा दिए. मिठाइयां 50 तरह की रखीं.

हर व्यक्ति अमूमन एक बार में 300 ग्राम या 500 ग्राम से अधिक नहीं खा पाता. यदि बहुत वैराइटी होती है तो चखने के चक्कर में बरबाद बहुत करता है और यदि समझदार होता है तो चुन कर खा लेता है. इस में सब से अधिक चांदी कैटरर की होती है. जितनी अधिक चीजें होंगी उतने ही उन के दाम होंगे. लेकिन कोई भी व्यक्ति खाता तो सीमित ही है.

पहले और अब में फर्क

पहले बरात आती थी तो कई दिन रुकती थी. लड़की के घरपरिवार का हर सदस्य बरातियों की खातिर करता था. बराती बन कर जाना मतलब 2 या 3 दिन की बादशाहत थी. लेकिन तब और अब में फर्क यह है कि अब बरातीघराती में फर्क होता ही नहीं. न कोई काम करना चाहता है न ही जिम्मेदारी निभाना चाहता है. सभी साहब बन कर आते हैं, इसलिए कैटरर का प्रचलन अधिक हो गया है, जो बेहद खर्चीला है.

पहले विवाह की सभी रस्में गीतसंगीत व ढोलक की थाप के साथ घरपरिवार की महिलाओं के बीच होती थीं. बहन, बूआ, चाची, ताई और महल्ले व पड़ोस की महिलाएं जुटतीं तो तरहतरह के मधुर गीतों के साथ रस्में निभातीं जिस से घर में रौनक हो जाती. अब घरपरिवार हम 2 हमारे 2 ने सीमित कर दिए. अब चाची, ताई आदि रिश्ते सीमित हो गए हैं तो रौनक के लिए किट्टी पार्टी, क्लब आदि में बनाए रिश्ते ही सब से ऊपर हो जाते हैं. ये रिश्ते अब केवल जेवरकपड़े की नुमाइश मात्र हो गए हैं. अब पुरानी रस्मों का कोई औचित्य नहीं रह गया है. अब वे रस्में नए अंदाज में नजाकत से किट्टी पार्टी की महिलाओं को बुला कर होती हैं.

अब घर वालों को उन के करने का न तो कारण ज्ञात है न अवसर, लेकिन लकीर के फकीर की तरह उन को करना है इसलिए करना है. पहले हलदी आदि के उबटन से त्वचा चमक उठती थी, लेकिन अब सब से पहले यह पूछा जाता है कौन से पार्लर से मेकअप कराया है या कौन सी ब्यूटीशियन आई है? अब सभी शुभदिन में ही विवाह करना चाहते हैं, इसलिए उस दिन ब्यूटीपार्लर में दुलहनों की कतार रहती है.

वैसे तो बरातें ही 12-1 बजे पहुंचती हैं, उस पर दूल्हा और घर वाले बैठे दुलहन का पार्लर से लौटने का इंतजार करते रहते हैं. अधिकांश निमंत्रित तो खाना खा और शगुन दे कर चले जाते हैं. बहुत कम लोग दुलहन को देखने के लिए रुक पाते हैं. आज हर महिला अच्छे से तैयार होना, पहननाओढ़ना जानती है और हर रस्म पर अलगअलग साजसज्जा. क्या यह हजारों रुपए की बरबादी नहीं कही जाएगी?

अनावश्यक दिखावा

एक गरीब कन्या का विवाह हो जाए इतना खर्च तो लेडीज संगीत तैयार कराने वाला ले लेता है. क्या ये सब दिखावा आवश्यक खर्च है? क्या लड़की होना इन सब की वजह से बोझ है? और क्या मात्र दहेज ही सामाजिक कुव्यवस्था की जिम्मेदार है या मानवीय मानसिकता भी, जिस ने विवाह को एक व्यापार बना दिया है?

अब दिखावे में खर्च ज्यादा

पुराने समय में कन्या पक्ष वर पक्ष वालों को मानसम्मान हेतु भेंट देता था व अपनी कन्या के उपयोग के लिए उस की पसंद की वस्तुएं. लेकिन यह उपहार दानवीय आकार ग्रहण कर दहेज बन गया है. दहेज के साथ जो दिखावा व तड़कभड़क जनजीवन और समाज के साथ जुड़ गया है, वह विवाह में अधिक कमर तोड़ देने वाला है. दिखावे में जो खर्च होता है वह अपव्यय है. हर वस्तु को सजा कर प्रस्तुत करना अच्छा है, लेकिन अब सजावट वस्तु से अधिक मूल्य की होने लगी है. पहले मात्र गोटे और कलावे से कपड़े बांध दिए जाते थे, लेकिन अब उन को तरहतरह की टे्र आदि में कलात्मक आकार दे कर प्रस्तुत किया जाता है.

बन गया व्यापार

इस में दोराय नहीं कि यदि कलात्मक सोच है तो अच्छा लगता है, लेकिन अब इस ने भी व्यापार का रूप ले लिया है. जहां एक तरफ दहेज प्रदर्शन बिलकुल निषिद्ध है, वहीं दूसरी तरफ सजी हुई दहेज की साडि़यां व जेवर वगैरह दिखाने के लिए लंबी जगह का इंतजाम किया जाता है. अफसोस तब होता है जब उस सजावट को एक क्षण में तोड़ कर कोने में ढेर कर दिया जाता है. तब यह लगता है यदि उतना मूल्य देय वस्तु में जुड़ा होता या स्वयं बचाया होता तो उपयोगी होता. क्व100 की वस्तु की सजावट में क्व100 खर्च कर देना कहां की समझदारी है?

वैवाहिक कार्यक्रम में वरमाला के नाम पर भव्य सैट तैयार किया जाता है. यह एक तरह से मुख्य रस्म बन चुकी है, इसलिए इस की विशेष तैयारियां की जाती हैं. वरमाला रस्म कम तमाशा अधिक होती है.

अधिकतर देखा जाता है कि वर अपनी गरदन अकड़ा लेता है. शायद ऐसा कर के वह अपनी होने वाली पत्नी पर रोब डालना चाहता है. दोस्त उसे ऊंचा उठा लेते हैं, साथ ही उसे प्रोत्साहित करने के लिए व्यंग्य आदि भी करते रहते हैं, जो स्थिति को हास्यास्पद तो बनाता ही है कहींकहीं बिगाड़ भी देता है. वधू माला फेंक कर या उछल कर डाल रही है या उसे उस की सहेलियां या भाई उठा रहा है या फिर उस के लिए स्टूल लाया जा रहा है, ये स्थितियां भी बहुत अशोभनीय लगती हैं.

बिजली की बेहिसाब जगमगाहट और विशाल पंडाल की टनों फूलों से सजावट क्या यह सब आवश्यक है? जहां देश में बिजली का संकट गहराता जा रहा है, वहां इतना अपव्यय क्या ठीक है? बैंडबाजे ध्वनि प्रदूषण तो उत्पन्न करते ही हैं, उन की धुन पर नाचतेथिरकते अकसर हास्यास्पद भी लगते हैं. साथ ही बरात का शोर आसपास के बच्चों के पढ़ने में व्यवधान बनने के साथ थके हुए उन लोगों के लिए, जिन का उस शादी से कोई लेनादेना नहीं है, अप्रिय स्थिति पैदा करता है.

यदि ये अनावश्यक खर्चे नवविवाहित जोड़े के आगे जीवन के लिए जीवन निधि बनें तो अधिक अच्छा है.

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